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आरबीआई के पूर्व गवर्नरों ने चेताया, एनपीए बन सकता है अर्थव्यवस्था की राह में रोड़ा - एनपीए

भारतीय रिजर्व बैंक के चार पूर्व गवर्नरों ने एक पुस्तक में अपने कुछ इस तरह के विचार व्यक्त किये हैं. यह पुस्तक जल्द ही बाजार में आने वाली है. एक पत्रकार की इस पुस्तक में डॉ रघुराम राजन, डॉ वाईवी रेड्डी, डी सुब्बाराव और सी रंगराजन के विचार हैं.

आरबीआई के चार पूर्व गवर्नरों ने चेताया, एनपीए बन सकता है अर्थव्यवस्था की राह का रोड़ा
आरबीआई के चार पूर्व गवर्नरों ने चेताया, एनपीए बन सकता है अर्थव्यवस्था की राह का रोड़ा
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Published : Nov 3, 2020, 1:01 PM IST

Updated : Nov 3, 2020, 1:20 PM IST

मुंबई: सरकार ने बैंकों को बचाने का उपाय न किया तो कोरोना वायरस महामारी से बुरी तरह प्रभावित देश की अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने की राह में इन बैंकों के फंसे कर्ज (एनपीए) का ऊंचा स्तर बड़ा रोड़ा बन सकता है.

भारतीय रिजर्व बैंक के चार पूर्व गवर्नरों ने एक पुस्तक में अपने कुछ इस तरह के विचार व्यक्त किये हैं. यह पुस्तक जल्द ही बाजार में आने वाली है. एक पत्रकार की इस पुस्तक में डॉ रघुराम राजन, डॉ वाईवी रेड्डी, डी सुब्बाराव और सी रंगराजन के विचार हैं.

भारतीय बैंकों में एनपीए का स्तर सबसे ऊंचा है. पूर्व गवर्नरों ने कहा है कि जब तक सरकार बैंकों को बचाने के लिये आगे नहीं आती है बैंकों की मौजूदा स्थिति आर्थिक पुनरूत्थान के रास्ते में बड़ा अवरोध पैदा कर सकती है.

पूर्व गवर्नर राजन ने इस स्थिति के लिये कंपनियों के (कर्ज लेकर) अत्यधिक निवेश और(कर्ज देने में) बैंकों के अतिउत्साह तथा समय रहते कार्रवाई करने में विफलता को दोषी ठहराया.

किताब में रेड्डी ने लिखा है कि एनपीए केवल एक समस्या नहीं है बल्कि यह अन्य समस्यों का परिणाम है. इसी में सुब्बाराव ने कहा है कि वह एनपीए को एक बड़ी और वास्तविक समस्या के तौर पर देखते हैं जिस पर अंकुश लगाने की जरूरत है जबकि चक्रवर्ती रंगाराजन ने वास्तविक क्षेत्र की समस्याओं के लटकते जाने को इस स्थिति के लिये जिम्मेदार ठहराया. इसके साथ ही उन्होंने आंशिक तौर पर नीतियों को भी इसकी वजह बताया और कहा कि नोटबंदी ने इस संकट को और बढ़ाया.

वरिष्ठ पत्रकार तमल बंद्योपाध्याय की इस पुस्तक "पेंडामोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिंग ट्रेजडी" में सुब्बाराव कहते हैं, "हां, फंसे कर्ज की समस्या बड़ी और वास्तविक है."

लेखक ने रिजर्व बैंक के इन चारों पूर्व गवर्नरों से बातचीत कर यह पुस्तक तैयार की है. सुब्बाराव सितंबर 2008 से लेकर सितंबर 2013 तक पांच साल रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हैं.

चारों पूर्व गवर्नरों ने कहा है कि एक और सबसे बड़ी और वास्तविक समस्या सरकार की वित्तीय तंगी की है. उनका इशारा महामारी के कारण सरकार की कमजोर वित्तीय स्थिति की तरफ था.

उन्होंने कहा है कि पिछले कुछ साल के दौरान सरकार से 2.6 लाख करोड़ रुपये की नई पूंजी पाने के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति खराब है. इसके बावजूद इस साल सरकार बैंकों में और पूंजी डालने के लिये मात्र 20,000 करोड़ रुपये ही अलग रख पाई है. जबकि कई विश्लेषकों ने इसके लिये 13 अरब डालर यानी करीब एक लाख करोड़ रुपये की जरूरत बताई है.

ये भी पढ़ें: अमेरिकी चुनाव: जानिए ट्रंप या बिडेन की जीत पर कैसे प्रतिक्रिया दे सकता है शेयर बाजार?

रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की समाप्ति में मार्च तक बैंकों का एनपीए 12.5 प्रतिशत से ऊपर निकल जाने का अनुमान है. यह दो दशक में सबसे अधिक होगा. कोरोना वायरस महामारी के कारण वित्तीय क्षेत्र पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है.

वर्ष 2003 से 2008 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे वाई.वी. रेड्डी ने कहा, इस तरह से वित्तीय समस्या पहले बैंकिंग क्षेत्र में पहुंचेगी और उसके बाद समूचे वित्तीय क्षेत्र में इसका असर होगा जो कि वास्तविक अर्थव्यवस्था पर भी असर डालेगा.

उन्होंने कहा, "संक्षेप में यदि कहा जाये की एनपीए केवल एक समस्या ही नहीं है बल्कि यह अन्य समस्याओं का परिणाम है."

इसके लिये उन्होंने नवंबर 2016 में की गई अनियोजित और विवादित नोटबंदी के फैसले की तरफ इशारा किया जिसमें आर्थिक तंत्र में प्रसारित 76 प्रतिशत से अधिक मुद्रा को एक झटके में वापस ले लिया गया.

ये चारों पूर्व गवर्नर बैंकों के फंसे कर्ज के बढ़ने के पीछे के कारणों और इसकी पनरावृति को रोकने के लिये क्या होना चाहिये इसको लेकर एकमत नहीं थे लेकिन सुदृढीकरण, संचालन और सरकार की बैंकों में मालिकाना स्थिति को लेकर सभी के विचार एक जैसे है. सभी इस बात पर एकमत थे कि बैंकिंग क्षेत्र की कमजोरी को ठीक करने के लिये उन्हें मजबूत बनाना पक्का इलाज नहीं है.

सबसे बड़ा मुद्दा संचालन का है और सरकार को इनमें अपनी हिस्सेदारी को कम करना चाहिये. पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सितंबर 2013 से तीन साल तक रिजर्व बैंक की कमान संभाली थी. उन्होंने एनपीए के खिलाफ कड़े कदम उठाये.

उन्होंने कंपनियों द्वारा इस दौरान अत्यधिक निवेश किये जाने और बैंकों के अतिउत्साह को तथाा समय पर कार्रवाई न किए जाने को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया. इस दौरान अर्थव्यवस्था में सुस्ती रहने से भी एनपीए तेजी से बढ़ा था.

(पीटीआई-भाषा)

मुंबई: सरकार ने बैंकों को बचाने का उपाय न किया तो कोरोना वायरस महामारी से बुरी तरह प्रभावित देश की अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने की राह में इन बैंकों के फंसे कर्ज (एनपीए) का ऊंचा स्तर बड़ा रोड़ा बन सकता है.

भारतीय रिजर्व बैंक के चार पूर्व गवर्नरों ने एक पुस्तक में अपने कुछ इस तरह के विचार व्यक्त किये हैं. यह पुस्तक जल्द ही बाजार में आने वाली है. एक पत्रकार की इस पुस्तक में डॉ रघुराम राजन, डॉ वाईवी रेड्डी, डी सुब्बाराव और सी रंगराजन के विचार हैं.

भारतीय बैंकों में एनपीए का स्तर सबसे ऊंचा है. पूर्व गवर्नरों ने कहा है कि जब तक सरकार बैंकों को बचाने के लिये आगे नहीं आती है बैंकों की मौजूदा स्थिति आर्थिक पुनरूत्थान के रास्ते में बड़ा अवरोध पैदा कर सकती है.

पूर्व गवर्नर राजन ने इस स्थिति के लिये कंपनियों के (कर्ज लेकर) अत्यधिक निवेश और(कर्ज देने में) बैंकों के अतिउत्साह तथा समय रहते कार्रवाई करने में विफलता को दोषी ठहराया.

किताब में रेड्डी ने लिखा है कि एनपीए केवल एक समस्या नहीं है बल्कि यह अन्य समस्यों का परिणाम है. इसी में सुब्बाराव ने कहा है कि वह एनपीए को एक बड़ी और वास्तविक समस्या के तौर पर देखते हैं जिस पर अंकुश लगाने की जरूरत है जबकि चक्रवर्ती रंगाराजन ने वास्तविक क्षेत्र की समस्याओं के लटकते जाने को इस स्थिति के लिये जिम्मेदार ठहराया. इसके साथ ही उन्होंने आंशिक तौर पर नीतियों को भी इसकी वजह बताया और कहा कि नोटबंदी ने इस संकट को और बढ़ाया.

वरिष्ठ पत्रकार तमल बंद्योपाध्याय की इस पुस्तक "पेंडामोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिंग ट्रेजडी" में सुब्बाराव कहते हैं, "हां, फंसे कर्ज की समस्या बड़ी और वास्तविक है."

लेखक ने रिजर्व बैंक के इन चारों पूर्व गवर्नरों से बातचीत कर यह पुस्तक तैयार की है. सुब्बाराव सितंबर 2008 से लेकर सितंबर 2013 तक पांच साल रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हैं.

चारों पूर्व गवर्नरों ने कहा है कि एक और सबसे बड़ी और वास्तविक समस्या सरकार की वित्तीय तंगी की है. उनका इशारा महामारी के कारण सरकार की कमजोर वित्तीय स्थिति की तरफ था.

उन्होंने कहा है कि पिछले कुछ साल के दौरान सरकार से 2.6 लाख करोड़ रुपये की नई पूंजी पाने के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति खराब है. इसके बावजूद इस साल सरकार बैंकों में और पूंजी डालने के लिये मात्र 20,000 करोड़ रुपये ही अलग रख पाई है. जबकि कई विश्लेषकों ने इसके लिये 13 अरब डालर यानी करीब एक लाख करोड़ रुपये की जरूरत बताई है.

ये भी पढ़ें: अमेरिकी चुनाव: जानिए ट्रंप या बिडेन की जीत पर कैसे प्रतिक्रिया दे सकता है शेयर बाजार?

रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की समाप्ति में मार्च तक बैंकों का एनपीए 12.5 प्रतिशत से ऊपर निकल जाने का अनुमान है. यह दो दशक में सबसे अधिक होगा. कोरोना वायरस महामारी के कारण वित्तीय क्षेत्र पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है.

वर्ष 2003 से 2008 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे वाई.वी. रेड्डी ने कहा, इस तरह से वित्तीय समस्या पहले बैंकिंग क्षेत्र में पहुंचेगी और उसके बाद समूचे वित्तीय क्षेत्र में इसका असर होगा जो कि वास्तविक अर्थव्यवस्था पर भी असर डालेगा.

उन्होंने कहा, "संक्षेप में यदि कहा जाये की एनपीए केवल एक समस्या ही नहीं है बल्कि यह अन्य समस्याओं का परिणाम है."

इसके लिये उन्होंने नवंबर 2016 में की गई अनियोजित और विवादित नोटबंदी के फैसले की तरफ इशारा किया जिसमें आर्थिक तंत्र में प्रसारित 76 प्रतिशत से अधिक मुद्रा को एक झटके में वापस ले लिया गया.

ये चारों पूर्व गवर्नर बैंकों के फंसे कर्ज के बढ़ने के पीछे के कारणों और इसकी पनरावृति को रोकने के लिये क्या होना चाहिये इसको लेकर एकमत नहीं थे लेकिन सुदृढीकरण, संचालन और सरकार की बैंकों में मालिकाना स्थिति को लेकर सभी के विचार एक जैसे है. सभी इस बात पर एकमत थे कि बैंकिंग क्षेत्र की कमजोरी को ठीक करने के लिये उन्हें मजबूत बनाना पक्का इलाज नहीं है.

सबसे बड़ा मुद्दा संचालन का है और सरकार को इनमें अपनी हिस्सेदारी को कम करना चाहिये. पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सितंबर 2013 से तीन साल तक रिजर्व बैंक की कमान संभाली थी. उन्होंने एनपीए के खिलाफ कड़े कदम उठाये.

उन्होंने कंपनियों द्वारा इस दौरान अत्यधिक निवेश किये जाने और बैंकों के अतिउत्साह को तथाा समय पर कार्रवाई न किए जाने को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया. इस दौरान अर्थव्यवस्था में सुस्ती रहने से भी एनपीए तेजी से बढ़ा था.

(पीटीआई-भाषा)

Last Updated : Nov 3, 2020, 1:20 PM IST
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