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अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी, पड़ोसियों के लिए क्या हैं इसके मायने

अफगान रक्षा मंत्रालय के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका की टुकड़ी की वापसी शनिवार से शुरू हो गई है. जिससे सबसे लंबा युद्ध लगभग समाप्त हो गया है. हालांकि इससे एक सवाल उठता है कि इसका अफगान सरकार पर क्या प्रभाव पड़ेगा. साथ ही पड़ोसी-भारत, पाकिस्तान, चीन और रूस पर क्या असर होगा?

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Published : May 2, 2021, 2:42 AM IST

नई दिल्ली : ईटीवी भारत ने मामले के बारे को गहराई से समझने के लिए एक विशेषज्ञ से बात की. पूर्व राजदूत अशोक सज्जनहर का कहना है कि बाइडेन प्रशासन द्वारा इस साल 11 सितंबर तक अफगानिस्तान से सभी सैनिकों को वापस लेने का निर्णय इंगित करता है कि अफगानिस्तान का भविष्य बहुत ही महत्वपूर्ण है. आने वाले कुछ वर्षों में अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ता रहेगा.

ईटीवी भारत से बात करते हुए पूर्व राजदूत सज्जनहार ने कहा कि जहां तक ​​निकासी की बात है, यह पिछले कुछ समय से हो रहा है. शांति समझौते के रूप में इसे 29 फरवरी 2020 को हस्ताक्षरित किया गया था और यह सहमति व्यक्त की गई थी कि अमेरिका 1 मई 2021 तक सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा. समझौते पर हस्ताक्षर करने के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 10,000-12,000 सैनिक थे. अब तक अमेरिका ने लगभग 8000 सैनिकों को वापस बुला लिया है और वहां लगभग 2,500 सैनिक ही बचे हैं.

यह दिखाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अफगानिस्तान छोड़ने के लिए बेताब है क्योंकि 20 साल से अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान में तैनात किया गया था. इसे कभी न खत्म होने वाले युद्ध की संज्ञा दी गई लेकिन अब अमेरिका ने अपना मन बना लिया है. हालांकि पेंटागन इस कदम का पूरी तरह से समर्थन नहीं कर सकता है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर अमेरिका को सुरक्षित होना है तो अमेरिका को अफगानिस्तान में होना चाहिए.

लेकिन अफगानिस्तान के लिए इसका क्या मतलब है जो कि एक बड़ा सवालिया निशान है. क्योंकि कई समझौते हुए जिन पर तालिबान और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए थे. संयोग से अशरफ गनी की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को इन सौदों से बाहर रखा गया था. तो मूल रूप से तालिबान को जो करना है वह है हिंसा को कम करना.

लेकिन न तो हिंसा में कमी आई है और न ही समझौके के अनुसार काम हुआ है. वास्तव में हिंसा कई गुना बढ़ गई है और अफगान सरकार के साथ बातचीत में तालिबान द्वारा कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है. यह उम्मीद की जा रही थी कि जब बाइडेन सत्ता में आएंगे तो अमेरिकी सैनिक थोड़े समय के लिए रुकेंगे लेकिन अब बाइडेन ने 11 सितंबर की समय सीमा तय की है.

इसलिए तालिबान का प्रभाव बढ़ता रहेगा क्योंकि तालिबान द्वारा जारी हिंसा के खिलाफ लड़ने के लिए अमेरिकी सेना और नाटो सेना अफगानिस्तान में नहीं होगी. हाल के सप्ताहों में अफगानों के खिलाफ हिंसा कई गुना बढ़ गई है. जिसमें सौ से अधिक अफगान सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं. महिलाओं पर अत्याचार जारी है. इस्लामिक माह रमजान के दौरान अपना उपवास तोड़ने पर दक्षिणी अफगान क्षेत्रीय राजधानी में एक बड़े विस्फोट में दर्जनों लोग मारे गए.

यह पूछे जाने पर कि क्या यह अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से हटने का गलत निर्णय था और भारत, चीन, रूस, पाक सहित पड़ोसी देशों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? उन्होंने कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के दृष्टिकोण से यह एकमात्र निर्णय है क्योंकि पिछले 20 वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका ने 3000 सैनिकों को खो दिया है.

लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए हैं और अभी भी तालिबान के नियंत्रण वाले क्षेत्र बढ़ रहे हैं इसलिए अमेरिका को इससे बाहर निकलना पड़ा. लेकिन अब संयुक्त राज्य अमेरिका का कहना है कि अफगानिस्तान में अल-कायदा बलों को इतना अपमानित किया गया है कि वे अमेरिका के लिए खतरा पैदा नहीं करेंगे.

सज्जनहार ने कहा कि सैनिकों को वापस लेने की बाइडेन की घोषणा का प्रभाव अफगान सरकार और उसके लोगों के लिए एक गलत निर्णय के रूप में आया. क्योंकि यह अमेरिका द्वारा तालिबान के साथ किए गए समझौते का हिस्सा भी नहीं था. काबुल सरकार और अमेरिका के बीच एक और अलग समझौता हुआ. इसलिए अफगान दृष्टिकोण से अमेरिका से आने वाला पैसा कम हो जाएगा.

अमेरिकी उपस्थिति कम होगी इसलिए यह अफगान सरकार के लिए एक झटका है. दूसरी ओर भारत अफगान-नियंत्रण, अफगान-स्वामित्व और अफगान-नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया का समर्थन करता रहा है. भारत चाहता था कि अमेरिका और नाटो सेना वहां अधिक से अधिक समय तक टिके रहें. यह भारत के लिए अधिक सुरक्षा चुनौतियां पैदा करता है.

संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा सेना की वापसी पाकिस्तान के लिए एक जीत के रूप में आई क्योंकि वे अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं. तालिबान की मदद कर रहे थे जब अमेरिका ध्यान नहीं दे रहा था. जब अमेरिका ने बातचीत शुरू की तो पाकिस्तान ने उनके कुछ आतंकवादी तत्वों को गिरफ्तार किया और दबाव खत्म करने के लिए उन्हें अमेरिका को सौंपा. पाकिस्तान इस फैसले से खुश है.

जहां तक ​​चीन का सवाल है तो कमोबेश यही स्थिति उसकी भी है. चीन बहुत खुश है क्योंकि यह 2000 की तुलना में बहुत अधिक शक्तिशाली है. वे CPEC के परिणामस्वरूप बलूचिस्तान में भी मौजूद हैं. चीन अब सभी प्राकृतिक संसाधनों और संपत्ति का उपयोग करेगा. उन्होंने कहा कि वे खुश हैं कि अमेरिका की मौजूदगी और आउटरीच में कमी आ रही है जो एक शून्य को छोड़ देगा जहां चीन कदम रख सकेगा.

इस बीच अफगान की राजधानी में सुरक्षा बढ़ा दी गई है और शहर को उच्च सतर्क सैन्य गश्त पर रखा गया है. देश भर के शहरों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है. 30 अप्रैल को विस्तारित ट्रोइका के प्रतिनिधियों में संयुक्त राज्य अमेरिका, रूसी संघ, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान शामिल थे. जो दोहा, कतर में अंतर-अफगान वार्ता का समर्थन करने और मदद करने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए मिले थे. सभी पार्टियां एक समझौता निपटान और एक स्थायी और व्यापक युद्धविराम तक पहुंची हैं.

इससे पहले तुर्की ने घोषणा की थी कि वह रमजान के पवित्र महीने के अंत तक इस्तांबुल में एक बहुप्रतीक्षित अफगान शांति सम्मेलन को स्थगित कर रहा है. तुर्की के विदेश मंत्री मेवलुत कैवुसोग्लू ने कहा था कि तालिबान के शामिल हुए बिना सम्मेलन निरर्थक होगा. फिलहाल हमने इसे स्थगित करने का फैसला किया क्योंकि प्रतिनिधिमंडल के गठन और भागीदारी के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.

यह भी पढ़ें-लंदन पहुंचे पूनावाला बोले- वैक्सीन के लिए मिलीं धमकियां, जल्द करेंगे बड़ा ऐलान

उद्देश्य दोहा के लिए वैकल्पिक वार्ता शुरू करना नहीं बल्कि प्रक्रिया में योगदान करना है. इस्तांबुल में एक साथ बैठक की मेजबानी तुर्की, कतर और यूएन करेंगे. वहीं अफगानिस्तान और तालिबान के प्रतिनिधियों को तुर्की में 24 अप्रैल से 4 मई तक बैठक आयोजित किया जाना था.

नई दिल्ली : ईटीवी भारत ने मामले के बारे को गहराई से समझने के लिए एक विशेषज्ञ से बात की. पूर्व राजदूत अशोक सज्जनहर का कहना है कि बाइडेन प्रशासन द्वारा इस साल 11 सितंबर तक अफगानिस्तान से सभी सैनिकों को वापस लेने का निर्णय इंगित करता है कि अफगानिस्तान का भविष्य बहुत ही महत्वपूर्ण है. आने वाले कुछ वर्षों में अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ता रहेगा.

ईटीवी भारत से बात करते हुए पूर्व राजदूत सज्जनहार ने कहा कि जहां तक ​​निकासी की बात है, यह पिछले कुछ समय से हो रहा है. शांति समझौते के रूप में इसे 29 फरवरी 2020 को हस्ताक्षरित किया गया था और यह सहमति व्यक्त की गई थी कि अमेरिका 1 मई 2021 तक सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा. समझौते पर हस्ताक्षर करने के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 10,000-12,000 सैनिक थे. अब तक अमेरिका ने लगभग 8000 सैनिकों को वापस बुला लिया है और वहां लगभग 2,500 सैनिक ही बचे हैं.

यह दिखाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अफगानिस्तान छोड़ने के लिए बेताब है क्योंकि 20 साल से अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान में तैनात किया गया था. इसे कभी न खत्म होने वाले युद्ध की संज्ञा दी गई लेकिन अब अमेरिका ने अपना मन बना लिया है. हालांकि पेंटागन इस कदम का पूरी तरह से समर्थन नहीं कर सकता है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर अमेरिका को सुरक्षित होना है तो अमेरिका को अफगानिस्तान में होना चाहिए.

लेकिन अफगानिस्तान के लिए इसका क्या मतलब है जो कि एक बड़ा सवालिया निशान है. क्योंकि कई समझौते हुए जिन पर तालिबान और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए थे. संयोग से अशरफ गनी की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को इन सौदों से बाहर रखा गया था. तो मूल रूप से तालिबान को जो करना है वह है हिंसा को कम करना.

लेकिन न तो हिंसा में कमी आई है और न ही समझौके के अनुसार काम हुआ है. वास्तव में हिंसा कई गुना बढ़ गई है और अफगान सरकार के साथ बातचीत में तालिबान द्वारा कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है. यह उम्मीद की जा रही थी कि जब बाइडेन सत्ता में आएंगे तो अमेरिकी सैनिक थोड़े समय के लिए रुकेंगे लेकिन अब बाइडेन ने 11 सितंबर की समय सीमा तय की है.

इसलिए तालिबान का प्रभाव बढ़ता रहेगा क्योंकि तालिबान द्वारा जारी हिंसा के खिलाफ लड़ने के लिए अमेरिकी सेना और नाटो सेना अफगानिस्तान में नहीं होगी. हाल के सप्ताहों में अफगानों के खिलाफ हिंसा कई गुना बढ़ गई है. जिसमें सौ से अधिक अफगान सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं. महिलाओं पर अत्याचार जारी है. इस्लामिक माह रमजान के दौरान अपना उपवास तोड़ने पर दक्षिणी अफगान क्षेत्रीय राजधानी में एक बड़े विस्फोट में दर्जनों लोग मारे गए.

यह पूछे जाने पर कि क्या यह अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से हटने का गलत निर्णय था और भारत, चीन, रूस, पाक सहित पड़ोसी देशों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? उन्होंने कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के दृष्टिकोण से यह एकमात्र निर्णय है क्योंकि पिछले 20 वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका ने 3000 सैनिकों को खो दिया है.

लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए हैं और अभी भी तालिबान के नियंत्रण वाले क्षेत्र बढ़ रहे हैं इसलिए अमेरिका को इससे बाहर निकलना पड़ा. लेकिन अब संयुक्त राज्य अमेरिका का कहना है कि अफगानिस्तान में अल-कायदा बलों को इतना अपमानित किया गया है कि वे अमेरिका के लिए खतरा पैदा नहीं करेंगे.

सज्जनहार ने कहा कि सैनिकों को वापस लेने की बाइडेन की घोषणा का प्रभाव अफगान सरकार और उसके लोगों के लिए एक गलत निर्णय के रूप में आया. क्योंकि यह अमेरिका द्वारा तालिबान के साथ किए गए समझौते का हिस्सा भी नहीं था. काबुल सरकार और अमेरिका के बीच एक और अलग समझौता हुआ. इसलिए अफगान दृष्टिकोण से अमेरिका से आने वाला पैसा कम हो जाएगा.

अमेरिकी उपस्थिति कम होगी इसलिए यह अफगान सरकार के लिए एक झटका है. दूसरी ओर भारत अफगान-नियंत्रण, अफगान-स्वामित्व और अफगान-नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया का समर्थन करता रहा है. भारत चाहता था कि अमेरिका और नाटो सेना वहां अधिक से अधिक समय तक टिके रहें. यह भारत के लिए अधिक सुरक्षा चुनौतियां पैदा करता है.

संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा सेना की वापसी पाकिस्तान के लिए एक जीत के रूप में आई क्योंकि वे अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं. तालिबान की मदद कर रहे थे जब अमेरिका ध्यान नहीं दे रहा था. जब अमेरिका ने बातचीत शुरू की तो पाकिस्तान ने उनके कुछ आतंकवादी तत्वों को गिरफ्तार किया और दबाव खत्म करने के लिए उन्हें अमेरिका को सौंपा. पाकिस्तान इस फैसले से खुश है.

जहां तक ​​चीन का सवाल है तो कमोबेश यही स्थिति उसकी भी है. चीन बहुत खुश है क्योंकि यह 2000 की तुलना में बहुत अधिक शक्तिशाली है. वे CPEC के परिणामस्वरूप बलूचिस्तान में भी मौजूद हैं. चीन अब सभी प्राकृतिक संसाधनों और संपत्ति का उपयोग करेगा. उन्होंने कहा कि वे खुश हैं कि अमेरिका की मौजूदगी और आउटरीच में कमी आ रही है जो एक शून्य को छोड़ देगा जहां चीन कदम रख सकेगा.

इस बीच अफगान की राजधानी में सुरक्षा बढ़ा दी गई है और शहर को उच्च सतर्क सैन्य गश्त पर रखा गया है. देश भर के शहरों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है. 30 अप्रैल को विस्तारित ट्रोइका के प्रतिनिधियों में संयुक्त राज्य अमेरिका, रूसी संघ, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान शामिल थे. जो दोहा, कतर में अंतर-अफगान वार्ता का समर्थन करने और मदद करने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए मिले थे. सभी पार्टियां एक समझौता निपटान और एक स्थायी और व्यापक युद्धविराम तक पहुंची हैं.

इससे पहले तुर्की ने घोषणा की थी कि वह रमजान के पवित्र महीने के अंत तक इस्तांबुल में एक बहुप्रतीक्षित अफगान शांति सम्मेलन को स्थगित कर रहा है. तुर्की के विदेश मंत्री मेवलुत कैवुसोग्लू ने कहा था कि तालिबान के शामिल हुए बिना सम्मेलन निरर्थक होगा. फिलहाल हमने इसे स्थगित करने का फैसला किया क्योंकि प्रतिनिधिमंडल के गठन और भागीदारी के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.

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उद्देश्य दोहा के लिए वैकल्पिक वार्ता शुरू करना नहीं बल्कि प्रक्रिया में योगदान करना है. इस्तांबुल में एक साथ बैठक की मेजबानी तुर्की, कतर और यूएन करेंगे. वहीं अफगानिस्तान और तालिबान के प्रतिनिधियों को तुर्की में 24 अप्रैल से 4 मई तक बैठक आयोजित किया जाना था.

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