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West Bengal Panchayat election : प.बंगाल पंचायत चुनाव में टीएमसी और भाजपा फिर आमने-सामने

पश्चिम बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव होने जा रहे हैं. टीएमसी, वाम और कांग्रेस के अलावा, इस बार भाजपा पूरे चुनाव को नए नजरिए से लड़ने की कोशिश कर रही है. 2008, 2013 और 2018 के पंचायत चुनावों में भारी पैमाने पर हिंसा हुई थी. हालांकि, राज्य चुनाव आयोग ने कहा है कि इस बार वह अधिक से अधिक सुरक्षाबलों का इस्तेमाल करेगी. टीएमसी और भाजपा, दोनों के लिए यह प्रतिष्ठा का चुनाव बनता जा रहा है. वैसे, वाम मोर्च की भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. एक समय था जब ग्रामीण इलाकों में वाम दलों अजेय हुआ करते थे, पर अब उसकी जगह टीएमसी ने ले ली है. West Bengal Panchayat election.

panchayat election west bengal
पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव
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Published : Oct 23, 2022, 1:09 PM IST

कोलकाता : पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग ने अगले साल मार्च में राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का बिगुल फूंक दिया है, ऐसे में राजनीतिक गलियारों का मानना है कि 2008, 2013 और 2018 में पिछले तीन मौकों की तुलना में ग्रामीण निकाय चुनाव पूरी तरह से अलग परिस्थितियों में होंगे. 2008 में, ग्रामीण निकाय चुनाव हुए थे, जब हुगली जिले के सिंगूर और पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विपक्षी तृणमूल कांग्रेस के दोहरे आंदोलन के कारण सत्तारूढ़ वाम मोर्चा जबरदस्त दबाव में था. तब वाम मोर्चा सरकार पंचायत के तीन स्तरों जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत में अधिकांश सीटों को बरकरार रखने में कामयाब रही. West Bengal Panchayat election.

लेकिन राज्य के विभिन्न हिस्सों में यह स्पष्ट था कि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में वाम दलों की मजबूत पकड़ कमजोर पड़ने लगी थी. 2009 के लोकसभा चुनावों में ये कमजोरी और बढ़ गई और अंतत: 2011 में उन दरारों के कारण वाम मोर्चा शासन का पतन हो गया, जिसने 1977 से 34 वर्षों तक राज्य पर शासन किया था.

2013 के पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव राज्य में पहले ग्रामीण निकाय चुनाव थे, जिसमें तृणमूल कांग्रेस सत्ता में थी और प्रमुख विपक्षी वाम मोर्चा ये नहीं पता था कि उनके ढहते संगठन नेटवर्क को कैसे पुनर्जीवित किया जाए. जैसे कि उम्मीद थी, तृणमूल कांग्रेस ने वाम मोर्चा के साथ सत्ताधारी दल के खिलाफ चुनावों में जीत हासिल की.

2018 के त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों में ग्रामीण निकाय के तीन स्तरों के बहुमत पर कब्जा करने में तृणमूल कांग्रेस के पूर्ण वर्चस्व की निरंतरता देखी गई. हालांकि, 2018 में परिणाम अलग थे, क्योंकि भाजपा पहली बार तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरी, जिसने वाम मोर्चा और कांग्रेस को क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर धकेल दिया.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2008, 2013 और 2018 के पंचायत चुनावों में तीन सामान्य कारक थे. पहला यह था कि इन तीनों चुनावों में जबरदस्त हिंसा हुई थी जिसमें कई लोग मारे गए थे. दूसरा यह था कि इन तीनों चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के वोट शेयर में एक बड़ी वृद्धि देखी गई जो 2018 में चरम पर पहुंच गई. तीसरा, ग्रामीण बंगाल में वाम मोर्चा के वोट शेयर में भारी गिरावट थी.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2013 और 2018 में दो ग्रामीण निकाय चुनावों में सत्ता में तृणमूल कांग्रेस के साथ, विपक्ष को सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ उठाए जाने वाले मुद्दों के बारे में ज्यादातर जानकारी नहीं थी.

हालांकि, राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि इस बार कई मजबूत मुद्दे हैं, जिन्हें विपक्ष पंचायत चुनावों में उजागर करना चाहेगी. विडंबना यह है कि इनमें से अधिकतर मुद्दे ग्रामीण नगर निकायों से संबंधित नहीं हैं. राजनीतिक विश्लेषक अरुंधति मुखर्जी ने कहा, पहला मुद्दा भ्रष्टाचार और नेताओं और मंत्रियों की गिरफ्तारी का होगा. यह एक ऐसा मुद्दा है जिसने शिक्षक भर्ती घोटाले से संबंधित भारी नकदी वसूली की तस्वीरों और वीडियो के साथ सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को वास्तव में बैकफुट पर धकेल दिया है.

तृणमूल कांग्रेस के नेता डिफेंसिव मोड में हैं क्योंकि पार्टी को दूरी बनानी पड़ी थी -- खुद पश्चिम बंगाल के पूर्व शिक्षा मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के महासचिव पार्थ चटर्जी से, जिनसे उनके सभी मंत्री और पार्टी विभाग छीन लिए गए थे. अब देखना होगा कि ग्रामीण निकाय चुनावों में इस अभियान का मुकाबला करने में सत्ताधारी पार्टी कितनी आक्रामक होती है.

मुखर्जी ने कहा, यह पहली बार होगा जब तृणमूल कांग्रेस अपने प्रमुख चुनावी रणनीतिकारों में से एक अनुब्रत मंडल के साथ चुनाव लड़ेगी, क्योंकि पशु तस्करी घोटाले में उनकी कथित संलिप्तता थी. पर्यवेक्षकों का मानना है कि सिर्फ पार्टी के बीरभूम जिला अध्यक्ष होने के बावजूद, मंडल हमेशा पार्टी के गढ़ जिलों में अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं, तो निश्चित रूप से उनकी अनुपस्थिति न केवल बीरभूम में बल्कि बीरभूम से सटे जिलों में भी तृणमूल कांग्रेस के ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ताओं के लिए एक बड़ा झटका होगी.

सभी इस चिंता में हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि 2023 के चुनावों में 2008, 2013 और 2018 की पुनरावृत्ति न हो. राज्य चुनाव आयोग ने संकेत दिया है कि वह राज्य पुलिस बलों के साथ सुरक्षा के प्रभारी के साथ चुनाव कराने के पक्ष में है, विपक्षी दल केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती की मांग पहले ही शुरू कर दी है.

ये भी पढे़ं : ममता बोलीं, गांगुली को मिले ICC चुनाव लड़ने की इजाजत, शुभेंदु का पलटवार- बंगाल का ब्रांड एंबेसडर बना दीजिए

कोलकाता : पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग ने अगले साल मार्च में राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का बिगुल फूंक दिया है, ऐसे में राजनीतिक गलियारों का मानना है कि 2008, 2013 और 2018 में पिछले तीन मौकों की तुलना में ग्रामीण निकाय चुनाव पूरी तरह से अलग परिस्थितियों में होंगे. 2008 में, ग्रामीण निकाय चुनाव हुए थे, जब हुगली जिले के सिंगूर और पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विपक्षी तृणमूल कांग्रेस के दोहरे आंदोलन के कारण सत्तारूढ़ वाम मोर्चा जबरदस्त दबाव में था. तब वाम मोर्चा सरकार पंचायत के तीन स्तरों जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत में अधिकांश सीटों को बरकरार रखने में कामयाब रही. West Bengal Panchayat election.

लेकिन राज्य के विभिन्न हिस्सों में यह स्पष्ट था कि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में वाम दलों की मजबूत पकड़ कमजोर पड़ने लगी थी. 2009 के लोकसभा चुनावों में ये कमजोरी और बढ़ गई और अंतत: 2011 में उन दरारों के कारण वाम मोर्चा शासन का पतन हो गया, जिसने 1977 से 34 वर्षों तक राज्य पर शासन किया था.

2013 के पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव राज्य में पहले ग्रामीण निकाय चुनाव थे, जिसमें तृणमूल कांग्रेस सत्ता में थी और प्रमुख विपक्षी वाम मोर्चा ये नहीं पता था कि उनके ढहते संगठन नेटवर्क को कैसे पुनर्जीवित किया जाए. जैसे कि उम्मीद थी, तृणमूल कांग्रेस ने वाम मोर्चा के साथ सत्ताधारी दल के खिलाफ चुनावों में जीत हासिल की.

2018 के त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों में ग्रामीण निकाय के तीन स्तरों के बहुमत पर कब्जा करने में तृणमूल कांग्रेस के पूर्ण वर्चस्व की निरंतरता देखी गई. हालांकि, 2018 में परिणाम अलग थे, क्योंकि भाजपा पहली बार तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरी, जिसने वाम मोर्चा और कांग्रेस को क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर धकेल दिया.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2008, 2013 और 2018 के पंचायत चुनावों में तीन सामान्य कारक थे. पहला यह था कि इन तीनों चुनावों में जबरदस्त हिंसा हुई थी जिसमें कई लोग मारे गए थे. दूसरा यह था कि इन तीनों चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के वोट शेयर में एक बड़ी वृद्धि देखी गई जो 2018 में चरम पर पहुंच गई. तीसरा, ग्रामीण बंगाल में वाम मोर्चा के वोट शेयर में भारी गिरावट थी.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2013 और 2018 में दो ग्रामीण निकाय चुनावों में सत्ता में तृणमूल कांग्रेस के साथ, विपक्ष को सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ उठाए जाने वाले मुद्दों के बारे में ज्यादातर जानकारी नहीं थी.

हालांकि, राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि इस बार कई मजबूत मुद्दे हैं, जिन्हें विपक्ष पंचायत चुनावों में उजागर करना चाहेगी. विडंबना यह है कि इनमें से अधिकतर मुद्दे ग्रामीण नगर निकायों से संबंधित नहीं हैं. राजनीतिक विश्लेषक अरुंधति मुखर्जी ने कहा, पहला मुद्दा भ्रष्टाचार और नेताओं और मंत्रियों की गिरफ्तारी का होगा. यह एक ऐसा मुद्दा है जिसने शिक्षक भर्ती घोटाले से संबंधित भारी नकदी वसूली की तस्वीरों और वीडियो के साथ सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को वास्तव में बैकफुट पर धकेल दिया है.

तृणमूल कांग्रेस के नेता डिफेंसिव मोड में हैं क्योंकि पार्टी को दूरी बनानी पड़ी थी -- खुद पश्चिम बंगाल के पूर्व शिक्षा मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के महासचिव पार्थ चटर्जी से, जिनसे उनके सभी मंत्री और पार्टी विभाग छीन लिए गए थे. अब देखना होगा कि ग्रामीण निकाय चुनावों में इस अभियान का मुकाबला करने में सत्ताधारी पार्टी कितनी आक्रामक होती है.

मुखर्जी ने कहा, यह पहली बार होगा जब तृणमूल कांग्रेस अपने प्रमुख चुनावी रणनीतिकारों में से एक अनुब्रत मंडल के साथ चुनाव लड़ेगी, क्योंकि पशु तस्करी घोटाले में उनकी कथित संलिप्तता थी. पर्यवेक्षकों का मानना है कि सिर्फ पार्टी के बीरभूम जिला अध्यक्ष होने के बावजूद, मंडल हमेशा पार्टी के गढ़ जिलों में अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं, तो निश्चित रूप से उनकी अनुपस्थिति न केवल बीरभूम में बल्कि बीरभूम से सटे जिलों में भी तृणमूल कांग्रेस के ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ताओं के लिए एक बड़ा झटका होगी.

सभी इस चिंता में हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि 2023 के चुनावों में 2008, 2013 और 2018 की पुनरावृत्ति न हो. राज्य चुनाव आयोग ने संकेत दिया है कि वह राज्य पुलिस बलों के साथ सुरक्षा के प्रभारी के साथ चुनाव कराने के पक्ष में है, विपक्षी दल केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती की मांग पहले ही शुरू कर दी है.

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