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भारत का अनोखा मछली पकड़ने का मेला, उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर है 'मौण' परंपरा

उत्तराखंड के टिहरी जिले के जौनपुर में ऐतिहासक मौण मेला मनाया जाता है. पूरे भारत में मछली पकड़ने वाला यह अनोखा मेला होता है, जो अपने आप में खास होता है. मछली पकड़ने के लिए टिमरू के पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है. इस मेले का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण और नदी की सफाई है, ताकि मछलियों को प्रजजन में मदद मिल सके.

Maun Mela Uttarakhand
मौण मेला उत्तराखंड
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Published : Jun 30, 2023, 7:21 PM IST

Updated : Jun 30, 2023, 10:36 PM IST

भारत का अनोखा मछली पकड़ने का मेला.

मसूरी: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में जौनसार, जौनपुर और रवांई का विशेष महत्व है. इस क्षेत्र को पांडवों की भूमि भी कहा जाता है. यह क्षेत्र अपनी अनोखी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है. जिसमें मछली पकड़ने का मौण मेला भी प्रमुख है. जो पूरे देश में कहीं भी नहीं होता है, लेकिन टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड की अगलाड़ नदी में मौण मेला आयोजित होता है. जिसे राजमीण भी कहा जाता है. कहा जाता है कि जब यहां राजशाही थी, तब टिहरी के राजा खुद मौण मेले में शिरकत करने आते थे.

Maun Mela Uttarakhand
उत्तराखंड का सांस्कृतिक धरोहर है 'मौण' परंपरा

पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछली पकड़ते हैं ग्रामीणः दरअसल, मॉनसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने के लिए मौण मेला मनाया जाता है. जिसमें काफी संख्या में ग्रामीण अगलाड़ नदी में पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछलियों को पकड़ते हैं और जमकर खुशियां मनाते हैं. इस बार भी ग्रामीण मछलियों को पकड़ने के लिए अगलाड़ नदी में उतरे. मौण मेले से पहले अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से तैयार पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ समय के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है.

टिमरू से बेहोश हो जाती है मछलियां, ग्रामीणों का उमड़ता है हुजूमः हजारों की संख्या में ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ नदी में उतरते हैं. इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वो मछलियां बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं.

Maun Mela Uttarakhand
अगलाड़ नदी में मछली पकड़ने के लिए उमड़ी भीड़

तीन किलोमीटर के दायरे में पकड़ी जाती है मछलियांः स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि इस ऐतिहासिक त्योहार में टिमरू का पाउडर डालने की जिम्मेदारी सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों का होता है, लेकिन इस बार पाउडर डालने का काम लालूर पट्टी के देवन, सड़कसारी, घंसी, मिरियागांव, टिकरी, छानी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गांव के लोग कर रहे हैं. अगलाड़ नदी के 3 किलोमीटर के दायरे में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से मछलियां पकड़ते हैं.
ये भी पढ़ेंः ऐतिहासिक मौण मेले का हुआ आयोजन, सालों से संजोकर रखी है सांस्कृतिक विरासत

प्रसाद के रूप में परोसी जाती है मछलियांः मेले में कई किलो मछलियां पकड़ी जाती है, जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप अपने-अपने घर ले जाते हैं. घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मौण मेले में पारंपरिक तरीके से लोक नृत्य भी किया जाता है. मौण मेले में विदेशी पर्यटक भी शिरकत करते हैं. यह भारत का ऐसा अनूठा और खास मेला है, जिसका मकसद पर्यावरण और गदी का संरक्षण करना है. इसका एक और मकसद नदी की सफाई करना होता है. ताकि, मछलियों को भी प्रजनन के लिए साफ पानी मिल सके.

Maun Mela Uttarakhand
ऐतिहासक मौण मेले में मछली पकड़ते लोग

टिमरू के पाउडर से नदी होती है साफः जल वैज्ञानिकों की मानें तो टिमरू का पाउडर जलीय पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. टिमरू के पाउडर से कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती है, वो बाद में पानी साफ होती जीवित हो जाती हैं. इसके अलावा जब हजारों की तादाद में लोग नदी की धारा में चलते हैं तो तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर बह जाती है. मौण मेले के बाद अगलाड़ नदी साफ नजर आती है.

Maun Mela Uttarakhand
टिमरू के पाउडर से मारी जाती है मछलियां

साल 1866 में टिहरी नरेश ने शुरू किया था मेलाः इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ साल 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था. उसके बाद से ही जौनपुर में हर साल मौण मेले का आयोजन किया जाता है. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश खुद अपनी रानी के साथ आते थे. सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि मौण मेले में मौजूद रहते थे, लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद ग्रामीणों ने सुरक्षा का जिम्मा उठा लिया. इस मेले की अनेक विशेषताएं हैं, पहले तो यह अपने आप में अनोखा मेला है. वहीं, यह मेला सांस्कृतिक विरासत में विशेष महत्व रखता है.

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अगलाड़ नदी में काफी संख्या में मिलती है मछलियां

मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का होता है इस्तेमालः इस मेले की खासियत ये है कि हर साल मेले के आयोजन का जिम्मा अलग-अलग क्षेत्र के लोगों का होता है. जिसे स्थानीय भाषा में पाली कहते हैं. जिस क्षेत्र के लोगों की बारी होती है, वहां के लोग एक दो महीने पहले ही तैयारी कर लेते हैं. क्योंकि इसमें मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का प्रयोग किया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं. इस पौधे की छाल को निकाला जाता है और इसे सूखा और कूट कर इसका पाउडर बनाया जाता है, जिसे नदी में डाला जाता है.
ये भी पढ़ेंः ट्राउट मछली उत्पादन से बदल रही काश्तकारों की किस्मत, मत्स्य विभाग भी बढ़ा रहा मदद के हाथ

भारत का अनोखा मछली पकड़ने का मेला.

मसूरी: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में जौनसार, जौनपुर और रवांई का विशेष महत्व है. इस क्षेत्र को पांडवों की भूमि भी कहा जाता है. यह क्षेत्र अपनी अनोखी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है. जिसमें मछली पकड़ने का मौण मेला भी प्रमुख है. जो पूरे देश में कहीं भी नहीं होता है, लेकिन टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड की अगलाड़ नदी में मौण मेला आयोजित होता है. जिसे राजमीण भी कहा जाता है. कहा जाता है कि जब यहां राजशाही थी, तब टिहरी के राजा खुद मौण मेले में शिरकत करने आते थे.

Maun Mela Uttarakhand
उत्तराखंड का सांस्कृतिक धरोहर है 'मौण' परंपरा

पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछली पकड़ते हैं ग्रामीणः दरअसल, मॉनसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने के लिए मौण मेला मनाया जाता है. जिसमें काफी संख्या में ग्रामीण अगलाड़ नदी में पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछलियों को पकड़ते हैं और जमकर खुशियां मनाते हैं. इस बार भी ग्रामीण मछलियों को पकड़ने के लिए अगलाड़ नदी में उतरे. मौण मेले से पहले अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से तैयार पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ समय के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है.

टिमरू से बेहोश हो जाती है मछलियां, ग्रामीणों का उमड़ता है हुजूमः हजारों की संख्या में ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ नदी में उतरते हैं. इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वो मछलियां बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं.

Maun Mela Uttarakhand
अगलाड़ नदी में मछली पकड़ने के लिए उमड़ी भीड़

तीन किलोमीटर के दायरे में पकड़ी जाती है मछलियांः स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि इस ऐतिहासिक त्योहार में टिमरू का पाउडर डालने की जिम्मेदारी सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों का होता है, लेकिन इस बार पाउडर डालने का काम लालूर पट्टी के देवन, सड़कसारी, घंसी, मिरियागांव, टिकरी, छानी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गांव के लोग कर रहे हैं. अगलाड़ नदी के 3 किलोमीटर के दायरे में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से मछलियां पकड़ते हैं.
ये भी पढ़ेंः ऐतिहासिक मौण मेले का हुआ आयोजन, सालों से संजोकर रखी है सांस्कृतिक विरासत

प्रसाद के रूप में परोसी जाती है मछलियांः मेले में कई किलो मछलियां पकड़ी जाती है, जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप अपने-अपने घर ले जाते हैं. घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मौण मेले में पारंपरिक तरीके से लोक नृत्य भी किया जाता है. मौण मेले में विदेशी पर्यटक भी शिरकत करते हैं. यह भारत का ऐसा अनूठा और खास मेला है, जिसका मकसद पर्यावरण और गदी का संरक्षण करना है. इसका एक और मकसद नदी की सफाई करना होता है. ताकि, मछलियों को भी प्रजनन के लिए साफ पानी मिल सके.

Maun Mela Uttarakhand
ऐतिहासक मौण मेले में मछली पकड़ते लोग

टिमरू के पाउडर से नदी होती है साफः जल वैज्ञानिकों की मानें तो टिमरू का पाउडर जलीय पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. टिमरू के पाउडर से कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती है, वो बाद में पानी साफ होती जीवित हो जाती हैं. इसके अलावा जब हजारों की तादाद में लोग नदी की धारा में चलते हैं तो तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर बह जाती है. मौण मेले के बाद अगलाड़ नदी साफ नजर आती है.

Maun Mela Uttarakhand
टिमरू के पाउडर से मारी जाती है मछलियां

साल 1866 में टिहरी नरेश ने शुरू किया था मेलाः इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ साल 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था. उसके बाद से ही जौनपुर में हर साल मौण मेले का आयोजन किया जाता है. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश खुद अपनी रानी के साथ आते थे. सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि मौण मेले में मौजूद रहते थे, लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद ग्रामीणों ने सुरक्षा का जिम्मा उठा लिया. इस मेले की अनेक विशेषताएं हैं, पहले तो यह अपने आप में अनोखा मेला है. वहीं, यह मेला सांस्कृतिक विरासत में विशेष महत्व रखता है.

Maun Mela Uttarakhand
अगलाड़ नदी में काफी संख्या में मिलती है मछलियां

मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का होता है इस्तेमालः इस मेले की खासियत ये है कि हर साल मेले के आयोजन का जिम्मा अलग-अलग क्षेत्र के लोगों का होता है. जिसे स्थानीय भाषा में पाली कहते हैं. जिस क्षेत्र के लोगों की बारी होती है, वहां के लोग एक दो महीने पहले ही तैयारी कर लेते हैं. क्योंकि इसमें मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का प्रयोग किया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं. इस पौधे की छाल को निकाला जाता है और इसे सूखा और कूट कर इसका पाउडर बनाया जाता है, जिसे नदी में डाला जाता है.
ये भी पढ़ेंः ट्राउट मछली उत्पादन से बदल रही काश्तकारों की किस्मत, मत्स्य विभाग भी बढ़ा रहा मदद के हाथ

Last Updated : Jun 30, 2023, 10:36 PM IST
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