कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में क्रिटिकली अक्लेम्ड 'हामिद' को देखते हुए दर्शक को समझना होगा कि यह आम बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं है. हां, कश्मीर के मुद्दों पर बनी ये एक आम फिल्म है जो सरसरी तौर पर अलगाववाद, गायब हो जाते लोग, सेना के घाटी में दबाव, घाटी के रहनेवालों की स्थिति, पाकिस्तान और आतंकवादी संगठनो की घाटी में सक्रियता और पत्थरबाज़ी के विषयों को छूकर निकलती है.
कहानी सात साल के हामिद (ताल्हा अरशद रेहशी) की है. यह स्कूल में पढ़ने वाला मासूम बच्चा अपने माता इशरत (रसिका दुग्गल) और पिता रहमत (सुमीत कौल) का लाड़ला है. रहमत नाव बनाने का काम करता है और शौकिया शायरी भी कर लेता है. वह अपने बेटे को अल्लाह और दुनिया से जुड़ी अच्छी-अच्छी सीख देता है. एक रात बेटे हामिद की सेल लाने की जिद को पूरा करने के लिए रहमत घर से निकलता है और फिर वापस नहीं आता. उस हादसे के बाद हामिद की जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. इशरत बेटे और खुद को भूलकर शौहर की खोज में लग जाती है.
इस दौरान हामिद को पता चलता है कि उसका अब्बू अल्लाह के पास है और अब वह अल्लाह से अपने पिता को वापस लाने की जुगत लगाने लगता है. तभी उसे ये भी बताया जाता है कि 786 अल्लाह का नंबर है. अब हामिद को अल्लाह मियां से बात करके अपने अब्बू को वापस लाने की बात करनी है. हामिद जब अपनी बाल बुद्धि के बल पर किसी तरह उस नंबर को दस डिजिट में बदलकर अल्लाह को कॉन्टैक्ट करता है, तो वह नंबर सीआरपीएफ के जवान अभय (विकास कुमार) को लग जाता है. अपने परिवार से दूर कश्मीर में ड्यूटी पर तैनात अभय स्वयं अपने ऐसे कृत्य के अपराधबोध से दबा हुआ है, जहां अनजाने में उसके हाथों एक मासूम की जान जा चुकी है और वह उस बोझ को कम नहीं कर पा रहा। क्या हामिद अल्लाह से अपने अब्बू को वापस ला पाएगा? क्या इशरत अपने गुमशुदा शौहर का पता लगा पाएगी? इन तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
निर्देशक एजाज खान की यह तीसरी फिल्म है और हामिद के बहाने वे नाटकीय व डार्क हुए बगैर कश्मीर के उन मुद्दों को दर्शाते हैं, जो हमसे अछूते नहीं हैं. उन्होंने सेना और कश्मीरियों का टकराव, अलगाववादियों द्वारा मासूमों और किशोरों को आजादी और अल्लाह के नाम पर बरगलाना, कश्मीर के गुमशुदा लोगों का सुराग मिलना, घर के मर्दों का गायब हो जाने के बाद बीवियों और बच्चों का अकेले रह जाने का दर्द, सेना के जवान द्वारा कश्मीरी परिवार के लिए पैदा हुई सहानुभूति को गलत अर्थ में लेना, परिवार से दूर सीआरपीएफ जवानों का फ्रस्ट्रेशन जैसी कई मुद्दों को बहुत ही संवेदनशीलता से छुआ है.
बस फिल्म की एक सबसे बड़ी समस्या है इसकी लंबाई. फिल्म को एडिट कर बहुत छोटा किया जा सकता था लेकिन कश्मीरी लोगों का दर्द दिखाने के फेर में एजाज़ ने फिल्म को बहुत लंबा खींच दिया है. फिल्म किसी भी चीज़ के तह में नहीं जाती – न किरदारों के, न मुद्दों के, न कश्मीर के – ये फिल्म कुछ और लंबी कर एक डॉक्यूमेंट्री की तरह बनाई जाती तो और बेहतरीन बन सकती थी.
फिल्म में रसिका दुग्गल ने अपने पति को ढूंढती महिला का किरदार बेहद सक्षम तरीके से निभाया है और छोटी सी भूमिका में समित कौल भी अपनी छाप छोड़ते हैं. महीनों से छुट्टी के लिए परेशान एक फौजी के किरदार में विकास कुमार भी जमते हैं और लीड रोल में ताल्हा ने जबर्दस्त काम किया है. उनकी मासूमियत और अभिनय दिल को छू जाता है.
इस फिल्म में कई ऐसे सवांद है जो आपको सोचने के लिए मजबूर करते हैं. फिल्म में पत्थरबाज़ी और अलगाववाद की तरफ बच्चों का रुझान कैसे हो सकता है इस बात को बहुत सावधानी और बारीकी से दिखाने में निर्देशक सफल हुए हैं. फिल्म का संगीत और बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है लेकिन बार बार फिल्म की गति परेशान करती है. अगर आप कश्मीर के मुद्दों में दिलचस्पी रखते हैं तो इस फिल्म को देख सकते हैं.
Review: 'हामिद' से पता चलता है कश्मीर में बच्चे पत्थरबाज़ ही नहीं कारीगर भी बनते हैं - sumit kaul
कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में क्रिटिकली अक्लेम्ड 'हामिद' को देखते हुए दर्शक को समझना होगा कि यह आम बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं है. हां, कश्मीर के मुद्दों पर बनी ये एक आम फिल्म है जो सरसरी तौर पर अलगाववाद, गायब हो जाते लोग, सेना के घाटी में दबाव, घाटी के रहनेवालों की स्थिति, पाकिस्तान और आतंकवादी संगठनो की घाटी में सक्रियता और पत्थरबाज़ी के विषयों को छूकर निकलती है.
कहानी सात साल के हामिद (ताल्हा अरशद रेहशी) की है. यह स्कूल में पढ़ने वाला मासूम बच्चा अपने माता इशरत (रसिका दुग्गल) और पिता रहमत (सुमीत कौल) का लाड़ला है. रहमत नाव बनाने का काम करता है और शौकिया शायरी भी कर लेता है. वह अपने बेटे को अल्लाह और दुनिया से जुड़ी अच्छी-अच्छी सीख देता है. एक रात बेटे हामिद की सेल लाने की जिद को पूरा करने के लिए रहमत घर से निकलता है और फिर वापस नहीं आता. उस हादसे के बाद हामिद की जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. इशरत बेटे और खुद को भूलकर शौहर की खोज में लग जाती है.
इस दौरान हामिद को पता चलता है कि उसका अब्बू अल्लाह के पास है और अब वह अल्लाह से अपने पिता को वापस लाने की जुगत लगाने लगता है. तभी उसे ये भी बताया जाता है कि 786 अल्लाह का नंबर है. अब हामिद को अल्लाह मियां से बात करके अपने अब्बू को वापस लाने की बात करनी है. हामिद जब अपनी बाल बुद्धि के बल पर किसी तरह उस नंबर को दस डिजिट में बदलकर अल्लाह को कॉन्टैक्ट करता है, तो वह नंबर सीआरपीएफ के जवान अभय (विकास कुमार) को लग जाता है. अपने परिवार से दूर कश्मीर में ड्यूटी पर तैनात अभय स्वयं अपने ऐसे कृत्य के अपराधबोध से दबा हुआ है, जहां अनजाने में उसके हाथों एक मासूम की जान जा चुकी है और वह उस बोझ को कम नहीं कर पा रहा। क्या हामिद अल्लाह से अपने अब्बू को वापस ला पाएगा? क्या इशरत अपने गुमशुदा शौहर का पता लगा पाएगी? इन तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
निर्देशक एजाज खान की यह तीसरी फिल्म है और हामिद के बहाने वे नाटकीय व डार्क हुए बगैर कश्मीर के उन मुद्दों को दर्शाते हैं, जो हमसे अछूते नहीं हैं. उन्होंने सेना और कश्मीरियों का टकराव, अलगाववादियों द्वारा मासूमों और किशोरों को आजादी और अल्लाह के नाम पर बरगलाना, कश्मीर के गुमशुदा लोगों का सुराग मिलना, घर के मर्दों का गायब हो जाने के बाद बीवियों और बच्चों का अकेले रह जाने का दर्द, सेना के जवान द्वारा कश्मीरी परिवार के लिए पैदा हुई सहानुभूति को गलत अर्थ में लेना, परिवार से दूर सीआरपीएफ जवानों का फ्रस्ट्रेशन जैसी कई मुद्दों को बहुत ही संवेदनशीलता से छुआ है.
बस फिल्म की एक सबसे बड़ी समस्या है इसकी लंबाई. फिल्म को एडिट कर बहुत छोटा किया जा सकता था लेकिन कश्मीरी लोगों का दर्द दिखाने के फेर में एजाज़ ने फिल्म को बहुत लंबा खींच दिया है. फिल्म किसी भी चीज़ के तह में नहीं जाती – न किरदारों के, न मुद्दों के, न कश्मीर के – ये फिल्म कुछ और लंबी कर एक डॉक्यूमेंट्री की तरह बनाई जाती तो और बेहतरीन बन सकती थी.
फिल्म में रसिका दुग्गल ने अपने पति को ढूंढती महिला का किरदार बेहद सक्षम तरीके से निभाया है और छोटी सी भूमिका में समित कौल भी अपनी छाप छोड़ते हैं. महीनों से छुट्टी के लिए परेशान एक फौजी के किरदार में विकास कुमार भी जमते हैं और लीड रोल में ताल्हा ने जबर्दस्त काम किया है. उनकी मासूमियत और अभिनय दिल को छू जाता है.
इस फिल्म में कई ऐसे सवांद है जो आपको सोचने के लिए मजबूर करते हैं. फिल्म में पत्थरबाज़ी और अलगाववाद की तरफ बच्चों का रुझान कैसे हो सकता है इस बात को बहुत सावधानी और बारीकी से दिखाने में निर्देशक सफल हुए हैं. फिल्म का संगीत और बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है लेकिन बार बार फिल्म की गति परेशान करती है. अगर आप कश्मीर के मुद्दों में दिलचस्पी रखते हैं तो इस फिल्म को देख सकते हैं.
हामिद के कुछ दृश्य बेहद संवेदनशील हैं. सेना के जवानों का एक आम कश्मीरी को रोकना, एक पिता का मजबूरी में बाहर जाना, अलगाववादियों का बचपन से ही कश्मीरी बच्चों पर निगाह रखना, मां का अपने बेटे से पैसे मांगना.
कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में क्रिटिकली अक्लेम्ड 'हामिद' को देखते हुए दर्शक को समझना होगा कि यह आम बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं है. हां, कश्मीर के मुद्दों पर बनी ये एक आम फिल्म है जो सरसरी तौर पर अलगाववाद, गायब हो जाते लोग, सेना के घाटी में दबाव, घाटी के रहनेवालों की स्थिति, पाकिस्तान और आतंकवादी संगठनो की घाटी में सक्रियता और पत्थरबाज़ी के विषयों को छूकर निकलती है.
कहानी सात साल के हामिद (ताल्हा अरशद रेहशी) की है. यह स्कूल में पढ़ने वाला मासूम बच्चा अपने माता इशरत (रसिका दुग्गल) और पिता रहमत (सुमीत कौल) का लाड़ला है. रहमत नाव बनाने का काम करता है और शौकिया शायरी भी कर लेता है. वह अपने बेटे को अल्लाह और दुनिया से जुड़ी अच्छी-अच्छी सीख देता है. एक रात बेटे हामिद की सेल लाने की जिद को पूरा करने के लिए रहमत घर से निकलता है और फिर वापस नहीं आता. उस हादसे के बाद हामिद की जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. इशरत बेटे और खुद को भूलकर शौहर की खोज में लग जाती है.
इस दौरान हामिद को पता चलता है कि उसका अब्बू अल्लाह के पास है और अब वह अल्लाह से अपने पिता को वापस लाने की जुगत लगाने लगता है. तभी उसे ये भी बताया जाता है कि 786 अल्लाह का नंबर है. अब हामिद को अल्लाह मियां से बात करके अपने अब्बू को वापस लाने की बात करनी है. हामिद जब अपनी बाल बुद्धि के बल पर किसी तरह उस नंबर को दस डिजिट में बदलकर अल्लाह को कॉन्टैक्ट करता है, तो वह नंबर सीआरपीएफ के जवान अभय (विकास कुमार) को लग जाता है. अपने परिवार से दूर कश्मीर में ड्यूटी पर तैनात अभय स्वयं अपने ऐसे कृत्य के अपराधबोध से दबा हुआ है, जहां अनजाने में उसके हाथों एक मासूम की जान जा चुकी है और वह उस बोझ को कम नहीं कर पा रहा। क्या हामिद अल्लाह से अपने अब्बू को वापस ला पाएगा? क्या इशरत अपने गुमशुदा शौहर का पता लगा पाएगी? इन तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
निर्देशक एजाज खान की यह तीसरी फिल्म है और हामिद के बहाने वे नाटकीय व डार्क हुए बगैर कश्मीर के उन मुद्दों को दर्शाते हैं, जो हमसे अछूते नहीं हैं. उन्होंने सेना और कश्मीरियों का टकराव, अलगाववादियों द्वारा मासूमों और किशोरों को आजादी और अल्लाह के नाम पर बरगलाना, कश्मीर के गुमशुदा लोगों का सुराग मिलना, घर के मर्दों का गायब हो जाने के बाद बीवियों और बच्चों का अकेले रह जाने का दर्द, सेना के जवान द्वारा कश्मीरी परिवार के लिए पैदा हुई सहानुभूति को गलत अर्थ में लेना, परिवार से दूर सीआरपीएफ जवानों का फ्रस्ट्रेशन जैसी कई मुद्दों को बहुत ही संवेदनशीलता से छुआ है.
बस फिल्म की एक सबसे बड़ी समस्या है इसकी लंबाई. फिल्म को एडिट कर बहुत छोटा किया जा सकता था लेकिन कश्मीरी लोगों का दर्द दिखाने के फेर में एजाज़ ने फिल्म को बहुत लंबा खींच दिया है. फिल्म किसी भी चीज़ के तह में नहीं जाती – न किरदारों के, न मुद्दों के, न कश्मीर के – ये फिल्म कुछ और लंबी कर एक डॉक्यूमेंट्री की तरह बनाई जाती तो और बेहतरीन बन सकती थी.
फिल्म में रसिका दुग्गल ने अपने पति को ढूंढती महिला का किरदार बेहद सक्षम तरीके से निभाया है और छोटी सी भूमिका में समित कौल भी अपनी छाप छोड़ते हैं. महीनों से छुट्टी के लिए परेशान एक फौजी के किरदार में विकास कुमार भी जमते हैं और लीड रोल में ताल्हा ने जबर्दस्त काम किया है. उनकी मासूमियत और अभिनय दिल को छू जाता है.
इस फिल्म में कई ऐसे सवांद है जो आपको सोचने के लिए मजबूर करते हैं. फिल्म में पत्थरबाज़ी और अलगाववाद की तरफ बच्चों का रुझान कैसे हो सकता है इस बात को बहुत सावधानी और बारीकी से दिखाने में निर्देशक सफल हुए हैं. फिल्म का संगीत और बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है लेकिन बार बार फिल्म की गति परेशान करती है. अगर आप कश्मीर के मुद्दों में दिलचस्पी रखते हैं तो इस फिल्म को देख सकते हैं.
Conclusion: