नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता जारी है. नेपालवासी यहां के हालात के लिए प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और राष्ट्रपति विद्या भंडारी को दोषी ठहराते हैं. उनका कहना है कि दोनों ने नेपाल के संविधान की धज्जियां उड़ा दी हैं. जब मन चाहे, वे नेपाल की निचली सभा (प्रतिनिधि सभा) को भंग कर देते हैं. हालांकि ओली और भंडारी दोनों ही इन आरोपों से इनकार करते रहे हैं.
नेपाल के संविधान निर्माता कहते रहे हैं कि प्रधानमंत्री के पास प्रतिनिधि सभा को भंग करने की अनुशंसा करने का अधिकार नहीं है. 1990 के संविधान में, जब राजशाही हुआ करती थी, यह प्रावधान था. लेकिन 2015 के संविधान में इस प्रावधान को हटा दिया गया. इसके बावजूद पिछले छह महीने में ओली ने पूरे विपक्ष को सन्न कर दिया है. ओली और भंडारी ने दो-दो बार संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी.
संविधान का उल्लंघन
हर बार जैसे ही संसद भंग होने की सिफारिश की जाती है, छह महीने में चुनाव कराना अनिवार्य हो जाता है. आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 76 पर बिना विचार किए ही इस पर सहमति जता दी. उन्होंने वही किया, जैसा ओली चाहते थे. सबसे पहली बार 20 दिसंबर 2020 को और फिर इस साल 22 मई को.
प्रधानमंत्री सचिवालय और राष्ट्रपति कार्यालय ने संविधान को दरकिनार करने की बात से इनकार किया है.
ओली ने भंडारी का राजनीतिक कद बढ़ाया
ओली और भंडारी दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनाइटेड मार्क्ससिस्ट लेनिनिस्ट पार्टी) से आते हैं. भंडारी को ओली का ही एक और चेहरा माना जाता है. जब से विद्या भंडारी के पति मदन भंडारी का निधन हुआ है, तब से ओली ने उनके राजनीतिक कद को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है. मदन भंडारी की सड़क दुर्घटना में 1993 में मृत्यु हो गई थी.
राजनीतिक आलोचकों का कहना है कि भंडारी पार्टी लाइन पर काम कर रहीं हैं. वह ओली के हर कदमों का समर्थन करती हैं. नए संविधान के तहत वह दूसरी राष्ट्रपति बनी हैं.
ओली के लोकप्रियता की वजहें- भारत विरोधी रूख
ओली के समर्थक दो वजहों से उनका समर्थन करते हैं. पहला - भारत विरोधी रूख. 2015 में नेपाल के संविधान के उद्घोषण के समय उन्होंने भारत के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया था. उस समय दिल्ली की ओर से तराई में रहने वाले मधेशियों की मांगों पर विचार करने का दबाव बनाया गया था.
अली ने झुकने से इनकार कर दिया. उसके बाद नेपाल-भारत सीमा पर महीनों तक आर्थिक नाकेबंदी जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी. नेपालवासियों को कई महीनों तक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. इस आर्थिक नाकेबंदी से कुछ दिन पहले ही नेपाल भूकंप से बुरी तरह प्रभावित हुआ था.
नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा जारी
दूसरा कारण - 20 मई 2020 को उन्होंने नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया. इसके ठीक पहले भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कैलाश मानसरोवर के लिए कालापानी-लिंपियाधुरा क्षेत्र से गुजरने वाले नए राजमार्ग का उद्घाटन किया था. भारत इस क्षेत्र को अपना मानता है. नेपाल भी इस हिस्से पर अपना दावा करता आया है. नेपाल का कहना है कि 1816 में ब्रिटिश भारत और नेपाल के बीच हुए सुगौली समझौते के अनुसार यह हमारा क्षेत्र है.
इस संधि के अनुसार दोनों देशों के बीच महाकाली नदी (सारदा) को सीमा के तौर पर उल्लिखित किया गया है. लेकिन आज तक दिल्ली और काठमांडू ने कोई सीमा निर्धारित ही नहीं की है. महाकाली नदी कुटी, यांगदी और लिपुलेख क्षेत्र से होकर गुजरती है.
ओली ने मधेशी नेताओं को मिलाया
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार 22 मई के बाद ओली के आत्मविश्वास की दूसरी भी वजहें हैं. मधेशी नेताओं का एक समूह (महंथ ठाकुर, जनता समाजवादी पार्टी के राजेंद्र महतो) ओली का समर्थन कर रहा है.
ओली-ठाकुर-महतो के बीच गठबंधन की तात्कालिक वजह है. ओली ने नए सिटिजनशिप ऑर्डिनेंस को पारित कर दिया है. राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए हैं. लंबे समय से इस कानून में बदलाव की मांग की जा रही थी. 2006 से ही इसकी मांग की जा रही थी. 2018 से नेपाल की संसद में यह लंबित था.
इस अध्यादेश के मुताबिक 20 सितंबर 2015 से पहले जिसके पास भी नेपाल की नागरिकता है, उनके बच्चे प्राकृतिक रूप से नेपाल के नागरिक होंगे. सिंगल मदर के बच्चे को भी नागरिकता मिलेगी.
इस अध्यादेश के जरिए ओली ने एक तीर से दो शिकार कर लिए. ठाकुर और महतो जैसे नेताओं को अपने पाले में कर लिया, साथ ही दक्षिण तराई के वासी जो लंबे समय से नाराज चल रहे थे, उनका गुस्सा भी शांत कर दिया.
पहले राष्ट्रपति से कितने बेहतर हैं वर्तमान राष्ट्रपति
विद्या भंडारी से पहले राम बरन यादव नेपाल के राष्ट्रपति थे. मई 2008 में नेपाल के गणतंत्र बनने के बाद वह पहले राष्ट्रपति बने थे. 1996-2006 तक नेपाल में लंबा राजनीतिक संघर्ष चला. राजशाही और माओवादियों के बीच.
यादव नेपाली कांग्रेस के नेता थे. इसके बावजूद नेपाल के राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने निष्पक्षता और संवेदनशीलता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया. उनके भूमिका की काफी प्रशंसा हुई.
उनके कार्यकाल (2008-2015) के दौरान नेपाल में जब भी संवैधानिक संकट उत्पन्न हुए, उन्होंने संविधान विशेषज्ञों और अन्य जानकारों से विस्तृत रूप से चर्चा की. उसके बाद ही वह कोई निर्णय लेते थे. उन्होंने तो कई बार अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के सुझावों को नकार दिया था. लेकिन भंडारी की भूमिका उनके ठीक उलट है. राम बरन यादव ने भंडारी की भूमिका की आलोचना की है.
सीपीएन का विभाजन
ओली अपने समर्थकों के बीच भले ही लोकप्रिय हों, लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर और बाहर नए विरोधियों को भी पैदा कर लिया. उनके नए राजनीतिक कदमों की वजह से उनकी पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की छवि को धक्का लगा है. पार्टी अब तीन भागों में बंट चुकी है. सीपीएन-यूएमएल (ओली के नेतृत्व में), सीपीएन-यूएमएल (माधव कुमार नेपाल और झालानाथ खनाल के नेतृत्व में) और सीपीएन-माओवादी सेंटर (प्रचंड के नेतृत्व में).
2017 में सीपीएन का गठन हुआ था. कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों ने मिलकर इस पार्टी को बनाई थी.
प्रचंड और ओली क्यों हुए अलग
2017 से पहले प्रचंड और ओली ने प्रधानमंत्री पद को लेकर समझौता किया था. इसमें आधे टर्म के बाद ओली को पीएम पद से हटना था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसकी वजह से दोनों नेताओं के बीच कड़वाहट बढ़ती गई. प्रचंड का आरोप है कि ओली ने उनके साथ विश्वासघात किया. प्रचंड ने दूसरे नेताओं के साथ मिलकर नया गठबंधन बनाने की कोशिश की. उन्होंने प्रमुख विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा और माधव कुमार नेपाल से संपर्क साधा है.
ओली का कहना है कि नया चुनाव हो जाने से सबको न्याय मिल जाएगा. 22 मई को राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने कहा कि उनके पास और कोई विकल्प नहीं था. उनके अनुसार किसी भी पार्टी या गठबंधन के पास सरकार बनाने के लिए आवश्यक 271 सीटें नहीं थी. बहुत सारे लोगों का मानना है कि इस वक्त नेपाल कोरोना संकट से जूझ रहा है, ऐसे में चुनाव करवाना सही विकल्प नहीं होगा.
गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में
अब मामला एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है. फरवरी में कोर्ट ने संसद भंग करने के ओली के फैसले को संविधान सम्मत नहीं बताया था. एक बार फिर से गुरुवार को कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं. विपक्षी दलों के 146 सांसदों ने अपनी याचिका में कहा है कि ओली और भंडारी ने संविधान के अनुच्छेद 76 के प्रावधानों की अनुपालना नहीं की है. इस अनुच्छेद के तहत मंत्रिमंडल के गठन और प्रधानमंत्री को लेकर बहुत साफ-साफ लिखा गया है. जब तक सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं सुना देता है, तब तक नेपाल में राजनीतिक अनिश्चितता के बादल मंडराते रहेंगे.
(लेखक- सुरेंद्र फुयाल, वरिष्ठ पत्रकार, काठमांडू)