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SC ने 18-44 आयुवर्ग के लिए केंद्र की टीकाकरण नीति को बताया मनमाना और तर्कहीन

सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि एक मई को शुरू की गई 'उदार टीकाकरण नीति' केंद्र और राज्यों के बीच जिम्मेदारियों के संवैधानिक संतुलन में टकराव वाली बात है क्योंकि 18-44 वर्ष आयु के बीच के व्यक्तियों को टीका लगाने का पूरा बोझ राज्यों पर छोड़ दिया गया है.

सुप्रीम कोर्ट
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Published : Jun 3, 2021, 7:09 AM IST

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की कोविड टीकाकरण नीति को 'प्रथम दृष्टया मनमानापूर्ण एवं अतार्किक' करार दिया, जिसमें पहले दो चरणों में संबंधित समूहों को टीके की मुफ्त खुराक दी गयी और अब राज्यों एवं निजी अस्पतालों को 18-44 साल आयु वर्ग के लोगों से शुल्क वसूलने की अनुमति दी गयी है.

न्यायालय ने केंद्र को इसकी समीक्षा करने का आदेश दिया एवं कहा कि जब कार्यपालिका की नीतियां नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं तो अदालतें खामोश नहीं रह सकतीं.

कोविड टीकाकरण नीति का विस्तार से मूल्यांकरन करने का प्रयास करते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र से कई सूचनाएं मांगीं और यह भी जानना चाहा कि टीकाकरण के लिए निर्धारित 35,000 करोड़ रुपये अब तक कैसे खर्च किए गए हैं.

पढ़ें- कोविन एप डिजिटल रूप से अशिक्षित और दिव्यांगों के लिए आसान नहीं : सुप्रीम कोर्ट

इसने नीति के संबंध में सभी संबंधित दस्तावेज एवं फाइल नोटिंग भी उपलब्ध कराने को कहा.

शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर बुधवार को अपलोड किए गए 31 मई के इस आदेश में उदारीकृत टीकाकरण नीति, केंद्र एवं राज्यों एवं निजी अस्पतालों के लिए टीके के अलग-अलग दाम, उनके आधार, ग्रामीण एवं शहरी भारत के बीच विशाल डिजिटल अंतर के बाद भी टीके के स्लॉट बुक कराने के लिए कोविन ऐप पर अनिवार्य पंजीकरण आदि को लेकर केंद्र के फैसले की आलोचना की गयी है और सरकार से सवालों पर दो सप्ताह में जवाब मांगा गया है.

न्यायालय ने कहा कि वह नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना जारी रखेगा और यह देखेगा कि जो नीतियां हैं, वे तार्किकता के अनुरूप हैं या नहीं.

न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल. एन. राव और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट की एक विशेष पीठ ने कहा कि यह कहना सही नहीं होगा कि शक्तियों का पृथककरण संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और नीति-निर्माण कार्यपालिका के एकमात्र अधिकार क्षेत्र में है.

पढ़ें- कोरोना टीकाकरण पर बोला SC, रोडमैप पेश करे केंद्र, मूकदर्शक नहीं रह सकती अदालत

पीठ ने अपने आदेश में कहा, हमारे संविधान में यह परिकल्पित नहीं है कि जब कार्यपालिका की नीतियां नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं तो अदालतें मूकदर्शक बनी रहें. न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका द्वारा तैयार की गई नीतियों के लिए संवैधानिक औचित्य को परखना एक आवश्यक कार्य है और यह काम न्यायालयों को सौंपा गया है.

केंद्र ने अपने हलफनामे कहा था कि न्यायपालिका को नीति निर्माण के क्षेत्राधिकार में कदम नहीं रखना चाहिए.

न्यायालय ने कहा कि वर्तमान में वह विभिन्न हितधारकों को महामारी के प्रबंधन के संबंध में संवैधानिक शिकायतों को उठाने के लिए एक मंच प्रदान कर रहा है.

पीठ ने कोविड प्रबंधन पर स्वत: संज्ञान मामले में अपना आदेश पारित किया.

(भाषा)

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की कोविड टीकाकरण नीति को 'प्रथम दृष्टया मनमानापूर्ण एवं अतार्किक' करार दिया, जिसमें पहले दो चरणों में संबंधित समूहों को टीके की मुफ्त खुराक दी गयी और अब राज्यों एवं निजी अस्पतालों को 18-44 साल आयु वर्ग के लोगों से शुल्क वसूलने की अनुमति दी गयी है.

न्यायालय ने केंद्र को इसकी समीक्षा करने का आदेश दिया एवं कहा कि जब कार्यपालिका की नीतियां नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं तो अदालतें खामोश नहीं रह सकतीं.

कोविड टीकाकरण नीति का विस्तार से मूल्यांकरन करने का प्रयास करते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र से कई सूचनाएं मांगीं और यह भी जानना चाहा कि टीकाकरण के लिए निर्धारित 35,000 करोड़ रुपये अब तक कैसे खर्च किए गए हैं.

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इसने नीति के संबंध में सभी संबंधित दस्तावेज एवं फाइल नोटिंग भी उपलब्ध कराने को कहा.

शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर बुधवार को अपलोड किए गए 31 मई के इस आदेश में उदारीकृत टीकाकरण नीति, केंद्र एवं राज्यों एवं निजी अस्पतालों के लिए टीके के अलग-अलग दाम, उनके आधार, ग्रामीण एवं शहरी भारत के बीच विशाल डिजिटल अंतर के बाद भी टीके के स्लॉट बुक कराने के लिए कोविन ऐप पर अनिवार्य पंजीकरण आदि को लेकर केंद्र के फैसले की आलोचना की गयी है और सरकार से सवालों पर दो सप्ताह में जवाब मांगा गया है.

न्यायालय ने कहा कि वह नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना जारी रखेगा और यह देखेगा कि जो नीतियां हैं, वे तार्किकता के अनुरूप हैं या नहीं.

न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल. एन. राव और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट की एक विशेष पीठ ने कहा कि यह कहना सही नहीं होगा कि शक्तियों का पृथककरण संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और नीति-निर्माण कार्यपालिका के एकमात्र अधिकार क्षेत्र में है.

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पीठ ने अपने आदेश में कहा, हमारे संविधान में यह परिकल्पित नहीं है कि जब कार्यपालिका की नीतियां नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं तो अदालतें मूकदर्शक बनी रहें. न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका द्वारा तैयार की गई नीतियों के लिए संवैधानिक औचित्य को परखना एक आवश्यक कार्य है और यह काम न्यायालयों को सौंपा गया है.

केंद्र ने अपने हलफनामे कहा था कि न्यायपालिका को नीति निर्माण के क्षेत्राधिकार में कदम नहीं रखना चाहिए.

न्यायालय ने कहा कि वर्तमान में वह विभिन्न हितधारकों को महामारी के प्रबंधन के संबंध में संवैधानिक शिकायतों को उठाने के लिए एक मंच प्रदान कर रहा है.

पीठ ने कोविड प्रबंधन पर स्वत: संज्ञान मामले में अपना आदेश पारित किया.

(भाषा)

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