नई दिल्ली: कोविड-19 का संक्रमण रोकने के लिये सरकार ने लॉकडाउन को बढ़ा दिया है. ऐसे में लाखों श्रमिक काम धंधे बंद होने के बाद जमा पूंजी खर्च होने तथा स्वास्थ्य एवं आजीविका को लेकर पनपी असुरक्षा से चिंतित हैं.
रोज कमा कर, रोज खाने वाले श्रमिक इससे सबसे अधिक परेशान है और घरों को लौट रहे हैं जिससे छोटे बड़े कारोबार एवं उद्योगों पर दूरगामी प्रभाव की आशंका व्यक्त की जा रही है. इसी मुद्दे पर भारत के योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) के पूर्व सदस्य और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिजीत सेन से भाषा के पांच सवाल पर उनके जवाब.
सवाल: कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में पूरा देश एकजुट हैं लेकिन मजदूर वर्ग परेशान है. उनमें असुरक्षा की भावना गहरी हो रही है. इस पर आप क्या कहेंगे.
जवाब: यह सच है. जिनकी नियमित आय है, जो सरकारी सेवा में हैं या जो बड़ी कंपनियों में काम करते हैं...उन्हें या तो सरकार से संरक्षण हैं या कुछ कटौतियों के साथ वेतन मिल रहा है. लेकिन दिहाड़ी मजदूर या रोज कमाने, रोज खाने वाला श्रमिक तथा छोटे या मझोले उद्योगों में काम करने वाले श्रमिक फंस गए हैं क्योंकि इनको बैंकों से भी रिण या सरकार से संरक्षण नहीं मिल पाता है. ऐसे दिहाड़ी मजदूरों को सरकार 1000 रूपये और अनाज आदि देने की व्यवस्था कर रही है लेकिन भविष्य को लेकर इनके भीतर गंभीर चिंता और अनश्चितता उत्पन्न हो रही है. ऐसे में इन वर्गो में विश्वास पैदा करना आने वाले समय में देश की आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने के लिये बेहद जरूरी है.
सवाल: देश के औद्योगिक केंद्रों और बड़े शहरों में आर्थिक गतिविधियों को चलाने में प्रवासी श्रमिकों का बड़ा योगदान रहता है . लेकिन बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक अपने घरों को लौटने को तत्पर हैं, तो ऐसे में लघु, सूक्ष्म एवं मध्यम उद्यमों सहित सरकार के प्रयासों पर इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे ?
जवाब: लॉकडाउन को उपयुक्त तरीके से लागू नहीं किया गया. लॉकडाउन लागू करते समय प्रवासी मजदूरों के विषय पर पर्याप्त विचार एवं संवाद की कमी स्पष्ट तौर पर दिखी है. इसके कारण ही प्रारंभ में कई स्थानों पर प्रवासी मजदूर बाहर निकल आए थे. अब कुछ सप्ताह गुजरने के बाद उनके समक्ष रोजगार एवं आजीविका की समस्या है. बड़ी संख्या में मजदूर अपने घरों को जाना चाहते हैं. जब लॉकडाउन खुलेगा और औद्योगिक इकाइयां पूरी तरह से काम करने लगेंगी, तब उद्योगों के समक्ष मजदूरों की कमी की समस्या होगी. इन चीजों के बारे में पहले विचार किया जाना चाहिए था. उद्योगों के साथ भी संवाद होना चाहिए था. यहां पर समन्वय की कमी दिखी है जिसका कुछ न कुछ प्रभाव तो पड़ेगा. कोविड-19 के रेड जोन में इसका असर ज्यादा हो सकता है.
सवाल: आज की स्थिति में 40 लाख लोगों के राशन कार्ड नहीं बने हैं, असंगठित क्षेत्र में बड़ी संख्या में श्रमिकों का पंजीकरण नहीं हुआ है जिससे वे सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. ऐसे में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा और इससे जुड़ी व्यवस्था में किस प्रकार के सुधार की जरूरत है ?
जवाब: किसी भी सुधार में समय लगता है. लेकिन जब कोरोना वायरस की चुनौती जैसी स्थिति हो तब व्यापक सुधार की बजाए तात्कालिक उपायों पर जोर दिये जाने की जरूरत है. तत्कालिक उपाय यह है कि किसी भी श्रमिक के पास राशन कार्ड हो या नहीं हो, वह अपने गांव में हो या किसी दूसरे नगर में हो.... प्रत्येक श्रमिक को पैसा और अनाज उपलब्ध कराया जाना चाहिए. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अगर असल में सुधार करना है तो यह सुनिश्चित करना होगा कि राशन कार्ड के आधार पर किसी भी व्यक्ति को देश के किसी हिस्से में, उसका हिस्सा मिल जाए. ऐसा इसलिये क्योंकि दिहाड़ी मजदूर हमेशा अपने मूल गांव में नहीं रहता और काम की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आता जाता रहता है.
सवाल: सरकार ने फैक्टरी मालिकों से मजदूरों का पैसा नहीं काटने को कहा है. लेकिन जब छोटी इकाइयों में उत्पादन नहीं हो रहा है, उनकी आमदनी नहीं है, तब क्या ऐसा संभव है ?
जवाब: लॉकडाउन में इकाइयां बंद हैं. छोटे उद्योग बंद होने के कारण उनके पास पैसा नहीं है . ऐसे में कोई उदार व्यक्ति होगा तभी यह संभव है.
सवाल: मजदूरों, उद्योगों, मध्यम वर्ग एवं अन्य क्षेत्र को फिर से पटरी पर लाने के लिये सरकार को किस प्रकार के बजटीय प्रबंधन एवं आवंटन की जरूरत है ?
जवाब: सरकार लगभग हर साल अगस्त-सितंबर में संसद के सत्र में अनुदान की अनुपूरक मांग पेश करती है. लेकिन इस बार कोरोना वायरस के संकट और लॉकडाउन के कारण उत्पन्न स्थिति को देखते हुए अनुदान की अनुपूरक मांगों का स्वरूप एवं दायरा बड़ा होगा. यह एक तरह से पूर्ण बजट के आकार का हो सकता है. मेरा सुझाव है कि सरकार सितंबर में अनुदान की अनुपूरक मांग पेश करने की बजाए "पूर्ण बजट" पेश करे ताकि कर और राजस्व सहित सभी मदों पर संसद की मंजूरी मिल जाए.
(पीटीआई-भाषा)