शिमला : भारत परंपराओं का देश है, यहां कई परंपराओं का जिक्र सुनकर आस्था में सिर झुक जाता है तो कुछ परंपराएं इतनी अनोखी होती हैं, जिनके बारे में सुनकर कोई भी दंग रह जाए. हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में एक ऐसी ही परंपरा निभाई जाती है, जिसे सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे. दरअसल यहां दिवाली के एक दिन बाद पत्थरबाजी की परंपरा है. दो टोलियों में लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं और किसी के घायल होने पर ही ये पत्थरबाजी रुकती है. दिवाली के अगले दिन सोमवार को ये परंपरा एक बार फिर निभाई गई. इस परंपरा के पूरी कहानी आपको बताते हैं.
कहां होती है ये परंपरा- हिमाचल की राजधानी शिमला से करीब 30 किलोमीटर दूर धामी क्षेत्र के हलोग इलाके में लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं. हर साल दिवाली के अगले दिन ये परंपरा निभाई जाती है. इसे पत्थर का मेला कहा जाता है. सोमवार 13 नवंबर को भी दो गांवों के लोगों ने पत्थरबाजी की और इस परंपरा को निभाया. इस दौरान उस इलाके में मानो पत्थर की बारिश हो रही हो. लोग एक दूसरे की तरफ आसमान में पत्थर बरसा रहे थे.
किसी के लहूलुहान होने पर रुकती है पत्थरबाजी- इस पत्थरबाजी में किसी एक शख्स के घायल होने और खून निकलने पर ही ये पत्थरबाजी बंद होती है. लेखक एस. आर. हरनोट बताते हैं कि "इस पत्थरबाजी में जैसे ही कोई घायल होता है तो तीन महिलाएं अपने दुपट्टे को लहराती हुई आती हैं, जो पत्थरबाजी को रोकने का संकेत है." सोमवार को हुए इस पत्थर मेले में दोनों टोलियों के बीच करीब 40 मिनट की पत्थरबाजी हुई. अंत में गलोग गांव के युवक दिलीप वर्मा को पत्थर लगने के बाद ये पत्थरबाजी रुकी और युवक के खून को परंपरा के मुताबिक भद्रकाली को अर्पित किया गया.
क्यों होती है ये पत्थरबाजी- एस. आर. हरनोट के मुताबिक "इस परंपरा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है लेकिन मान्यता है कि राजाओं के दौर में धामी रियासत में स्थित भद्रकाली मंदिर में मानव बलि का रिवाज था. रियासत के राजा की मौत के बाद जब रानी ने सती होने का फैसला लिया तो उन्होंने यहां होने वाली मानव बलि पर रोक लगाने का आदेश दिया था. जिसके बाद एक भैंसे को लाकर उसका कान काटकर छोड़ दिया जाता था और माता भद्रकाली को सांकेतिक रूप से पशु बलि दी जाती थी. मान्यता है कि माता द्वारा पशु बलि स्वीकार ना करने पर इस पत्थर के खेल की शुरुआत हुई जो आज भी चला आ रहा है".
तभी से इस पत्थरबाजी में घायल हुए शख्स का खून भद्रकाली को चढ़ाया जाता है. इस इलाके में ही एक सती स्मारक भी बना है. मान्यता है कि नरबलि पर रोक लगाने वाली रानी यहीं पर सती हुई थी. पत्थर मेले में घायल हुए व्यक्ति के लहू का तिलक इस स्मारक पर भी लगाया जाता है. रानी ने सती होने से पहले नरबलि को रोकने का जो आदेश दिया, उसके बाद से यहां ये पत्थर मेला होता है.
राजपरिवार करता है पत्थरबाजी की शुरुआत- इस मेले की शुरुआत राज परिवार के सदस्यों द्वारा की जाती है. राज परिवार के प्रतिनिधि भगवान नृसिंह, माता सती और माता भद्रकाली की पूजा के बाद इस खेल को शुरू करते हैं. ढोल नगाड़ों के साथ राज परिवार के लोग पहला पत्थर फेंककर पत्थर मेले की शुरुआत करते हैं, फिर एक निश्चित स्थान पर बैठकर पत्थरबाजी के इस खेल को देखते हैं. इस पत्थर मेले में सिर्फ दो ही टोलियां होती हैं. एक टोली में राजपरिवार, धगोई, तुनडू, कटेडू, जठौति और दूसरी तरफ से जमोगी टोली के लोग होते है. इनके अलावा बाकी किसी को भी इस खेल में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं होती, अन्य सभी लोग सिर्फ इस परंपरा को देखते हैं. हर साल हजारों लोग इस मेले को देखने आते हैं.
राजपरिवार के सदस्य कंवर जगदीप सिंह के मुताबिक "इस मेले का आयोजन धामी क्षेत्र की खुशहाली के लिए किया जाता है. इस मेले को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. आज तक इस मेले में हिस्सा लेने वाले लोग पत्थर से चोट लगने की परवाह नहीं करते. इस पत्थर मेले में खून निकलने को लोग अपना सौभाग्य समझते हैं. किसी व्यक्ति के खून निकलने पर उसका तिलक मंदिर में किया जाता है."
एस. आर. हनोट कहते हैं कि इस पत्थर मेले को देखकर या इसके बारे में सुनकर आज कई लोग इसपर सवाल उठा सकते हैं लेकिन दिवाली के अगले दिन होने वाली ये पत्थरबाजी धामी इलाके की परंपरा का हिस्सा है. हर साल इसका आयोजन होता है और बकायदा मेला लगता है. पुराने समय में हर घर से एक व्यक्ति का इस मेले में पहुंचना होता था लेकिन समय के साथ-साथ अब इसकी बाध्यता नहीं है. इसके बावजूद भी यहां हजारों लोग पहुंचते हैं और नरबलि के खिलाफ एक रानी के दिए आदेश को आज भी निभाते हैं.
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