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'जम्मू कश्मीर को लेकर नेहरू के रवैये से खुश नहीं थे पटेल और मुखर्जी' - जयशंकर नेहरू पटेल

Why Bharat Matters : विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर की किताब बुधवार को लॉन्च हुई है. इस किताब में उन्होंने पाकिस्तान, चीन और अमेरिका से भारत के रिश्तों का जिक्र किया है. जयशंकर ने लिखा है कि पटेल और मुखर्जी जम्मू कश्मीर को लेकर नेहरू के रवैये से खुश नहीं थे. Patel and Mokerjee not happy, Dr Jaishankar on Nehru.

Dr Jaishankar
विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jan 4, 2024, 9:36 PM IST

नई दिल्ली : विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर ने अपनी नई लॉन्च की गई पुस्तक 'व्हाई भारत मैटर्स' (Why Bharat Matters) में पिछले दशक में भारत की विदेश नीति में बदलाव, पाकिस्तान, चीन, अमेरिका के साथ संबंध, नए मित्रों/सहयोगियों के उद्भव और नेहरूवादी युग के बारे में विस्तार से बताया है.

अपने एक चैप्टर में विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत के संबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 'नेहरू के आलोचकों को लगा कि उन्होंने झूठी अंतरराष्ट्रीयता की भावना रखी जो राष्ट्रीय हित की कीमत पर आई.'

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंधों पर जो मोदी युग में एक शानदार परिवर्तन देख रहा है विदेश मंत्री लिखते हैं 'उनका (नेहरू का) दृष्टिकोण वामपंथी विरोध का प्रतिरूपण प्रतीत होता है जो ब्रिटेन के कुछ हलकों में बहुत लोकप्रिय था.'

'पाकिस्तान और चीन पर नेहरू का भोलापन' : जयशंकर ने यह भी उल्लेख किया है कि पाकिस्तान और चीन पर नेहरू का 'भोलापन' और पश्चिम के प्रति उनकी झिझक/नापसंदगी एक तथ्य है जिस पर नेहरू के अंदरूनी हलकों और विशेष रूप से सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा बहस की जा रही थी.

जम्मू कश्मीर को लेकर नेहरू के व्यवहार पर वह लिखते हैं, 'जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण का जिक्र संयुक्त राष्ट्र में करने को लेकर नेहरू और पटेल के बीच मतभेद थे.' उन्होंने यह भी लिखा है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी जम्मू-कश्मीर को संभालने के नेहरू के तरीके से खुश नहीं थे. उन्होंने लिखा, 'हम सभी जानते हैं कि जब जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से मुख्यधारा में एकीकृत नहीं हुआ तो यह आर्थिक, विकासात्मक, सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से कितना हानिकारक रहा है. जब 5 अगस्त 2019 को इसे निर्णायक रूप से सुधारा गया, तो जाहिर तौर पर हमारी राष्ट्रीय एकता और अधिक मजबूत होकर उभरी. लेकिन विदेश नीति के नजरिए से जांचने लायक बात यह है कि भारत के मुकाबले बाहरी शक्तियों ने इस मुद्दे का कैसे फायदा उठाया.'

उन्होंने कहा कि '1953 में मुखर्जी ने प्रधानमंत्री नेहरू को बताया कि कश्मीर समस्या से निपटने से न तो हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी और न ही हमें व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन और सहानुभूति मिली... उन्होंने नेहरू से झूठे अंतरराष्ट्रीयवाद से दूर जाने के बजाय निष्पक्षता से नीति की फिर से जांच करने का आग्रह किया.'

उन्होंने कहा कि 'दूसरा मुद्दा इजरायल को मान्यता देने और पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने में हिचकिचाहट से संबंधित है. पटेल, नेहरू पर वोट बैंक के दबाव से स्पष्ट रूप से असहज थे और उनका मानना ​​था कि राष्ट्रीय नीति के निर्माण में इसे निर्णायक भूमिका नहीं दी जानी चाहिए.' जयशंकर यह भी लिखते हैं कि आज भारत उन्हीं रास्तों पर चल रहा है जिन्हें पहले नेहरू ने अस्वीकार कर दिया था.

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अपने एक चैप्टर में विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत के संबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 'नेहरू के आलोचकों को लगा कि उन्होंने झूठी अंतरराष्ट्रीयता की भावना रखी जो राष्ट्रीय हित की कीमत पर आई.'

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंधों पर जो मोदी युग में एक शानदार परिवर्तन देख रहा है विदेश मंत्री लिखते हैं 'उनका (नेहरू का) दृष्टिकोण वामपंथी विरोध का प्रतिरूपण प्रतीत होता है जो ब्रिटेन के कुछ हलकों में बहुत लोकप्रिय था.'

'पाकिस्तान और चीन पर नेहरू का भोलापन' : जयशंकर ने यह भी उल्लेख किया है कि पाकिस्तान और चीन पर नेहरू का 'भोलापन' और पश्चिम के प्रति उनकी झिझक/नापसंदगी एक तथ्य है जिस पर नेहरू के अंदरूनी हलकों और विशेष रूप से सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा बहस की जा रही थी.

जम्मू कश्मीर को लेकर नेहरू के व्यवहार पर वह लिखते हैं, 'जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण का जिक्र संयुक्त राष्ट्र में करने को लेकर नेहरू और पटेल के बीच मतभेद थे.' उन्होंने यह भी लिखा है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी जम्मू-कश्मीर को संभालने के नेहरू के तरीके से खुश नहीं थे. उन्होंने लिखा, 'हम सभी जानते हैं कि जब जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से मुख्यधारा में एकीकृत नहीं हुआ तो यह आर्थिक, विकासात्मक, सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से कितना हानिकारक रहा है. जब 5 अगस्त 2019 को इसे निर्णायक रूप से सुधारा गया, तो जाहिर तौर पर हमारी राष्ट्रीय एकता और अधिक मजबूत होकर उभरी. लेकिन विदेश नीति के नजरिए से जांचने लायक बात यह है कि भारत के मुकाबले बाहरी शक्तियों ने इस मुद्दे का कैसे फायदा उठाया.'

उन्होंने कहा कि '1953 में मुखर्जी ने प्रधानमंत्री नेहरू को बताया कि कश्मीर समस्या से निपटने से न तो हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी और न ही हमें व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन और सहानुभूति मिली... उन्होंने नेहरू से झूठे अंतरराष्ट्रीयवाद से दूर जाने के बजाय निष्पक्षता से नीति की फिर से जांच करने का आग्रह किया.'

उन्होंने कहा कि 'दूसरा मुद्दा इजरायल को मान्यता देने और पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने में हिचकिचाहट से संबंधित है. पटेल, नेहरू पर वोट बैंक के दबाव से स्पष्ट रूप से असहज थे और उनका मानना ​​था कि राष्ट्रीय नीति के निर्माण में इसे निर्णायक भूमिका नहीं दी जानी चाहिए.' जयशंकर यह भी लिखते हैं कि आज भारत उन्हीं रास्तों पर चल रहा है जिन्हें पहले नेहरू ने अस्वीकार कर दिया था.

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