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Varanasi Manikarnika Ghat : बनारस का तर्पण और अंतिम क्रिया से विशेष संबंध, जानिए क्यों आते हैं नेपाली तीर्थयात्री

वाराणसी में नेपाल के बहुत से तीर्थयात्री (Nepali Pilgrims ) काशी आते हैं. ये नेपाली तीर्थयात्री वाराणसी के मणिकर्णिका घाट (Varanasi Manikarnika Ghat) पितृ पक्ष (pitru paksha 2023) में काफी संख्या में आते हैं. ये लोग यहां पर ही अपने पूर्वजों का पिंडदान करते हैं. जानिए ऐसा क्या है कि नेपाली तीर्थयात्री यहीं पर अपने पूर्वजों का पिंडदान करते है.

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 28, 2023, 4:17 PM IST

Updated : Sep 28, 2023, 7:56 PM IST

बनारस के घाटों का नेपाली तीर्थयात्रियों से संबंध

वाराणसी: काशी तमाम रहस्यों को लेकर समेटकर चलने वाला वह शहर है, जिसका पुरातन महत्व आज भी अपने आप में अनूठा और पूरे ब्रह्मांड में सबसे अलग माना जाता है. शहर बनारस की ख्याति को आज भी बहुत से ऐसे पुराने लोगों ने संजोग कर रखा है, जिसकी वजह से काशी की एक अलग ही पहचान बन चुकी है. ऐसी ही पहचान के साथ काशी को जीवंत नगरी के रूप में स्थापित करने का काम यहां का पंडा समाज करता है.

काशी आने वाले तीर्थ यात्रियों से लेकर यहां आने वाले दर्शनार्थियों तक को पंडा समाज धार्मिक कृत्यों के जरिए काशी से जोड़ता है. लेकिन, यही पंडा समाज भारत और नेपाल के रिश्ते को भी मजबूत कर रहा है, जो सदियों से इन दोनों देशों की धार्मिक विरासत को संजोकर रखने का काम करता चला आ रहा है. 15 दिनों तक चलने वाले पितृ पक्ष (pitru paksha 2023) के पखवारे में यही पंडा समाज इन दोनों देशों के रिश्तों को और मजबूत करता है. इसके लिए मणिकर्णिका घाट पर 450 सालों से स्थापित नेपाल राज्य के तीर्थ पुरोहित के रूप में कार्य कर रहे लाल मोहरिया पंडा का महत्वपूर्ण रोल माना जाता है.

वाराणसी में घाट पर मौजूद नेपाली
वाराणसी में घाट पर मौजूद नेपाली

दरअसल, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर आपको नेपाल के बड़ी संख्या में तीर्थ यात्रियों का दल अचानक से दिख जाएगा. सिर पर नेपाली टोपी और महिलाओं की वेशभूषा देखकर भी आपको यह अंदाजा हो जाएगा कि यह तीर्थ यात्री नेपाल से आ रहे हैं. एक बार मन में यह जरूर आएगा कि इतनी बड़ी संख्या में नेपाली तीर्थयात्री मणिकर्णिका घाट पर क्या कर रहे हैं. उसके पीछे की वजह यह है कि वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर नेपाली तीर्थ यात्रियों के तीर्थ पुरोहित स्थापित हैं और इनको नेपाल राज्य के तत्कालीन सम्राट जंग बहादुर राणा ने 1835 से 1870 के बीच काशी में आगमन के दौरान नेपाल के तीर्थ पुरोहित के रूप में स्थापित किया था.

वाराणसी में नेपाली लाल महरिया
वाराणसी में नेपाली लाल महरिया

इस बारे में नेपाली लाल मोहरिया पंडा तीर्थ पुरोहित मुकेश दुबे बताते हैं कि उस वक्त राजा जंग बहादुर काशी में एक साधारण व्यक्ति बनकर दो मुट्ठी जौ लेकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म और पिंडदान करने आए थे. वह मणिकर्णिका पर घूम-घूम कर हर पंडा समाज के लोग से यह गुजारिश कर रहे थे कि इस दो मुट्ठी जौ के बदले हमारे पूर्वजों को मुक्ति दिलवा दो. लेकिन, किसी ने उनकी मदद नहीं की.

उन्होंने बताया कि उनके पूर्वजों ने उस वक्त उनको सहारा दिया और पिंडदान संपन्न करवाया. इसके बाद उनका लाव लश्कर अचानक से पहुंचा और तब पता चला कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि नेपाल राज्य के सम्राट हैं. इसके बाद उन्होंने हमारे पूर्वजों को पांच मुट्ठी सोने की जौ और पांच मुट्ठी चांदी के चावल के टुकड़े देकर लाल मोहरिया प्रदान कीं. वह लाल मोहरिया जो आज भी हमारे घर के लॉकर में बंद है और उसके दर्शन करने का अधिकार सिर्फ घर के सबसे बड़े व्यक्ति को है. हर कोई उसे देख भी नहीं सकता. उस लाल मोहरिया के आधार पर साढ़े चार सौ सालों से हम उस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं. जिसे उस वक्त के राजा जंग बहादुर के द्वारा शुरू किया गया था.

यही वजह है कि आज भी नेपाली राज परिवार के सदस्यों के अलावा नेपाल राज्य का आने वाला कोई भी तीर्थ यात्री सीधे हमारे पास आता है. एक वर्ष के अंदर लगभग 30000 से ज्यादा तीर्थ यात्री नेपाल से काशी आते हैं. जो सिर्फ पिंडदान और श्राद्ध कर्म तर्पण करने आते हैं. इस वक्त मैदानी इलाकों के नेपाली तीर्थ यात्रियों का आगमन होता है, जबकि नवंबर से लेकर मार्च तक पहाड़ी इलाकों के तीर्थ यात्री नेपाल से आते हैं. क्योंकि, उस वक्त जब बर्फबारी शुरू होती है तो खेती-बाड़ी काम धंधा सब बंद हो जाता है और उस समय नेपाल के पहाड़ी इलाकों के लोग तीर्थ यात्रा पर निकलते हैं और काशी पहुंचकर पूर्वजों का पिंडदान करते हैं.

नेपाली लाल मोहरिया पंडा तीर्थ पुरोहित मुकेश दुबे ने बताया कि यह सिलसिला अब शुरू हो जाएगा जो अनवरत मार्च तक चलता रहेगा. टुकड़े-टुकड़े में नेपाल के तीर्थ यात्री यहां आते रहेंगे. वहीं, नेपाली तीर्थ पुरोहित जटाशंकर दुबे का कहना है कि नेपाल की कहावत भी है कि यदि मोक्ष पाना है तो काशी चलिए और न्याय पाना है तो नेपाल जाइए. इस वजह से काशी को अपने आप में मोक्ष के लिए जाना जाता है. काशी सबसे महत्वपूर्ण मानी गई है. क्योंकि पितरों को तीर्थ में बसाया जाता है, न कि वह स्वर्ग लोक को जाते हैं. इस वजह से तीर्थ यात्रा करके पितरों का आशीर्वाद लेने के लिए लोग निकलते हैं और सबसे पहले काशी पहुंचकर अपने पितरों का पिंडदान, श्राद्ध कर्म और तर्पण करके उनकी तृप्ति करते हैं. उनका आशीर्वाद लेते हैं. यही वजह है कि हर वर्ष नेपाल से बड़ी संख्या में लोग काशी आते हैं.

यह भी पढ़ें: पांच किमी के खुले मैदान में मंचित होती है वाराणसी की ये रामलीला, विश्व धरोहर सूची में भी शामिल

बनारस के घाटों का नेपाली तीर्थयात्रियों से संबंध

वाराणसी: काशी तमाम रहस्यों को लेकर समेटकर चलने वाला वह शहर है, जिसका पुरातन महत्व आज भी अपने आप में अनूठा और पूरे ब्रह्मांड में सबसे अलग माना जाता है. शहर बनारस की ख्याति को आज भी बहुत से ऐसे पुराने लोगों ने संजोग कर रखा है, जिसकी वजह से काशी की एक अलग ही पहचान बन चुकी है. ऐसी ही पहचान के साथ काशी को जीवंत नगरी के रूप में स्थापित करने का काम यहां का पंडा समाज करता है.

काशी आने वाले तीर्थ यात्रियों से लेकर यहां आने वाले दर्शनार्थियों तक को पंडा समाज धार्मिक कृत्यों के जरिए काशी से जोड़ता है. लेकिन, यही पंडा समाज भारत और नेपाल के रिश्ते को भी मजबूत कर रहा है, जो सदियों से इन दोनों देशों की धार्मिक विरासत को संजोकर रखने का काम करता चला आ रहा है. 15 दिनों तक चलने वाले पितृ पक्ष (pitru paksha 2023) के पखवारे में यही पंडा समाज इन दोनों देशों के रिश्तों को और मजबूत करता है. इसके लिए मणिकर्णिका घाट पर 450 सालों से स्थापित नेपाल राज्य के तीर्थ पुरोहित के रूप में कार्य कर रहे लाल मोहरिया पंडा का महत्वपूर्ण रोल माना जाता है.

वाराणसी में घाट पर मौजूद नेपाली
वाराणसी में घाट पर मौजूद नेपाली

दरअसल, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर आपको नेपाल के बड़ी संख्या में तीर्थ यात्रियों का दल अचानक से दिख जाएगा. सिर पर नेपाली टोपी और महिलाओं की वेशभूषा देखकर भी आपको यह अंदाजा हो जाएगा कि यह तीर्थ यात्री नेपाल से आ रहे हैं. एक बार मन में यह जरूर आएगा कि इतनी बड़ी संख्या में नेपाली तीर्थयात्री मणिकर्णिका घाट पर क्या कर रहे हैं. उसके पीछे की वजह यह है कि वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर नेपाली तीर्थ यात्रियों के तीर्थ पुरोहित स्थापित हैं और इनको नेपाल राज्य के तत्कालीन सम्राट जंग बहादुर राणा ने 1835 से 1870 के बीच काशी में आगमन के दौरान नेपाल के तीर्थ पुरोहित के रूप में स्थापित किया था.

वाराणसी में नेपाली लाल महरिया
वाराणसी में नेपाली लाल महरिया

इस बारे में नेपाली लाल मोहरिया पंडा तीर्थ पुरोहित मुकेश दुबे बताते हैं कि उस वक्त राजा जंग बहादुर काशी में एक साधारण व्यक्ति बनकर दो मुट्ठी जौ लेकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म और पिंडदान करने आए थे. वह मणिकर्णिका पर घूम-घूम कर हर पंडा समाज के लोग से यह गुजारिश कर रहे थे कि इस दो मुट्ठी जौ के बदले हमारे पूर्वजों को मुक्ति दिलवा दो. लेकिन, किसी ने उनकी मदद नहीं की.

उन्होंने बताया कि उनके पूर्वजों ने उस वक्त उनको सहारा दिया और पिंडदान संपन्न करवाया. इसके बाद उनका लाव लश्कर अचानक से पहुंचा और तब पता चला कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि नेपाल राज्य के सम्राट हैं. इसके बाद उन्होंने हमारे पूर्वजों को पांच मुट्ठी सोने की जौ और पांच मुट्ठी चांदी के चावल के टुकड़े देकर लाल मोहरिया प्रदान कीं. वह लाल मोहरिया जो आज भी हमारे घर के लॉकर में बंद है और उसके दर्शन करने का अधिकार सिर्फ घर के सबसे बड़े व्यक्ति को है. हर कोई उसे देख भी नहीं सकता. उस लाल मोहरिया के आधार पर साढ़े चार सौ सालों से हम उस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं. जिसे उस वक्त के राजा जंग बहादुर के द्वारा शुरू किया गया था.

यही वजह है कि आज भी नेपाली राज परिवार के सदस्यों के अलावा नेपाल राज्य का आने वाला कोई भी तीर्थ यात्री सीधे हमारे पास आता है. एक वर्ष के अंदर लगभग 30000 से ज्यादा तीर्थ यात्री नेपाल से काशी आते हैं. जो सिर्फ पिंडदान और श्राद्ध कर्म तर्पण करने आते हैं. इस वक्त मैदानी इलाकों के नेपाली तीर्थ यात्रियों का आगमन होता है, जबकि नवंबर से लेकर मार्च तक पहाड़ी इलाकों के तीर्थ यात्री नेपाल से आते हैं. क्योंकि, उस वक्त जब बर्फबारी शुरू होती है तो खेती-बाड़ी काम धंधा सब बंद हो जाता है और उस समय नेपाल के पहाड़ी इलाकों के लोग तीर्थ यात्रा पर निकलते हैं और काशी पहुंचकर पूर्वजों का पिंडदान करते हैं.

नेपाली लाल मोहरिया पंडा तीर्थ पुरोहित मुकेश दुबे ने बताया कि यह सिलसिला अब शुरू हो जाएगा जो अनवरत मार्च तक चलता रहेगा. टुकड़े-टुकड़े में नेपाल के तीर्थ यात्री यहां आते रहेंगे. वहीं, नेपाली तीर्थ पुरोहित जटाशंकर दुबे का कहना है कि नेपाल की कहावत भी है कि यदि मोक्ष पाना है तो काशी चलिए और न्याय पाना है तो नेपाल जाइए. इस वजह से काशी को अपने आप में मोक्ष के लिए जाना जाता है. काशी सबसे महत्वपूर्ण मानी गई है. क्योंकि पितरों को तीर्थ में बसाया जाता है, न कि वह स्वर्ग लोक को जाते हैं. इस वजह से तीर्थ यात्रा करके पितरों का आशीर्वाद लेने के लिए लोग निकलते हैं और सबसे पहले काशी पहुंचकर अपने पितरों का पिंडदान, श्राद्ध कर्म और तर्पण करके उनकी तृप्ति करते हैं. उनका आशीर्वाद लेते हैं. यही वजह है कि हर वर्ष नेपाल से बड़ी संख्या में लोग काशी आते हैं.

यह भी पढ़ें: पांच किमी के खुले मैदान में मंचित होती है वाराणसी की ये रामलीला, विश्व धरोहर सूची में भी शामिल

Last Updated : Sep 28, 2023, 7:56 PM IST
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