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पश्चिम बंगाल में दल-बदल से भाजपा का नेटवर्क कितना होगा प्रभावित, जानें इसके मायने

2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर बंगाल में बीजेपी एक मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी. उस समय उत्तर बंगाल के अधिकांश लोकसभा क्षेत्रों में भगवा खेमा ड्राइविंग सीट पर था. यहां तक ​​​​कि 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में उत्तर बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं बेहतर था क्योंकि उन्होंने उत्तर बंगाल के 54 विधानसभा क्षेत्रों में से 29 में जीत हासिल की.

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Published : Sep 6, 2021, 7:21 PM IST

कोलकाता : 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में उत्तर बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं बेहतर किया और 54 में से 29 सीटें जीतीं. हालांकि 2021 विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद भाजपा की संगठनात्मक ताकत ने उत्तर बंगाल में अपनी पकड़ खोनी शुरू कर दी.

उत्तर बंगाल के पहाड़ी और मैदानी इलाकों सहित पूरे राज्य में भगवा खेमे में तृणमूल कांग्रेस से पीछे हटने की लहर का अहसास करना शुरू कर दिया. हाल ही में उत्तर बंगाल के पांच निर्वाचित भाजपा विधायक वहां एक पार्टी सम्मेलन में अनुपस्थित थे.

उनकी अनुपस्थिति ने पहले ही उनके सत्तारूढ़ दल के खेमे में शामिल होने की संभावनाओं के बारे में अफवाहें फैला दीं. उत्तर दिनाजपुर जिले के कालीगंज विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के निर्वाचित विधायक सौमेन रॉय तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए.

तीन दिन पहले उत्तर बंगाल में पार्टी के उक्त सम्मेलन में उपस्थित होने के बावजूद उन्होंने सत्ताधारी दल में शामिल होने का फैसला किया. अब सवाल यह उठ रहा है कि उत्तर बंगाल में भगवा खेमे के कितने विधायक आखिरकार तृणमूल कांग्रेस में शामिल होंगे.

यह सवाल तृणमूल कांग्रेस के पूर्व विधायक और पार्टी की कूचबिहार जिला कमेटी के अध्यक्ष उदयन गुहा ने उठाया है. आधिकारिक तौर पर बीजेपी 2019 में उत्तर बंगाल में एक दुर्जेय राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी.

हालांकि यह उत्तर बंगाल में बीजेपी की मूल ताकत का प्रतिबिंब नहीं था. बीजेपी ने चुनावों से पहले बहुत सारे सपने बेचे और उत्तर बंगाल के लोग इससे प्रभावित हुए लेकिन अब उनका मुखौटा उतरने लगा है.

गुहा के मुताबिक 2019 में बीजेपी ने धर्म का कार्ड खेला और बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों की बात कहकर प्रभावित किया. इस प्रकार उन्हें तब जनता का समर्थन प्राप्त हुआ. लेकिन बाद में लोगों को होश आया.

अब वे फिर से अलग राज्य का मुद्दा उठाकर उत्तर बंगाल के लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इससे आम जनता नाराज हो गई और भाजपा से दूर होने लगी. हाल ही में खेमे की अदला-बदली का दौर भाजपा के प्रति जनता के गुस्से को दर्शाता है. जब नेताओं ने जनता की नब्ज के अनुसार अपने कदम तय किए.

हालांकि एक बार कूहबिहार जिले के तृणमूल नेता और वर्तमान भाजपा विधायक मिहिर गोस्वामी गुहा से सहमत नहीं हैं. तृणमूल कांग्रेस उत्तर बंगाल में हमारे भविष्य के बारे में इतनी चिंतित क्यों है? क्षेत्र के लोगों ने अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को वोट दिया. इसलिए लोग निश्चित रूप से स्वार्थ की सेवा के लिए तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं लेकिन इससे भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

पार्टी की अदला-बदली जरूरी नहीं कि किसी राजनीतिक दल के संगठनात्मक नेटवर्क में वृद्धि का फैसला करे. हम उत्तर बंगाल के लोगों के साथ हैं और इसलिए हम उन्हें स्वीकार्य हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षक इस अदला-बदली की प्रवृत्ति को महज संयोग बताने से इनकार करते हैं.

प्रतिष्ठित राजनीतिक विश्लेषक सुभाषिश मोइत्रो के अनुसार विधानसभा चुनाव से पहले कई नेता अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो गए. हालांकि कई लोगों के सपने साकार नहीं हुए.

भाजपा असम जैसे राज्यों में अन्य दलों के नेताओं को आकर्षित कर सकती है लेकिन पश्चिम बंगाल के लिए ऐसा नहीं था. बहुत से लोग तृणमूल में लौटने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं.

उनके अनुसार ऐसे नेता अधीर हो गए हैं क्योंकि उन्हें यकीन नहीं है कि भाजपा कभी पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने में सफल होगी. उन्होंने कहा कि ऐसे नेता दक्षिण बंगाल और उत्तर बंगाल दोनों में हैं.

राजनीतिक वैज्ञानिक और तत्कालीन प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ अमल कुमार मुखोपाध्याय मानते हैं कि बुनियादी राजनीतिक विचारधारा की कमी इस अदला-बदली के पीछे मुख्य कारण है. उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ दल के साथ जुड़ाव हमेशा आर्थिक रूप से फायदेमंद होता है.

इसलिए विपक्षी दलों के नेता सत्ताधारी पार्टी के दायरे में आने की कोशिश कर रहे हैं. त्रासदी यह है कि इन नेताओं के लिए स्वार्थ की सेवा करना सार्वजनिक सेवा से ज्यादा महत्वपूर्ण है.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार पश्चिम बंगाल में हिंदी पट्टी की राजनीतिक संस्कृति धीरे-धीरे स्थापित हो रही है. खेमे की अदला-बदली की यह संस्कृति मध्य प्रदेश में शुरू हुई और तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में इस संस्कृति की शुरुआत की.

हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने 2011 से पहले खेमे की अदला-बदली का सहारा नहीं लिया. जिस साल पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद 34 साल के वाम मोर्चा के शासन को समाप्त किया गया था. उन्होंने यह ट्रेंड 2011 में शुरू किया था.

वहीं बीजेपी ने सत्ता हथियाने की उम्मीद में 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में इस खेमे की अदला-बदली का चलन शुरू कर दिया था. वे अन्य राज्यों में इस खेमे की अदला-बदली से लाभ प्राप्त करने में सफल रहे लेकिन पश्चिम बंगाल में नहीं.

यह भी पढ़ें-संबित पात्रा ने राहुल गांधी को बताया 'राजनीतिक कोयल', लगाए कई आरोप

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि चूंकि भाजपा का नेटवर्क इस खेमे की अदला-बदली पर बहुत अधिक निर्भर था इसलिए राज्य में इसकी वास्तविक संगठनात्मक ताकत तक पहुंचना मुश्किल है.

कोलकाता : 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में उत्तर बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं बेहतर किया और 54 में से 29 सीटें जीतीं. हालांकि 2021 विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद भाजपा की संगठनात्मक ताकत ने उत्तर बंगाल में अपनी पकड़ खोनी शुरू कर दी.

उत्तर बंगाल के पहाड़ी और मैदानी इलाकों सहित पूरे राज्य में भगवा खेमे में तृणमूल कांग्रेस से पीछे हटने की लहर का अहसास करना शुरू कर दिया. हाल ही में उत्तर बंगाल के पांच निर्वाचित भाजपा विधायक वहां एक पार्टी सम्मेलन में अनुपस्थित थे.

उनकी अनुपस्थिति ने पहले ही उनके सत्तारूढ़ दल के खेमे में शामिल होने की संभावनाओं के बारे में अफवाहें फैला दीं. उत्तर दिनाजपुर जिले के कालीगंज विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के निर्वाचित विधायक सौमेन रॉय तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए.

तीन दिन पहले उत्तर बंगाल में पार्टी के उक्त सम्मेलन में उपस्थित होने के बावजूद उन्होंने सत्ताधारी दल में शामिल होने का फैसला किया. अब सवाल यह उठ रहा है कि उत्तर बंगाल में भगवा खेमे के कितने विधायक आखिरकार तृणमूल कांग्रेस में शामिल होंगे.

यह सवाल तृणमूल कांग्रेस के पूर्व विधायक और पार्टी की कूचबिहार जिला कमेटी के अध्यक्ष उदयन गुहा ने उठाया है. आधिकारिक तौर पर बीजेपी 2019 में उत्तर बंगाल में एक दुर्जेय राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी.

हालांकि यह उत्तर बंगाल में बीजेपी की मूल ताकत का प्रतिबिंब नहीं था. बीजेपी ने चुनावों से पहले बहुत सारे सपने बेचे और उत्तर बंगाल के लोग इससे प्रभावित हुए लेकिन अब उनका मुखौटा उतरने लगा है.

गुहा के मुताबिक 2019 में बीजेपी ने धर्म का कार्ड खेला और बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों की बात कहकर प्रभावित किया. इस प्रकार उन्हें तब जनता का समर्थन प्राप्त हुआ. लेकिन बाद में लोगों को होश आया.

अब वे फिर से अलग राज्य का मुद्दा उठाकर उत्तर बंगाल के लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इससे आम जनता नाराज हो गई और भाजपा से दूर होने लगी. हाल ही में खेमे की अदला-बदली का दौर भाजपा के प्रति जनता के गुस्से को दर्शाता है. जब नेताओं ने जनता की नब्ज के अनुसार अपने कदम तय किए.

हालांकि एक बार कूहबिहार जिले के तृणमूल नेता और वर्तमान भाजपा विधायक मिहिर गोस्वामी गुहा से सहमत नहीं हैं. तृणमूल कांग्रेस उत्तर बंगाल में हमारे भविष्य के बारे में इतनी चिंतित क्यों है? क्षेत्र के लोगों ने अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को वोट दिया. इसलिए लोग निश्चित रूप से स्वार्थ की सेवा के लिए तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं लेकिन इससे भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

पार्टी की अदला-बदली जरूरी नहीं कि किसी राजनीतिक दल के संगठनात्मक नेटवर्क में वृद्धि का फैसला करे. हम उत्तर बंगाल के लोगों के साथ हैं और इसलिए हम उन्हें स्वीकार्य हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षक इस अदला-बदली की प्रवृत्ति को महज संयोग बताने से इनकार करते हैं.

प्रतिष्ठित राजनीतिक विश्लेषक सुभाषिश मोइत्रो के अनुसार विधानसभा चुनाव से पहले कई नेता अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो गए. हालांकि कई लोगों के सपने साकार नहीं हुए.

भाजपा असम जैसे राज्यों में अन्य दलों के नेताओं को आकर्षित कर सकती है लेकिन पश्चिम बंगाल के लिए ऐसा नहीं था. बहुत से लोग तृणमूल में लौटने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं.

उनके अनुसार ऐसे नेता अधीर हो गए हैं क्योंकि उन्हें यकीन नहीं है कि भाजपा कभी पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने में सफल होगी. उन्होंने कहा कि ऐसे नेता दक्षिण बंगाल और उत्तर बंगाल दोनों में हैं.

राजनीतिक वैज्ञानिक और तत्कालीन प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ अमल कुमार मुखोपाध्याय मानते हैं कि बुनियादी राजनीतिक विचारधारा की कमी इस अदला-बदली के पीछे मुख्य कारण है. उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ दल के साथ जुड़ाव हमेशा आर्थिक रूप से फायदेमंद होता है.

इसलिए विपक्षी दलों के नेता सत्ताधारी पार्टी के दायरे में आने की कोशिश कर रहे हैं. त्रासदी यह है कि इन नेताओं के लिए स्वार्थ की सेवा करना सार्वजनिक सेवा से ज्यादा महत्वपूर्ण है.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार पश्चिम बंगाल में हिंदी पट्टी की राजनीतिक संस्कृति धीरे-धीरे स्थापित हो रही है. खेमे की अदला-बदली की यह संस्कृति मध्य प्रदेश में शुरू हुई और तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में इस संस्कृति की शुरुआत की.

हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने 2011 से पहले खेमे की अदला-बदली का सहारा नहीं लिया. जिस साल पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद 34 साल के वाम मोर्चा के शासन को समाप्त किया गया था. उन्होंने यह ट्रेंड 2011 में शुरू किया था.

वहीं बीजेपी ने सत्ता हथियाने की उम्मीद में 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में इस खेमे की अदला-बदली का चलन शुरू कर दिया था. वे अन्य राज्यों में इस खेमे की अदला-बदली से लाभ प्राप्त करने में सफल रहे लेकिन पश्चिम बंगाल में नहीं.

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राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि चूंकि भाजपा का नेटवर्क इस खेमे की अदला-बदली पर बहुत अधिक निर्भर था इसलिए राज्य में इसकी वास्तविक संगठनात्मक ताकत तक पहुंचना मुश्किल है.

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