नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दोषी साबित होने तक निर्दोष माने जाने वाले अभियुक्तों पर लंबी सुनवाई का तनाव भी महत्वपूर्ण हो सकता है: जैसे- नौकरी या आवास का नुकसान, व्यक्तिगत संबंधों को नुकसान, कानूनी फीस का वित्तीय बोझ, और साथ ही लंबी अवधि के लिए कोई वित्तीय मुआवजा नहीं.
शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अगर कोई आरोपी व्यक्ति दोषी नहीं पाया जाता है, तो उसे कई महीनों तक कलंकित किया जा सकता है और शायद अपने समुदाय में बहिष्कृत भी किया जा सकता है.
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने नक्सली सामग्री ले जाने के आरोप में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किए गए तपस कुमार पालित को शुक्रवार (14 फरवरी) को जमानत देते समय यह टिप्पणी की, जिन्हें 24 मार्च 2020 को छत्तीसगढ़ में गिरफ्तार किया गया था.
पीठ ने मामले की सुनवाई में अत्यधिक देरी पर जोर देते हुए कहा, "हम कहेंगे कि देरी अभियुक्तों के लिए बुरी है और पीड़ितों के लिए, भारतीय समाज के लिए और हमारी न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए बहुत बुरी है, जिसे महत्व दिया जाता है."
पीठ ने अपने फैसले में कहा कि जज अपने कोर्टरूम के कर्ताधर्ता (masters) होते हैं और दंड प्रक्रिया संहिता न्यायाधीशों को मामलों को कुशलतापूर्वक आगे बढ़ाने के लिए हथियार की तरह होती है. पीठ ने कहा कि ऐसा लग सकता है कि अदालत कुछ दिशा-निर्देश दे रही है, लेकिन देरी और जमानत के इस मुद्दे पर सही और उचित परिप्रेक्ष्य में विचार करने का समय आ गया है.
पीठ ने कहा कि अगर किसी आरोपी को विचाराधीन कैदी के रूप में छह से सात साल जेल में रहने के बाद अंतिम फैसला मिलना है, तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई के उसके अधिकार का उल्लंघन हुआ है.
यह भी पढ़ें- वरिष्ठ नागरिक बच्चों से भरण-पोषण पाने के हकदार नहीं, अगर..., हाईकोर्ट का अहम फैसला