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भारतीय वीरों ने हिंडन घाट के पास अंग्रेजों को चटा दी थी धूल, अब उनकी कब्रे फांक रही धूल - हिंडन घाट

देश आजादी के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव मना रहा है और हर कोई अपने देशभक्ति के जज्बे को दिखा रहा है. आज हम 1857 की क्रांति से जुड़ी शौर्य गाथा की एक दास्तान बता रहे हैं, जो गाजियाबाद में हिंडन घाट के किनारे की है. यहां अंग्रेजों की सेना ने भारतीय वीरों पर गोलियां बरसाई. मगर भारतीय वीरों ने हार नहीं मानी और अंग्रेजों के पैर उखाड़ कर फेंक दिए.

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हिंडन घाट युद्ध
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Published : Aug 15, 2022, 4:07 PM IST

नई दिल्ली/ गाजियाबाद : देश की आजादी को आज 75 साल पूरे हो गए हैं. लेकिन यह आजादी हमें इतनी आसानी से नहीं मिली है. इसके लिए कठिन संघर्ष और बलिदान दिया गया. आज हम ऐसे ही एक बलिदान से जुड़ी भारतीय शौर्य की एक दास्तान बताने जा रहे हैं. हम 1857 की क्रांति की बात कर रहे हैं. इस क्रांति से जुड़ी शौर्य गाथा की एक दास्तान गाजियाबाद में हिंडन घाट के किनारे हैं. जहां पर अंग्रेजी सेना का सामना भारत के वीरों से हुआ था. अंग्रेजों की सेना ने भारतीय वीरों पर गोलियां बरसाई. मगर भारतीय वीरों ने हार नहीं मानी और अंग्रेजों के पैर उखाड़ कर फेंक दिए. हिंडन घाट के किनारे अंग्रेजी सैनिकों की कब्रें उस भारतीय शौर्य की गवाह हैं.

1857 की क्रांति मेरठ से शुरू हुई थी. गाजियाबाद भी मेरठ से ज्यादा दूर नहीं है. जब 1857 के युद्ध का था तो अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए भारतीय वीर सैनिक डट कर खड़े हो गए थे. एक तरफ इस क्रांति के दौरान झांसी की रानी, तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर और मंगल पांडे अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे. बाकी के वीर सैनिक भी उनसे प्रेरणा लेकर अंग्रेजों का मुकाबला कर रहे थे. अंग्रेजों की सेना जब गाजियाबाद में हिंडन नदी के पास के घाट पर पहुंची तो आमने-सामने का युद्ध हुआ. संख्या में भले ही भारतीय सैनिक अंग्रेजों के मुकाबले कम थे, मगर हौंसला कहीं ज्यादा था. उस समय हिंडन नदी दिल्ली के छोर पर हुआ करती थी. जहां पर सैनिकों ने अपने हौसले से दिल्ली पहुंचने से अंग्रेजों को रोका हुआ था. भारतीय क्रांतिकारी अपने पुराने हथियारों का इस्तेमाल करके अपने हौंसले से अंग्रेजों को जवाब दे रहे थे.

हिंडन घाट युद्ध

वहीं, अंग्रेज अपने साथ हथियारों और गोला-बारूद की बड़ी खेप लेकर पहुंचे थे. लेकिन फिर भी अंग्रेजी सैनिक मारे गए. उनके अधिकारी भी वापस भागने लगे. जो भाग गए उनकी पीठ पर भारतीय वीरों ने हमला नहीं किया. इस दौरान मारे गए तीन अंग्रेजों की कब्र आज भी हिंडन नदी के किनारे बसे हिंडन विहार में हैं. इन पर लंबे समय तक अंग्रेजों की पीढ़ियां श्रद्धांजलि देने के लिए भी आती थी. क्योंकि इन कब्रों पर चालाकी से अंग्रेजों ने लिख दिया था कि लू के कारण इनकी मौत हुई थी. हालांकि अंग्रेजों की चालाकी काम नहीं आई और सब को हकीकत पता चल गई.

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हिंडन घाट युद्ध

अंग्रेजों की चालाकी और हकीकत

गाजियाबाद के जाने-माने इतिहासकार प्रोफेसर कृष्ण कांत शर्मा बताते हैं कि 1857 की क्रांति में हिंडन का युद्ध हुआ था. 30 और 31 मई को यह युद्ध हुआ था. हिंडन नदी पर एक तरफ हमारे क्रांतिकारी थे और दूसरी तरफ अंग्रेजों की फौज थी. कुछ क्रांतिकारी ही पूरी फौज से लड़ गए. इसमें अंग्रेजों को हार का मुंह देखना पड़ा था. भारतीय सिपाही ने गोला बारूद के ऊपर खुद लेट कर गोला बारूद में आग लगा दी थी, जिसमें भारतीय वीर की जान चली गई. मगर कई अंग्रेज भी मारे गए. इसमें अंग्रेजी कैप्टन और उसके साथियों के प्राण भी चले गए थे. उन्हीं अंग्रेजों की कब्रें हिंडन नदी किनारे बनाई गई. इस युद्ध की वजह से ही अंग्रेज पीछे हटे थे और हमारे क्रांतिकारी वापस दिल्ली आए थे.
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हिंडन घाट युद्ध

ये भी पढ़ें : दिल्ली के ऑटोचालक की देशभक्ति, आजादी के 75 साल पूरे होने पर लगाई ऑटो में 75 झंडे

स्थानीय निवासी प्रशांत कुमार ने बताया कि साल 2004 तक अंग्रेजों की कब्रों पर उनके पीढ़ी के लोग यहां मोमबत्ती जलाने आते थे. लेकिन जब सच्चाई सामने आई तो अंग्रेजों की पीढ़ी के लोगों ने भी यहां आना बंद कर दिया. फिलहाल कब्रें पूरी तरह से धूल फांक रही हैं. इससे पता चलता है कि अंग्रेजों ने जीते जी कायरता पूर्ण हरकतें की थी. मगर मरने के बाद भी उस समय के उनके अंग्रेज साथियों ने झूठी जानकारियां इतिहास में दर्ज करने का प्रयास किया था. मगर अंग्रेजों की चालाकी धरी की धरी रह गई.

नई दिल्ली/ गाजियाबाद : देश की आजादी को आज 75 साल पूरे हो गए हैं. लेकिन यह आजादी हमें इतनी आसानी से नहीं मिली है. इसके लिए कठिन संघर्ष और बलिदान दिया गया. आज हम ऐसे ही एक बलिदान से जुड़ी भारतीय शौर्य की एक दास्तान बताने जा रहे हैं. हम 1857 की क्रांति की बात कर रहे हैं. इस क्रांति से जुड़ी शौर्य गाथा की एक दास्तान गाजियाबाद में हिंडन घाट के किनारे हैं. जहां पर अंग्रेजी सेना का सामना भारत के वीरों से हुआ था. अंग्रेजों की सेना ने भारतीय वीरों पर गोलियां बरसाई. मगर भारतीय वीरों ने हार नहीं मानी और अंग्रेजों के पैर उखाड़ कर फेंक दिए. हिंडन घाट के किनारे अंग्रेजी सैनिकों की कब्रें उस भारतीय शौर्य की गवाह हैं.

1857 की क्रांति मेरठ से शुरू हुई थी. गाजियाबाद भी मेरठ से ज्यादा दूर नहीं है. जब 1857 के युद्ध का था तो अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए भारतीय वीर सैनिक डट कर खड़े हो गए थे. एक तरफ इस क्रांति के दौरान झांसी की रानी, तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर और मंगल पांडे अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे. बाकी के वीर सैनिक भी उनसे प्रेरणा लेकर अंग्रेजों का मुकाबला कर रहे थे. अंग्रेजों की सेना जब गाजियाबाद में हिंडन नदी के पास के घाट पर पहुंची तो आमने-सामने का युद्ध हुआ. संख्या में भले ही भारतीय सैनिक अंग्रेजों के मुकाबले कम थे, मगर हौंसला कहीं ज्यादा था. उस समय हिंडन नदी दिल्ली के छोर पर हुआ करती थी. जहां पर सैनिकों ने अपने हौसले से दिल्ली पहुंचने से अंग्रेजों को रोका हुआ था. भारतीय क्रांतिकारी अपने पुराने हथियारों का इस्तेमाल करके अपने हौंसले से अंग्रेजों को जवाब दे रहे थे.

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वहीं, अंग्रेज अपने साथ हथियारों और गोला-बारूद की बड़ी खेप लेकर पहुंचे थे. लेकिन फिर भी अंग्रेजी सैनिक मारे गए. उनके अधिकारी भी वापस भागने लगे. जो भाग गए उनकी पीठ पर भारतीय वीरों ने हमला नहीं किया. इस दौरान मारे गए तीन अंग्रेजों की कब्र आज भी हिंडन नदी के किनारे बसे हिंडन विहार में हैं. इन पर लंबे समय तक अंग्रेजों की पीढ़ियां श्रद्धांजलि देने के लिए भी आती थी. क्योंकि इन कब्रों पर चालाकी से अंग्रेजों ने लिख दिया था कि लू के कारण इनकी मौत हुई थी. हालांकि अंग्रेजों की चालाकी काम नहीं आई और सब को हकीकत पता चल गई.

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अंग्रेजों की चालाकी और हकीकत

गाजियाबाद के जाने-माने इतिहासकार प्रोफेसर कृष्ण कांत शर्मा बताते हैं कि 1857 की क्रांति में हिंडन का युद्ध हुआ था. 30 और 31 मई को यह युद्ध हुआ था. हिंडन नदी पर एक तरफ हमारे क्रांतिकारी थे और दूसरी तरफ अंग्रेजों की फौज थी. कुछ क्रांतिकारी ही पूरी फौज से लड़ गए. इसमें अंग्रेजों को हार का मुंह देखना पड़ा था. भारतीय सिपाही ने गोला बारूद के ऊपर खुद लेट कर गोला बारूद में आग लगा दी थी, जिसमें भारतीय वीर की जान चली गई. मगर कई अंग्रेज भी मारे गए. इसमें अंग्रेजी कैप्टन और उसके साथियों के प्राण भी चले गए थे. उन्हीं अंग्रेजों की कब्रें हिंडन नदी किनारे बनाई गई. इस युद्ध की वजह से ही अंग्रेज पीछे हटे थे और हमारे क्रांतिकारी वापस दिल्ली आए थे.
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स्थानीय निवासी प्रशांत कुमार ने बताया कि साल 2004 तक अंग्रेजों की कब्रों पर उनके पीढ़ी के लोग यहां मोमबत्ती जलाने आते थे. लेकिन जब सच्चाई सामने आई तो अंग्रेजों की पीढ़ी के लोगों ने भी यहां आना बंद कर दिया. फिलहाल कब्रें पूरी तरह से धूल फांक रही हैं. इससे पता चलता है कि अंग्रेजों ने जीते जी कायरता पूर्ण हरकतें की थी. मगर मरने के बाद भी उस समय के उनके अंग्रेज साथियों ने झूठी जानकारियां इतिहास में दर्ज करने का प्रयास किया था. मगर अंग्रेजों की चालाकी धरी की धरी रह गई.

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