नई दिल्ली : पंजाब देश में सर्वाधिक दलितों की आबादी वाला राज्य है, मगर अभी तक वहां कोई दलितों की नुमांइदगी करने वाला कोई नेता स्थापित नहीं हो सका, जैसा उत्तर भारत के अन्य राज्यों में हुआ. बहुजन समाज पार्टी की मायावती, लोक जनशक्ति पार्टी के राम बिलास पासवान, कांग्रेस के जगजीवन राम जैसा सशक्त दलित चेहरा पंजाब में कभी सामने नहीं आया. पंजाब के नेता काशीराम दलितों की राजनीति करते रहे, मगर उनका जादू पंजाब के बजाय उत्तरप्रदेश में चला.
आजादी के बाद से अब तक के चुनाव में पंजाब के दलित या तो कांग्रेस को वोट देते रहे या फिर शिरोमणि अकाली दल को. मगर वह ऐसे वोट बैंक में भी तब्दील नहीं हो पाए, जिनके वोट के लिए पार्टियां उनके दरवाजे तक दौड़ लगाए. कांग्रेस के चरणजीत सिंह चन्नी पहले ऐसे नेता हैं, जो सीएम की कुर्सी तक पहुंच सके. आखिर ऐसा क्यों हुआ?
2011 की जनगणना के मुताबिक पंजाब में वोटर्स की संख्या करीब 2.12 करोड़ है. इनमें दलित वोट करीब 32 फ़ीसद है, जबकि जाट सिखों की आबादी करीब 25 फ़ीसद मानी जाती है. इसके बाद भी दलित राजनीति पंजाब में कभी नहीं चली. उत्तर भारत के अन्य राज्य बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में दलित की आबादी का रेश्यो पंजाब के मुकाबले काफी कम है. मगर वहां दलित राजनीति हमेशा सुर्खियों में रहती है. हर दल दलितों से जुड़े मुद्दे को संवेदनशील तरीके से उठाते हैं. इसका लाभ-हानि भी राजनीतिक दलों को मिलता रहा है.
पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 में जो सीएम चेहरे सामने आए हैं, उनमें से अधिकतर प्रमुख जाट सिख ही हैं. आम आदमी पार्टी के सीएम कैंडिडेट भगवंत मान और अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल जाट सिख हैं. पंजाब लोक कांग्रेस और बीजेपी गठबंधन का चेहरा कैप्टन अमरिंदर भी जाट सिखों के राजघराने से हैं. कांग्रेस में सीएम पद की दावेदारी कर रहे नवजोत सिंह सिद्धू भी जाट सिख हैं. सिर्फ चरणजीत सिंह चन्नी की पहचान दलित सिख की है और उन्हें भी चुनाव से पहले सीएम की कुर्सी मिली है.
पंजाब में इस बार कांग्रेस के दलित सीएम के दांव के बाद अकाली दल ने बहुजन समाजवादी पार्टी से गठजोड़ किया है. दोनों ने पहले भी 1992 में गठजोड़ किया था, तब बीएसपी को 9 प्रतिशत वोट मिला था मगर 6 सीटें ही मिली थीं. इसके बाद के चुनावों में उसका वोट प्रतिशत गिरता गया. पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें दो फ़ीसद से भी कम वोट मिले थे. पिछले चार विधानसभा चुनाव से बीएसपी, पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पाई है.
39 उपजातियों में बंटी है पंजाब की दलित जातियां : सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अनुसार पंजाब में दलितों की 39 उपजातियां हैं. पंजाब की दलित आबादी मुख्य तौर पर पांच कैटिगरी में बंटे हैं. यही पांच उपजातियां 80 प्रतिशत दलित आबादी का प्रतिनिधित्व करती है. इनमें सबसे अधिक आबादी अनुसूचित जाति में आने वाले मजहबी सिखों की है. वह करीब 30 फीसदी के साथ सबसे बड़े समूह हैं. इसके बाद रविदासिया और रामदासियां उपजातियों की आबादी बड़ी हैं, जो कुल मिलाकर करीब 24 प्रतिशत के करीब हैं. बता दें कि जो दलित चमड़े का काम करते हैं, वे रविदासिया कहलाए, मगर जिन्होंने सिख धर्म स्वीकार कर जुलाहे का काम करना शुरू कर दिया है, उन्हें रामदासिया कहा जाता है. फिर अधधर्मियों और बाल्मीकि (Balmiki) समुदाय की आबादी करीब 11 फीसद और 10 फीसद है.
पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में करीब 50 ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां पर दलितों का वोट मायने रखता है. आबादी की स्थिति से दोआबा में दलित समुदाय की तादाद ज्यादा है. दोआबा में 37 फीसदी, मालवा में 31 फीसदी और माझा में 29 फीसदी दलित आबादी है.
पंजाब में वोट बैंक क्यों नहीं बने दलित : भारत के बंटवारे के बाद से ही पंजाब और हरियाणा में अध्यात्मिक डेरे बने और समाज के उपेक्षित तबकों ने डेरों की शरण ली. डेरा सच्चा सौदा और डेरा सचखंड बल्लां समेत करीब 300 डेरों के अनुयायियों की तादाद काफी है. रविदासिया समाज में डेरा सचखंड बल्लां की बड़ी मान्यता है. मजहबी दलित के बाद रविदासिया समुदाय पंजाब का सबसे बड़ा दलित समुदाय है. पंजाब के दोआबा इलाके जालंधर, होशियारपुर, नवांशहर और कपूरथला में रविदासिया की तादाद काफी है. पंजाब की 23 विधानसभा सीटों पर रविदासिया समाज का सीधा असर है. इसमें जालंधर की 9, होशियारपुर की 6, नवांशहर की 3 और कपूरथला जिले की 4 विधानसभा सीटें शामिल हैं.
डेरों के वर्चस्व में पनप नहीं पाए दलित नेता : इसके अलावा डेरा सच्चा सौदा, राधा स्वामी सत्संग ब्यास, निरंकारी, नामधारी, दियाज्योति जागरण संस्थान, डेरा संत बनीरवाला के समर्थकों की तादाद भी ज्यादा है. पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि डेरों से 50 फीसदी दलित आबादी जुड़ी है. चुनावों में ये डेरे प्रभावी होते हैं और वहीं से दलित वोटरों का पैटर्न तय होता है. इस तरह दलित सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर बंटे रहे और इस कारण आज तक पंजाब में दलित वोट बैंक नहीं बन पाए. दलितों का सर्वस्वीकृत नेता सामने नहीं आया. हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में दलित समुदाय के हितों की बात करने वाले संस्था और संगठनों की कमी रही, इस कारण राजनीतिक स्तर पर हिस्सेदारी के सवाल पर इन राज्यों में दलित नेता और राजनीतिक दलों को फलने-फूलने का मौका मिला.
सामाजिक स्थिति भी है जिम्मेदार: पंजाब में जाट सिखों की आबादी हमेशा से सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक तौर से हावी रही है. ग्रामीण क्षेत्रों में कई स्तर पर भेदभाव भी दिखता है. जैसे दलितों के लिए अलग गुरुद्वारे और श्मशान घाट आज भी हैं. मगर सिख धर्म में एक पंगत में लंगर छकने की प्रथा उनकी भावनाओं पर मरहम भी लगाती है. विदेशों में नौकरी करने से पंजाब के एससी समुदाय में आर्थिक समृद्धि और सामाजिक गरिमा आई है. यह स्थिति भी दलित समुदाय को राजनीतिक आंदोलनों से दूर रखती है. सीएम चरणजीत चन्नी भले ही मुख्यमंत्री बनाए गए हैं, मगर उनकी स्वीकृति भी सर्वमान्य दलित नेता के तौर पर नहीं है. 2022 का विधानसभा चुनाव में दलित निर्णायक होंगे, मगर उनका वोटिंग पैटर्न पुराना ही रहेगा.
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