हाल के चुनावों में मतदान का स्वरूप जब देश भर में बहुत हद तक जाति या धार्मिक ध्रुवीकरण को दर्शाता है. ऐसे में केरल में स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान की बानगी एक राहत के रूप में आई है जो स्वागत योग्य है. भाजपा ने जिस विभाजनकारी रणनीति को अपनाया और कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा ने स्थानीय निकाय चुनाव में एक सहायक भूमिका निभाई, वह कोई सकारात्मक परिणाम देने में नाकाम रहा. लगता है कि लोगों ने माकपा के नेतृत्व वाली वाम लोकतांत्रिक सरकार के नेतृत्व में किए गए विकास कार्यों के लिए मतदान किया. केरल में एलडीएफ की शानदार जीत एलडीएफ सरकार के लिए अगले चार-पांच महीनों के भीतर होने वाले विधानसभा चुनाव का सामना करने से पहले ताकत बढ़ाने वाली खुराक है.
मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन एलडीएफ अभियान में पोस्टर फिगर थे और उनका नारा था 'वोट फॉर डेवलपमेंट' यानी विकास के मतदान. हाल के दिनों में केरल की किसी भी सरकार ने अपने नेताओं के खिलाफ इस तरह के संयुक्त हमले का सामना नहीं किया था. जब भाजपा और कांग्रेस के साथ मीडिया के एक बड़े वर्ग ने अध कचरे तथ्यों और गलत सूचना के आधार पर नफरत का अभियान चलाया तो सरकार को खासकर स्थानीय निकाय चुनाव के तीन चरणों के दौरान जनता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. चुनाव परिणाम बताते हैं कि संयुक्त विपक्ष स्थानीय निकाय चुनाव में वर्तमान शासन की ओर से किए गए सामाजिक कल्याण योजनाओं और विकास कार्यों पर परदा डालने में नाकाम रहा. चुनाव में जनता ने बड़े पैमाने पर अपने दैनिक जीवन से जुड़े मामलों पर चर्चा की.
एलडीएफ छह निगमों में से तीन पर स्पष्ट बहुमत के साथ शासन करेगा और कोच्चि और त्रिशूर दो और निगमों में निर्दलीय और बागियों के संभावित समर्थन से सत्ता छीन सकता है. जब 14 जिला पंचायतों की बात आती है तो एलडीएफ ने अपने 2015 के आंकड़ों में सुधार किया है और उनमें से 10 में जीत हासिल की है. 2015 के चुनावों के दौरान इसने केवल 7 में जीत दर्ज की थी. यहां भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) 2015 के चुनावों की तुलना में आगे रहा. उनकी गिनती दो तक पहुंच गई. वह एक और नगरपालिका जीतने में कामयाब रहा. यूडीएफ का नगर पालिका खंड में हाथ ऊपर है क्योंकि वे 45 नगरपालिका जीतने में कामयाब रहे और चार नगर पालिकाओं का भाग्य निर्दलीय उम्मीदवारों के हाथों में लटका हुआ है.
एलडीएफ ने 152 में से 112 प्रखंड पंचायतों में जीत हासिल की है. एलडीएफ ने 2015 के चुनावों के दौरान केवल 89 प्रखंड पंचायतों में जीत दर्ज किया था. यूडीएफ अब तक केवल 40 ब्लॉक पंचायतों में जीतने में कामयाब रहा है और शेष के परिणाम का इंतजार है.
कुल 941 ग्राम पंचायतों में से एलडीएफ ने 514 और यूडीएफ ने 377 और एनडीए ने 22. निर्दलीय और अन्य छोटे दलों ने 28 ग्राम पंचायतों में जीत हासिल की है.
केरल में देश की सबसे अच्छी स्थानीय निकाय प्रणाली है, जहां चीजों को बहुत ही बारीकी से समझते हुए सटीकता के साथ प्रशासन का विकेंद्रीकरण प्रभावी ढंग से किया गया है. खासकर जब राज्य आपदाओं का सामना कर रहा था तब राजनीतिक संबद्धता ऊपर उठकर स्थानीय निकायों की भागीदारी स्पष्ट रूप से देखी गई थी. जनता ने प्रशासन की ऐसी विकेंद्रीकृत प्रणाली कितना प्रभावशाली है तब देखा जब निपाह वायरस के प्रकोप ने राज्य को हिलाकर रख दिया.
केरल में विनाशकारी बाढ़ के समय में स्थानीय स्व सरकारों की ओर से फिर से सूक्ष्म स्तर के हस्तक्षेप ने वर्तमान सरकार की दक्षता पर लोगों के विश्वास को और मजबूत किया. कोविड महामारी से जब पूरी दुनिया लड़ने के तरीकों के बारे में संघर्ष कर रही थी तब केरल ने सूक्ष्म स्तर पर प्रबंधन के जरिए फिर से महामारी को नियंत्रित करने के लिए ख्याति पाई.
वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्था कष्ट के इस समय में अपने दूरदर्शी हस्तक्षेप के लाभ पा रहा है. देश में कोविड का पहला मामला सामने आने के कुछ हफ़्तों के भीतर फरवरी की शुरुआत में 20 हजार करोड़ रुपए की राहत पैकेज की घोषणा करने वाला केरल पहला राज्य बना. यह सुनिश्चित किया कि केरल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति लॉक-डाउन के दौरान मजदूरी के नुकसान के बाद भूखा नहीं रहेगा और राज्य भर में सामुदायिक रसोई की स्थापना की.
नियमित रूप से प्रत्येक व्यक्ति और हर घर को आपूर्ति सुनिश्चित की गई चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो. इसने वृद्धावस्था पेंशन राशि में बढ़ोतरी की और विभिन्न क्षेत्रों के समाज के मजदूर वर्ग के लिए कई सामाजिक कल्याण योजनाओं और राहत कोष मॉडल शुरू किए. इसने सामाजिक संगठनों, परोपकारी और गैर सरकारी संगठनों को एक छत्र के नीचे लाया और सभी राहत प्रयासों का समन्वय किया. जब मतदाताओं की आंखों के सामने इस तरह की भारी भागीदारी सही दिखी तो स्थानीय निकाय चुनावों में एलडीएफ सरकार के लिए खराब प्रदर्शन करना बहुत मुश्किल था.
स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों ने केरल में अजीबोगरीब राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है. जब चुनाव परिणाम प्रशासनिक रूप से और कुछ हद तक राजनीतिक रूप से स्वागत करते हैं, तो यह एक प्रवृत्ति का भी प्रदर्शन करता है जो उन रुझानों के समान है जो भारत के राजनीतिक परिदृश्य में देर से-बीजेपी के उदय के साक्षी रहे हैं. हालांकि केरल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाजपा बहुत अधिक अतिक्रमण नहीं कर सकी, लेकिन केरल के राजनीतिक मानस में इसकी बढ़ती उपस्थिति स्पष्ट होती जा रही है. दूसरी ओर, कांग्रेस की जिस गिरावट को देश के कई अन्य मजबूत राज्यों ने हाल के दिनों में देखा था वह यहां भी स्पष्ट है.
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राज्य की राजनीतिक राजधानी के दिल त्रिवेंद्रम निगम में कांग्रेस को खारिज कर तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया गया है. यहां कांग्रेस घटकर सिर्फ 10 वार्ड में रह गई जबकि भाजपा ने 100 वार्ड के मजबूत निगम परिषद में 35 वार्ड हासिल किए. एलडीएफ वर्ष 2020 में अपने 2015 के 43 से आंकड़े को सुधार करके संख्या 52 करके निगम पर अपने शासन को जारी रखेगा. इस चुनाव में भाजपा का एकमात्र उद्देश्य त्रिवेंद्रम निगम में सत्ता छीनना था और इसके लिए इसके नेताओं और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के इशारे पर एक शानदार योजना बनाई गई थी. हालांकि, योजना नाकाम हो गई, और बीजेपी को उसी सूची से संतुष्ट होना पड़ा जो उन्होंने 2015 के चुनावों के दौरान हासिल की थी.
हालांकि, बीजेपी कन्नूर निगम में पहली बार एक वार्ड जीतने में कामयाब रही और ग्राम पंचायतों और नगर पालिकाओं दोनों में अपनी स्थिति में सुधार करने में सफल रही. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के सुरेंद्रन ने कहा कि पार्टी के राष्ट्रीय नेता अन्य भारतीय राज्यों में जो बोल रहे हैं वहीं यहां भी गूंज रहा है कि केरल भी 'कांग्रेस मुक्त' (कांग्रेस के बिना) बन रहा है. बुधवार को एक संवाददाता सम्मेलन में सुरेंद्रन ने कहा कि आगामी विधानसभा चुनावों में केरल में एलडीएफ के लिए भाजपा मुख्य विपक्ष होगी.
केरल में कांग्रेस के लिए एक मजबूत नेतृत्व का अभाव केरल में पार्टी की संभावनाओं को बहुत बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है. इसके अलावा गुटों में तेज झड़पें हो रही हैं और नेतृत्व को लेकर अहं का टकराव है. दशकों से यूडीएफ के भरोसेमंद सहयोगी केरल कांग्रेस (एम) को खींचकर एलडीएफ में ले जाना कांग्रेस नेतृत्व के 2015 के चुनावों के समान हैं, भारतीय यूनियन मुस्लिम लीग के वोट बैंक पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जिसका मलप्पुरम, कासरगोड और वायनाड जैसे जिलों में निर्विवाद रूप से वर्चस्व है.
इस चुनाव में एक और आशा की किरण मतदाताओं का बड़े पैमाने पर युवा उम्मीदवारों को जीत दिलाना है. सभी राजनीतिक मोर्चों ने युवा उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जिनमें से कुछ 21 वर्ष के युवा हैं और उनमें से अधिकांश अपने पुराने समकक्षों पर जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं. अधिकांश राजनीतिक मोर्चों पर मैदान में उतरे मेयर प्रत्याशी जो काफी पुराने हैं उन्हें युवा विपक्षी उम्मीदवारों ने पराजित किया जो युवा रक्त के पक्ष में राजनीतिक राय को स्पष्ट तौर पर दर्शाता है.
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यह भी स्पष्ट है कि मतदाता अपने फैसले देते समय पार्टियों के बड़े नेताओं द्वारा दिए गए राजनीतिक बयानों को उत्सुकता से देख रहे हैं. एलडीएफ पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चांडी के निर्वाचन क्षेत्र पुथुपल्ली पंचायत को जीतने में कामयाब रहा, जिस पर कांग्रेस पिछले 25 वर्षों से शासन कर रही थी. एलडीएफ उम्मीदवार ने मुल्लापल्ली रामचंद्रन केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) के अध्यक्ष और विपक्ष के नेता रमेश चेन्निथला के वार्ड में भी जीत दर्ज की.
इस चुनाव के दौरान मतदान केंद्रों की ओर जाने से पहले केरल के मतदाताओं ने अच्छा होमवर्क किया था. घृणा अभियान, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के राजनीतिक आरोपों के बावजूद, एलडीएफ जमीनी स्तर के मतदाताओं को विकास के अपने लक्ष्य को बताने में कामयाब रहा.
सोशल मीडिया ने सूचना के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपरंपरागत मीडिया घरानों जैसे डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मों ने भी मतदाताओं को स्थानीय स्व सरकारों और राज्य सरकार के प्रदर्शन को ध्यान में रखने में मदद करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई.
केरल माकपा में निर्विवाद और सबसे बड़े नेता के रूप में पिनारयी विजयन की प्रमुखता एक बार फिर स्पष्ट हो गई है. एलडीएफ अब नए सिरे से विधानसभा चुनाव की ओर अग्रसर होगा. यूडीएफ और एनडीए शिविरों को वर्तमान शासन के लगातार दूसरे कार्यकाल को रोकने के लिए अधिक संभावित हथियारों की तलाश करनी होगी.