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उत्तराखंड HC ने हरिद्वार जिले में बूचड़खानों पर लगी रोक पर उठाया सवाल

हरिद्वार जिले में बूचड़खाने पर रोक लगाने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा, ये लोकतंत्र का अभिप्राय है.

उत्तराखंड HC
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Published : Jul 17, 2021, 9:01 PM IST

नैनीताल : उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हरिद्वार जिले में बूचड़खानों पर रोक लगाने के फैसले की संवैधानिकता पर सवाल उठाते हुए कहा कि सभ्यता का आकलन अल्पसंख्यकों के साथ किए जाने वाले व्यवहार के आधार पर होता है.

हरिद्वार जिले में बूचड़खाने पर रोक लगाने के फैसले को चुनौती देने के लिए मंगलौर कस्बे के रहने वाले याचिककार्ता की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा, लोकतंत्र का अभिप्राय है.

अल्पसंख्यकों की रक्षा सभ्यता का आकलन केवल इस बात से किया जा सकता है कि अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है और हरिद्वार जैसी पाबंदी से सवाल उठता है कि राज्य किस हद तक नागरिकों के विकल्पों को तय कर सकता है. याचिका में कहा गया है कि पांबदी निजता के अधिकार, जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता से अपने धार्मिक रीति रिवाजों का अनुपालन करने के अधिकार का उल्लंघन करता है. यह हरिद्वार में मुस्लिमों के साथ भेदभाव करता है. जहां पर मंगलौर जैसे कस्बे में बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है.

इसे भी पढ़े-जम्मू-कश्मीर में जानवरों के वध पर पाबंदी नहीं, प्रशासन ने दिया स्पष्टीकरण

याचिका में कहा गया, हरिद्वार में धर्म और जाति की सीमाओं से परे साफ और ताजा मांसाहार से मनाही भेदभाव जैसा है. गौरतलब है कि इस साल मार्च में राज्य सरकार ने हरिद्वार को बूचड़खानों से मुक्त क्षेत्र घोषित कर दिया था और बूचड़खानों के लिए जारी अनापत्तिपत्रों को भी रद्द कर दिया था.

याचिका में दावा किया गया कि पाबंदी मनमाना और असंवैधानिक है. याचिका में इस फैसले को दो कारणों से चुनौती दी गई है. इसमें कहा गया कि मांस पर किसी तरह की पूर्ण पांबदी अंसवैधानिक है. जबकि उत्तर-प्रदेश नगर निगम अधिनियम में उत्तराखंड सरकार द्वारा जोड़ी गई धारा-237ए, नगर निगम, परिषद या नगर पंचायत को बूचड़खाना मुक्त घोषित करने का अधिकार प्रदान करती है. अदालत ने कहा कि याचिका में गंभीर मौलिक सवाल उठाए गए हैं और इसमें संवैधानिक व्याख्या शामिल है.

अदालत ने कहा कि इसी तरह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मांस पर प्रतिबंध किसी पर भी थोपा नहीं जाना चाहिए. कल आप कह सकते हैं कि कोई मांस का सेवन नहीं करे. इसको ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि सवाल यह है कि क्या नागरिकों को अपना भोजन चुनने का अधिकार है या राज्य इसका फैसला करेगा.

अदालत ने हालांकि कहा कि यह संवैधानिक मामला और त्योहार को देखते हुए सुनवाई में जल्दबाजी नहीं की जा सकती है. इस मामले में उचित सुनवाई और विमर्श की जरूरत है. इसलिए, इस मामले पर फैसला बकरीद तक करना संभव नहीं है, जो कि 21 जुलाई को पड़ रहा है. अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 23 जुलाई की तारीख तय की है.

(पीटीआई-भाषा)

नैनीताल : उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हरिद्वार जिले में बूचड़खानों पर रोक लगाने के फैसले की संवैधानिकता पर सवाल उठाते हुए कहा कि सभ्यता का आकलन अल्पसंख्यकों के साथ किए जाने वाले व्यवहार के आधार पर होता है.

हरिद्वार जिले में बूचड़खाने पर रोक लगाने के फैसले को चुनौती देने के लिए मंगलौर कस्बे के रहने वाले याचिककार्ता की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा, लोकतंत्र का अभिप्राय है.

अल्पसंख्यकों की रक्षा सभ्यता का आकलन केवल इस बात से किया जा सकता है कि अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है और हरिद्वार जैसी पाबंदी से सवाल उठता है कि राज्य किस हद तक नागरिकों के विकल्पों को तय कर सकता है. याचिका में कहा गया है कि पांबदी निजता के अधिकार, जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता से अपने धार्मिक रीति रिवाजों का अनुपालन करने के अधिकार का उल्लंघन करता है. यह हरिद्वार में मुस्लिमों के साथ भेदभाव करता है. जहां पर मंगलौर जैसे कस्बे में बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है.

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याचिका में कहा गया, हरिद्वार में धर्म और जाति की सीमाओं से परे साफ और ताजा मांसाहार से मनाही भेदभाव जैसा है. गौरतलब है कि इस साल मार्च में राज्य सरकार ने हरिद्वार को बूचड़खानों से मुक्त क्षेत्र घोषित कर दिया था और बूचड़खानों के लिए जारी अनापत्तिपत्रों को भी रद्द कर दिया था.

याचिका में दावा किया गया कि पाबंदी मनमाना और असंवैधानिक है. याचिका में इस फैसले को दो कारणों से चुनौती दी गई है. इसमें कहा गया कि मांस पर किसी तरह की पूर्ण पांबदी अंसवैधानिक है. जबकि उत्तर-प्रदेश नगर निगम अधिनियम में उत्तराखंड सरकार द्वारा जोड़ी गई धारा-237ए, नगर निगम, परिषद या नगर पंचायत को बूचड़खाना मुक्त घोषित करने का अधिकार प्रदान करती है. अदालत ने कहा कि याचिका में गंभीर मौलिक सवाल उठाए गए हैं और इसमें संवैधानिक व्याख्या शामिल है.

अदालत ने कहा कि इसी तरह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मांस पर प्रतिबंध किसी पर भी थोपा नहीं जाना चाहिए. कल आप कह सकते हैं कि कोई मांस का सेवन नहीं करे. इसको ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि सवाल यह है कि क्या नागरिकों को अपना भोजन चुनने का अधिकार है या राज्य इसका फैसला करेगा.

अदालत ने हालांकि कहा कि यह संवैधानिक मामला और त्योहार को देखते हुए सुनवाई में जल्दबाजी नहीं की जा सकती है. इस मामले में उचित सुनवाई और विमर्श की जरूरत है. इसलिए, इस मामले पर फैसला बकरीद तक करना संभव नहीं है, जो कि 21 जुलाई को पड़ रहा है. अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 23 जुलाई की तारीख तय की है.

(पीटीआई-भाषा)

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