हैदराबाद : नदियों को जोड़ने की विफलता के जड़ में राज्यों की एकता में कमी, आपसी सद्भाव और राष्ट्रवादी भावना का अभाव मूल कारण है. इस प्रवृत्ति के कारण राज्य अक्सर बाढ़ या अकाल से पीड़ित रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल विवाद समाधान की कार्यवाही के दौरान कहा था कि नदी का जल राष्ट्रीय संसाधन है. तथ्य यह है कि नदी के पानी के उपयोग के लिए एकजुट कार्रवाई एक मृगतृष्णा बनी हुई है.
यह राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी द्वारा भी पुष्टि की गई थी. जिसने हाल ही में साढ़े तीन महीने के लिए विभिन्न संबंधित विषयों पर वेबिनार आयोजित किए. एजेंसी ने निष्कर्ष निकाला कि राज्यों द्वारा उनके साथ अधिशेष जल की उपलब्धता की पुष्टि करने से इंकार किया जाता है. साथ ही पड़ोसी राज्यों के बीच अलग-अलग रुख अपनाया जाता है. सभी स्तरों पर संकीर्ण विचारधारा नदियों के एकीकरण के लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है. जब नदियों को जोड़ने की बात आती है तो यह सवाल उठता है कि नदी के पानी को मोड़ने के बाद जो समस्याएं होगी उन परिस्थितियों से कैसे बचा जाएगा.
कागजों तक सीमित तंत्र
केंद्र सरकार ने पिछले मार्च में घोषणा की थी कि नदियों को आपस में जोड़ने के लिए एक अलग कार्यकारी तंत्र लाया जाएगा. लेकिन तंत्र अभी भी केवल कागजों पर ही बना हुआ है. एनडब्ल्यूडीए का मानना है कि अगर नदी को आपस में जोड़ने वाले ब्लॉकों को हटाने के लिए कानूनी समिति स्थापित की जाती है तो उद्देश्य पूर्ति के लिए नए कानूनों को लागू करने की आवश्यकता होगी. एजेंसी ने राष्ट्रीय जल नीति के निर्माण के साथ नदी एकीकरण प्राधिकरण बनाने की भी सिफारिश भी की है. यह महत्वपूर्ण है कि केंद्र इन सिफारिशों को लागू करे. यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इस उद्देश्य के लिए राज्यों के बीच उचित समझ को बढ़ावा दिया जाए.
नदियों को जोड़ना आवश्यक
कम पानी वाली नदी घाटियों के साथ अधिक जल वाली नदी घाटियों को जोड़कर नदी के पानी के बंटवारे का विचार पहली बार डॉ केएल राव ने 1972 में की थी. उन्होंने गंगा-कावेरी लिंक नहर का प्रस्ताव रखा था. एक वर्ष में 150 दिनों के लिए पटना के पास 600000 क्यूसेक का प्रवाह प्रदान करेगी. डॉ राव के दृष्टिकोण के अनुसार इस पानी से 40 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचित करने में मदद मिलेगी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में नदियों को जोड़ने के लिए सुरेश प्रभु के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया था. समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि नदियों के एकीकरण से देश में सिंचित भूमि की सीमा बढ़कर 16 करोड़ हेक्टेयर हो जाएगी. समिति ने अनुमान लगाया कि यह 34 गीगावाट बिजली पैदा करने में मदद करेगा. मूल योजना के अनुसार नदी इंटरलिंकिंग में शामिल लागत को केंद्र और राज्यों द्वारा 60:40 के अनुपात में साझा किया जाना था. पिछले साल लागत शेयरिंग अनुपात को 90:10 में बदल दिया गया था.
राज्यों ने जताया विरोध
यह भी व्यापक रूप से प्रचारित किया गया था कि केंद्र सरकार का जलशक्ति मंत्रालय 9 राज्यों के 47 अंतर-राज्य सिंचाई परियोजना प्रस्तावों की समीक्षा करेगा. दूसरी ओर एक सनसनीखेज घटनाक्रम में मध्य प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा और अन्य राज्यों की सरकारों ने केंद्र को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 1.87 लाख करोड़ क्यूबिक मीटर नदी जल की उपलब्धता के विपरीत देश केवल 1.12 लाख करोड़ क्यूबिक मीटर का उपयोग करने में सक्षम है. यह स्पष्ट रूप से समुद्र में नदी के कीमती पानी की विशाल मात्रा के बेकार प्रवाह को दर्शाता है. नदी जल स्रोतों के अधिकतम उपयोग के प्रति शिथिलता एक विडंबनापूर्ण स्थिति की ओर ले जा रही है. जहां कुछ राज्यों में बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है जबकि अन्य एक ही समय में सूखे का सामना कर रहे हैं.
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इससे न केवल जीवन और संपत्ति का व्यापक नुकसान हो रहा है बल्कि कृषि और औद्योगिक विकास में भी बाधा आ रही है. नदियों को जोड़ने से देश को कई लाभ हो सकते हैं. इसके प्रयासों में देरी अत्यधिक हानिकारक हो सकती है. जब राज्य अपनी संकीर्ण सोच को खत्म करेंगे और नदियों के एकीकरण की दिशा में एकजुट होंगे और देश में कृषि क्षेत्र सिंचित होगा तभी समृद्धि आएगी.