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सरकार को संवारनी होगी मछलीपालन कर रहे मछुआरों की जिंदगी - मछली

एक्वाकल्चर एकमात्र उद्योग है जो कृषि और उससे संबंधित उद्योगों की तुलना में प्रति हेक्टेयर 25 लोगों को रोजगार देता है. हालांकि यह उद्योग फल-फूल रहा है, पर इसमें पारिश्रमिक की कमी और अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज की सुविधा जैसी कई चुनौतियां हैं. पढ़ें पूरी रिपोर्ट.

सरकार को संवारनी होगी मछलीपालन कर रहे मछुआरों की जिंदगी
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Published : Oct 31, 2019, 6:46 PM IST

हैदराबाद: भारतीय एक्वाकल्चर पिछले कुछ दशकों से लगातार प्रगति कर रहा है. भारत में मीठे पानी की मछली की खेती राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण से पहले ही शुरू हो चुकी थी. किसानों, उद्योगपतियों और सरकार के प्रोत्साहन के साथ वैज्ञानिकों के योगदान ने इसको आगे बढ़ाया. आंध्र प्रदेश का कोल्रु नदी बेसिन देश का सबसे बड़ा मीठे पानी का मछलीपालन का केंद्र है.

एक्वाकल्चर एकमात्र उद्योग है जो कृषि और उससे संबंधित उद्योगों की तुलना में प्रति हेक्टेयर 25 लोगों को रोजगार देता है. हालांकि यह उद्योग फल-फूल रहा है, पर इसमें पारिश्रमिक की कमी और अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज की सुविधा जैसी कई चुनौतियां हैं. इन सभी कमियों के कारण कुल उत्पादन में 10 प्रतिशत की हानि हो रही है.

ये भी पढ़ें- भारत, चीन की अर्थव्यवस्थाएं चौथी तिमाही में होंगी तेज: रिपोर्ट

मछली और झींगा की खेती में गुणवत्ता वाले बीज का अत्यधिक महत्व है. हालांकि मछली बीज विकास और प्रमाणन के लिए कई दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, लेकिन कार्यान्वयन में कमी है. मत्स्य विभाग के मार्गदर्शन में तेनाली, गुंटूर जिले में एक मछली उत्पादन केंद्र स्थापित किया गया था. कहा जाता है कि इस केंद्र से हुए मुनाफे के साथ पूरे विभाग के वेतन का भुगतान किया जाता था. इस केंद्र का व्यवसाय पश्चिम बंगाल के निजी उद्यमियों के प्रवेश से भी अधिक है.

तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये कमाती है कर्नाटक सरकार
तुंगभद्रा के बेसिन में मछली पालन केंद्र में कर्नाटक सरकार और मत्स्य विभाग द्वारा संयुक्त रूप से गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन किया जाता है. जहां कर्नाटक केंद्र में एक लाख अंडे की कीमत 1,000 रुपये है, वहीं आंध्र प्रदेश केंद्र में इसकी कीमत 200 रुपये है. कर्नाटक सरकार को अकेले तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये की आय होती है.

पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में 40-80 प्रतिशत होती मछली का उत्पादन
वर्तमान में मछली का उत्पादन दो स्थानों पर सबसे अधिक है. एक पश्चिम बंगाल के गंगा बेसिन में है और दूसरा आंध्र प्रदेश के कोल्लेरू के कृष्णा-गोदावरी बेसिन में है. इन दोनों स्थानों से 40-80 प्रतिशत उत्पादन दूसरे राज्यों में ले जाया जा रहा है. यद्यपि आपूर्ति श्रृंखला बहुत बड़ी है, फिर भी कई मुद्दे हैं. क्षेत्रीय मछली की किस्में जैसे कटला, रोहू और कार्प साल में केवल दो बार प्रजनन करती हैं. गुणवत्ता वाले बीज प्राप्त करने के लिए ब्रिड स्टॉक को अनुकूल परिस्थितियों में पाला जाना चाहिए.

नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड ने 2007 में 100 मिमी की लंबाई की कीमत एक रुपया रखा था जिसे बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर के सुझाव के बाद 2014 में इसे बढ़ाकर 2.50 रुपये कर दिया. यद्यपि श्रम मजदूरी, मछलियों को खिलाने और पट्टे की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं, फिर भी आंध्र प्रदेश के मत्स्य विभाग में उपज को 1999 के निर्धारण मूल्य के अनुसार बेचा जा रहा है.

मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर
एक्वा फार्मिंग में जिन मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, उससे निपटने की तत्काल आवश्यकता है. गोदावरी के पानी को एक साथ मछली फार्म और नर्सरी के तालाबों में छोड़ा जाना चाहिए. पश्चिम बंगाल इस पद्धति का उपयोग करके उच्च मछली उत्पादन प्राप्त कर रहा है. हालांकि मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर है, लेकिन बीज की गुणवत्ता के कारण पश्चिम बंगाल को सबसे अधिक पसंद किया जाता है. चूंकि मछली के अंडों का भंडारण नहीं किया जा सकता है, जिसकी वजह से किसानों को मजबूर होकर कम कीमतों पर इनको बेचना पड़ता हैं. सरकार को पहल करनी होगी और मूल्य निर्धारण के लिए एक ट्रस्ट स्थापित करना होगा. ब्रूड स्टॉक सोसाइटी को पंचायत और सिंचाई विभागों के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि मत्स्य विभाग के अधिकारी किसानों को गुणवत्तापूर्ण बीज की आपूर्ति कर सकें.

मछुआरों को विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग देने की जरुरत
मत्स्य विभाग को मछली के बीज की खरीद के लिए प्रमाणन और रसीद संलग्न करना होगा. अगर मछली की उपलब्धता की जानकारी इंटरनेट पर अपडेट की जाती है तो एक्वा किसानों को फायदा होगा. तकनीकी नवाचारों की कमी, विशेष रूप से मछली के खानों और पानी की गुणवत्ता को प्रमाणित करने के लिए विशेषज्ञों की कमी एक और चुनौती है. मछली पालन करने वालों के लिए विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग दिया जाना चाहिए. यदि मत्स्य विज्ञान या संबंधित पाठ्यक्रमों के छात्रों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है, तो कई चुनौतियों को दूर किया जा सकता है.

तेलंगाना राज्य में नीली क्रांति
आंध्र प्रदेश में कुल एक्वा उत्पादन का 90 प्रतिशत अन्य राज्यों को आपूर्ति की जा रही है. नवगठित तेलंगाना राज्य ने नीली क्रांति में अपनी पहचान बनाई है. लेकिन तेलुगु राज्यों में प्रति व्यक्ति मछली की खपत अपेक्षाकृत कम है, इसका मुख्य कारण लोगों के दिमाग में मछली बाजार की अस्वच्छ छवि है. यदि प्रमुख शहरों और कस्बों में स्वच्छ मछली बाजार स्थापित किए जाते हैं, तो मछली के मांस की खपत को बढ़ाया जा सकता है. स्थानीय बाजार उपभोक्ता जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं.

बड़े शहरों में लोग आमतौर पर बाहर खाना पसंद करते हैं या ऑनलाइन खाना ऑर्डर करते हैं. स्थानीय मछुआरों को इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और ऑनलाइन मछली बना कर बेचना चाहिए. इसके अलावे समुद्री भोजन उत्सव आयोजित कर भी खपत बढ़ाई जा सकती है.

मछली व्यवसाय बढ़ने से बढ़ेगा रोजगार और आय
भारतीय एक्वा किसान कतला, रोहू और व्हाइट कार्प जैसी क्षेत्रीय किस्मों के साथ-साथ पंगेसियस और तिलपिया जैसी विदेशी किस्मों को पाल रहे हैं. मुरल और पफरफिश की खेती भी लाभदायक है. सरकार को झींगा और मछली की खेती के लिए प्रोत्साहन और सब्सिडी देनी चाहिए. मछली के बीज के साथ हैचरी-रियर झींगा उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि एक्वा किसानों को वित्तीय सुरक्षा मिल सके. मीठे पानी के जलाशय हाल की बारिश की बदौलत समृद्ध हो रहे हैं. इन जल संसाधनों को समान रूप से मछलीपालन करने के लिए आपूर्ति की जानी चाहिए ताकि तेलुगु राज्यों में मछली व्यवसाय बढ़े जिससे रोजगार और आय बढ़े.

हैदराबाद: भारतीय एक्वाकल्चर पिछले कुछ दशकों से लगातार प्रगति कर रहा है. भारत में मीठे पानी की मछली की खेती राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण से पहले ही शुरू हो चुकी थी. किसानों, उद्योगपतियों और सरकार के प्रोत्साहन के साथ वैज्ञानिकों के योगदान ने इसको आगे बढ़ाया. आंध्र प्रदेश का कोल्रु नदी बेसिन देश का सबसे बड़ा मीठे पानी का मछलीपालन का केंद्र है.

एक्वाकल्चर एकमात्र उद्योग है जो कृषि और उससे संबंधित उद्योगों की तुलना में प्रति हेक्टेयर 25 लोगों को रोजगार देता है. हालांकि यह उद्योग फल-फूल रहा है, पर इसमें पारिश्रमिक की कमी और अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज की सुविधा जैसी कई चुनौतियां हैं. इन सभी कमियों के कारण कुल उत्पादन में 10 प्रतिशत की हानि हो रही है.

ये भी पढ़ें- भारत, चीन की अर्थव्यवस्थाएं चौथी तिमाही में होंगी तेज: रिपोर्ट

मछली और झींगा की खेती में गुणवत्ता वाले बीज का अत्यधिक महत्व है. हालांकि मछली बीज विकास और प्रमाणन के लिए कई दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, लेकिन कार्यान्वयन में कमी है. मत्स्य विभाग के मार्गदर्शन में तेनाली, गुंटूर जिले में एक मछली उत्पादन केंद्र स्थापित किया गया था. कहा जाता है कि इस केंद्र से हुए मुनाफे के साथ पूरे विभाग के वेतन का भुगतान किया जाता था. इस केंद्र का व्यवसाय पश्चिम बंगाल के निजी उद्यमियों के प्रवेश से भी अधिक है.

तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये कमाती है कर्नाटक सरकार
तुंगभद्रा के बेसिन में मछली पालन केंद्र में कर्नाटक सरकार और मत्स्य विभाग द्वारा संयुक्त रूप से गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन किया जाता है. जहां कर्नाटक केंद्र में एक लाख अंडे की कीमत 1,000 रुपये है, वहीं आंध्र प्रदेश केंद्र में इसकी कीमत 200 रुपये है. कर्नाटक सरकार को अकेले तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये की आय होती है.

पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में 40-80 प्रतिशत होती मछली का उत्पादन
वर्तमान में मछली का उत्पादन दो स्थानों पर सबसे अधिक है. एक पश्चिम बंगाल के गंगा बेसिन में है और दूसरा आंध्र प्रदेश के कोल्लेरू के कृष्णा-गोदावरी बेसिन में है. इन दोनों स्थानों से 40-80 प्रतिशत उत्पादन दूसरे राज्यों में ले जाया जा रहा है. यद्यपि आपूर्ति श्रृंखला बहुत बड़ी है, फिर भी कई मुद्दे हैं. क्षेत्रीय मछली की किस्में जैसे कटला, रोहू और कार्प साल में केवल दो बार प्रजनन करती हैं. गुणवत्ता वाले बीज प्राप्त करने के लिए ब्रिड स्टॉक को अनुकूल परिस्थितियों में पाला जाना चाहिए.

नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड ने 2007 में 100 मिमी की लंबाई की कीमत एक रुपया रखा था जिसे बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर के सुझाव के बाद 2014 में इसे बढ़ाकर 2.50 रुपये कर दिया. यद्यपि श्रम मजदूरी, मछलियों को खिलाने और पट्टे की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं, फिर भी आंध्र प्रदेश के मत्स्य विभाग में उपज को 1999 के निर्धारण मूल्य के अनुसार बेचा जा रहा है.

मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर
एक्वा फार्मिंग में जिन मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, उससे निपटने की तत्काल आवश्यकता है. गोदावरी के पानी को एक साथ मछली फार्म और नर्सरी के तालाबों में छोड़ा जाना चाहिए. पश्चिम बंगाल इस पद्धति का उपयोग करके उच्च मछली उत्पादन प्राप्त कर रहा है. हालांकि मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर है, लेकिन बीज की गुणवत्ता के कारण पश्चिम बंगाल को सबसे अधिक पसंद किया जाता है. चूंकि मछली के अंडों का भंडारण नहीं किया जा सकता है, जिसकी वजह से किसानों को मजबूर होकर कम कीमतों पर इनको बेचना पड़ता हैं. सरकार को पहल करनी होगी और मूल्य निर्धारण के लिए एक ट्रस्ट स्थापित करना होगा. ब्रूड स्टॉक सोसाइटी को पंचायत और सिंचाई विभागों के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि मत्स्य विभाग के अधिकारी किसानों को गुणवत्तापूर्ण बीज की आपूर्ति कर सकें.

मछुआरों को विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग देने की जरुरत
मत्स्य विभाग को मछली के बीज की खरीद के लिए प्रमाणन और रसीद संलग्न करना होगा. अगर मछली की उपलब्धता की जानकारी इंटरनेट पर अपडेट की जाती है तो एक्वा किसानों को फायदा होगा. तकनीकी नवाचारों की कमी, विशेष रूप से मछली के खानों और पानी की गुणवत्ता को प्रमाणित करने के लिए विशेषज्ञों की कमी एक और चुनौती है. मछली पालन करने वालों के लिए विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग दिया जाना चाहिए. यदि मत्स्य विज्ञान या संबंधित पाठ्यक्रमों के छात्रों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है, तो कई चुनौतियों को दूर किया जा सकता है.

तेलंगाना राज्य में नीली क्रांति
आंध्र प्रदेश में कुल एक्वा उत्पादन का 90 प्रतिशत अन्य राज्यों को आपूर्ति की जा रही है. नवगठित तेलंगाना राज्य ने नीली क्रांति में अपनी पहचान बनाई है. लेकिन तेलुगु राज्यों में प्रति व्यक्ति मछली की खपत अपेक्षाकृत कम है, इसका मुख्य कारण लोगों के दिमाग में मछली बाजार की अस्वच्छ छवि है. यदि प्रमुख शहरों और कस्बों में स्वच्छ मछली बाजार स्थापित किए जाते हैं, तो मछली के मांस की खपत को बढ़ाया जा सकता है. स्थानीय बाजार उपभोक्ता जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं.

बड़े शहरों में लोग आमतौर पर बाहर खाना पसंद करते हैं या ऑनलाइन खाना ऑर्डर करते हैं. स्थानीय मछुआरों को इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और ऑनलाइन मछली बना कर बेचना चाहिए. इसके अलावे समुद्री भोजन उत्सव आयोजित कर भी खपत बढ़ाई जा सकती है.

मछली व्यवसाय बढ़ने से बढ़ेगा रोजगार और आय
भारतीय एक्वा किसान कतला, रोहू और व्हाइट कार्प जैसी क्षेत्रीय किस्मों के साथ-साथ पंगेसियस और तिलपिया जैसी विदेशी किस्मों को पाल रहे हैं. मुरल और पफरफिश की खेती भी लाभदायक है. सरकार को झींगा और मछली की खेती के लिए प्रोत्साहन और सब्सिडी देनी चाहिए. मछली के बीज के साथ हैचरी-रियर झींगा उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि एक्वा किसानों को वित्तीय सुरक्षा मिल सके. मीठे पानी के जलाशय हाल की बारिश की बदौलत समृद्ध हो रहे हैं. इन जल संसाधनों को समान रूप से मछलीपालन करने के लिए आपूर्ति की जानी चाहिए ताकि तेलुगु राज्यों में मछली व्यवसाय बढ़े जिससे रोजगार और आय बढ़े.

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सरकार को संवारनी होगी मछलीपालन कर रहे मछुआरों की जिंदगी

हैदराबाद: भारतीय एक्वाकल्चर पिछले कुछ दशकों से लगातार प्रगति कर रहा है. भारत में मीठे पानी की मछली की खेती राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण से पहले ही शुरू हो गई थी. किसानों, उद्योगपतियों और सरकार के प्रोत्साहन के साथ और एक्वा वैज्ञानिकों के योगदान ने इसको आगे बढ़ाया. आंध्र प्रदेश का कोल्रु नदी बेसिन देश का सबसे बड़ा ताजे पानी मछलीपालन का केंद्र है. 

एक्वाकल्चर एकमात्र उद्योग है जो कृषि और उससे संबंधित उद्योगों की तुलना में प्रति हेक्टेयर 25 लोगों को रोजगार देता है. हालांकि यह उद्योग फल-फूल रहा है, पर इसमें पारिश्रमिक की कमी और अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज की सुविधा जैसी कई चुनौतियां हैं. इन सभी कमियों के कारण कुल उत्पादन में 10 प्रतिशत की हानि हो रही है.

मछली और झींगा की खेती में गुणवत्ता वाले बीज का अत्यधिक महत्व है. हालांकि मछली बीज विकास और प्रमाणन के लिए कई दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, लेकिन कार्यान्वयन में कमी है. मत्स्य विभाग के मार्गदर्शन में तेनाली, गुंटूर जिले में एक मछली को भूनने का उत्पादन केंद्र स्थापित किया गया था. कहा जाता है कि इस केंद्र से हुए मुनाफे के साथ पूरे विभाग के वेतन का भुगतान किया जाता था. इस केंद्र का व्यवसाय पश्चिम बंगाल के निजी उद्यमियों के प्रवेश से भी अधिक है. 



तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये कमाती है कर्नाटक सरकार 

तुंगभद्रा के बेसिन में मछली पालन केंद्र में कर्नाटक सरकार और मत्स्य विभाग द्वारा संयुक्त रूप से गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन किया जाता है. जहां कर्नाटक केंद्र में एक लाख अंडे की कीमत 1,000 रुपये है, वहीं आंध्र प्रदेश केंद्र में इसकी कीमत 200 रुपये है. कर्नाटक सरकार को अकेले तुंगभद्रा केंद्र से 40 लाख रुपये की आय होती है. 



पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में 40-80 प्रतिशत होती मछली का उत्पादन 

वर्तमान में मछली का उत्पादन दो स्थानों पर सबसे अधिक है. एक पश्चिम बंगाल के गंगा बेसिन में है और दूसरा आंध्र प्रदेश के कोल्लेरू के कृष्णा-गोदावरी बेसिन में है. इन दोनों स्थानों से 40-80 प्रतिशत उत्पादन दूसरे राज्यों में ले जाया जा रहा है. यद्यपि आपूर्ति श्रृंखला बहुत बड़ी है, फिर भी कई मुद्दे हैं. क्षेत्रीय मछली की किस्में जैसे कटला, रोहू और कार्प साल में केवल दो बार प्रजनन करती हैं. गुणवत्ता वाले बीज प्राप्त करने के लिए ब्रिड स्टॉक को अनुकूल परिस्थितियों में पाला जाना चाहिए. 

नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड ने 2007 में 100 मिमी की लंबाई की कीमत एक रुपया रखा था जिसे बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर के सुझाव के बाद 2014 में इसे बढ़ाकर 2.50 रुपये कर दिया. यद्यपि श्रम मजदूरी, मछलियों को खिलाने और पट्टे की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं, फिर भी आंध्र प्रदेश के मत्स्य विभाग में उपज को 1999 के निर्धारण मूल्य के अनुसार बेचा जा रहा है.



मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर 

एक्वा फार्मिंग में जिन मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, उससे निपटने की तत्काल आवश्यकता है. गोदावरी के पानी को एक साथ मछली फार्म और नर्सरी के तालाबों में छोड़ा जाना चाहिए. पश्चिम बंगाल इस पद्धति का उपयोग करके उच्च मछली उत्पादन प्राप्त कर रहा है. हालांकि मछली उत्पादन में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर है, लेकिन बीज की गुणवत्ता के कारण पश्चिम बंगाल को सबसे अधिक पसंद किया जाता है. चूंकि मछली के अंडों का भंडारण नहीं किया जा सकता है, जिसकी वजह से किसानों को मजबूर होकर कम कीमतों पर इनको बेचना पड़ता हैं. सरकार को पहल करनी होगी और मूल्य निर्धारण के लिए एक ट्रस्ट स्थापित करना होगा. ब्रूड स्टॉक सोसाइटी को पंचायत और सिंचाई विभागों के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि मत्स्य विभाग के अधिकारी किसानों को गुणवत्तापूर्ण बीज की आपूर्ति कर सकें. 



मछुआरों को विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग देने की जरुरत

मत्स्य विभाग को मछली के बीज की खरीद के लिए प्रमाणन और रसीद संलग्न करना होगा. अगर मछली की उपलब्धता की जानकारी इंटरनेट पर अपडेट की जाती है तो एक्वा किसानों को फायदा होगा. तकनीकी नवाचारों की कमी, विशेष रूप से मछली के खानों और पानी की गुणवत्ता को प्रमाणित करने के लिए विशेषज्ञों की कमी एक और चुनौती है. मछली पालन करने वालों के लिए विशेषज्ञों द्वारा ट्रेंनिंग दिया जाना चाहिए. यदि मत्स्य विज्ञान या संबंधित पाठ्यक्रमों के छात्रों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है, तो कई चुनौतियों को दूर किया जा सकता है.



तेलंगाना राज्य में नीली क्रांति 

आंध्र प्रदेश में कुल एक्वा उत्पादन का 90 प्रतिशत अन्य राज्यों को आपूर्ति की जा रही है. नवगठित तेलंगाना राज्य ने नीली क्रांति में अपनी पहचान बनाई है. लेकिन तेलुगु राज्यों में प्रति व्यक्ति मछली की खपत अपेक्षाकृत कम है, इसका मुख्य कारण लोगों के दिमाग में मछली बाजार की अस्वच्छ छवि है. यदि प्रमुख शहरों और कस्बों में स्वच्छ मछली बाजार स्थापित किए जाते हैं, तो मछली के मांस की खपत को बढ़ाया जा सकता है. स्थानीय बाजार उपभोक्ता जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं. 

बड़े शहरों में लोग आमतौर पर बाहर खाना पसंद करते हैं या ऑनलाइन खाना ऑर्डर करते हैं. स्थानीय मछुआरों को इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और ऑनलाइन मछली बना कर बेचना चाहिए. इसके अलावे समुद्री भोजन उत्सव आयोजित कर भी खपत बढ़ाई जा सकती है. 



मछली व्यवसाय बढ़ने से बढ़ेगा रोजगार और आय 

भारतीय एक्वा किसान कतला, रोहू और व्हाइट कार्प जैसी क्षेत्रीय किस्मों के साथ-साथ पंगेसियस और तिलपिया जैसी विदेशी किस्मों को पाल रहे हैं. मुरल और पफरफिश की खेती भी लाभदायक है. सरकार को झींगा और मछली की खेती के लिए प्रोत्साहन और सब्सिडी देनी चाहिए. मछली के बीज के साथ हैचरी-रियर झींगा उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि एक्वा किसानों को वित्तीय सुरक्षा मिल सके. मीठे पानी के जलाशय हाल की बारिश की बदौलत समृद्ध हो रहे हैं. इन जल संसाधनों को समान रूप से मछलीपालन करने के लिए आपूर्ति की जानी चाहिए ताकि तेलुगु राज्यों में मछली व्यवसाय बढ़े जिससे रोजगार और आय बढ़े.

 


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