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'आप' की सुनामी में नहीं टिका संयुक्त समाज मोर्चा पार्टी का एक भी उम्मीवार, सभी की जमानत जब्त

केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों वापस लेने के बाद किसानों ने पंजाब के विधानसभा चुनावों में ताल ठोंक दी. सभी को लग रहा था कि किसानों की यह पार्टी, पंजाब के विधानसभा चुनाव में हो रहे पंचकोणीय मुकाबले में किसी ना किसी सियासी दल का समीकरण तो खराब जरूर करेगी. लेकिन पार्टी कोई करिश्मा करने में नाकाम रही.

farmers party candidates not register victory
संयुक्त समाज मोर्चा उम्मीदवारों की जमानत जब्त
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Published : Mar 10, 2022, 10:13 PM IST

पंजाब: इस बार पंजाब विधानसभा चुनावों में पांच सियासी दल सीधे-सीधे चुनावी मैदान में थे. लेकिन इनमें खासतौर पर जिस पार्टी की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही थी वह थी किसानों की पार्टी संयुक्त समाज मोर्चा. क्योंकि केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने एक साल तक आंदोलन किया था, जिसके बाद पंजाब के विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेकर एक बड़ा कदम उठाया. इसके बाद ही किसानों ने आंदोलन समाप्त किया था.

वहीं केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों वापस लेने के बाद किसानों ने पंजाब के विधानसभा चुनावों में ताल ठोंक दी. सभी को लग रहा था कि किसानों की यह पार्टी, पंजाब के विधानसभा चुनाव में हो रहे पंचकोणीय मुकाबले में किसी ना किसी सियासी दल का समीकरण तो खराब जरूर करेगी. लेकिन पार्टी ऐसा कोई करिश्मा करने में नाकाम रही और किसानों की पार्टी का कोई भी उम्मीदवार विधानसभा के दरवाजे तक नहीं भी पहुंच पाया.

इससे, किसी पार्टी के समीकरण तो खराब नहीं हुए, लेकिन संयुक्त समाज मोर्चा खुद ही पूरी तरह से धराशाई हो गई. और तो और पंजाब विधानसभा चुनाव में किसानों की पार्टी का कोई भी चेहरा विजयी नहीं हो पाया. यहां तक कि पार्टी के सीएम चेहरे के उम्मीदवार बलवीर सिंह राजेवाल भी अपनी सीट नहीं बचा पाए और वह भी बुरी तरह से चुनावी मैदान में पस्त हो गए. बलबीर सिंह राजेवाल को 4600 से कुछ ही अधिक वोट मिले और वे खुद की जमानत तक नहीं बचा पाए. इसके साथ ही पार्टी के अन्य सभी उम्मीदवार भी अपनी जमानत बचाने में कामयाब नहीं हो सके.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर किसानों की हक की बात करने वाली पार्टी और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के बाद सियासी मैदान में उतरी पार्टी का यह हाल क्यों हुआ? क्या जनता उनके चुनावी मैदान में उतरने की वजह से उनके खिलाफ हो गई ? या फिर जिस एजेंडे के तहत पार्टी बनी थी उसे ही जनता ने नकार दिया?

यह भी पढ़ें-पंजाब में बसपा का खुला खाता, नवांशहर में मिली जीत

इन सवालों के जवाब में सियासी मामलों के जानकार प्रोफेसर गुरमीत सिंह कहते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर किसानों की लड़ाई चल रही थी वह अभी तक पूरी तरह से खत्म नहीं हुए हैं. ऐसे में किसानों का सियासी दल बनाना, आंदोलन से जुड़े ज्यादातर किसानों को रास नहीं आया. खासतौर पर पंजाब का सबसे बड़ा किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन एकता भी (उगराहां) इससे दूर रहा. ऐसे में जो जमीनी स्तर के किसान थे उन्होंने इस पार्टी से नहीं जुड़ना मुनासिब नहीं समझा. वहीं किसानों की इस पार्टी में ज्यादातर वही किसान नेता थे जिनकी राजनीतिक इच्छाएं अक्सर हिलोरें लेती रहती थीं जो पार्टी की हार का एक बड़ा कारण बना.

पंजाब: इस बार पंजाब विधानसभा चुनावों में पांच सियासी दल सीधे-सीधे चुनावी मैदान में थे. लेकिन इनमें खासतौर पर जिस पार्टी की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही थी वह थी किसानों की पार्टी संयुक्त समाज मोर्चा. क्योंकि केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने एक साल तक आंदोलन किया था, जिसके बाद पंजाब के विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेकर एक बड़ा कदम उठाया. इसके बाद ही किसानों ने आंदोलन समाप्त किया था.

वहीं केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों वापस लेने के बाद किसानों ने पंजाब के विधानसभा चुनावों में ताल ठोंक दी. सभी को लग रहा था कि किसानों की यह पार्टी, पंजाब के विधानसभा चुनाव में हो रहे पंचकोणीय मुकाबले में किसी ना किसी सियासी दल का समीकरण तो खराब जरूर करेगी. लेकिन पार्टी ऐसा कोई करिश्मा करने में नाकाम रही और किसानों की पार्टी का कोई भी उम्मीदवार विधानसभा के दरवाजे तक नहीं भी पहुंच पाया.

इससे, किसी पार्टी के समीकरण तो खराब नहीं हुए, लेकिन संयुक्त समाज मोर्चा खुद ही पूरी तरह से धराशाई हो गई. और तो और पंजाब विधानसभा चुनाव में किसानों की पार्टी का कोई भी चेहरा विजयी नहीं हो पाया. यहां तक कि पार्टी के सीएम चेहरे के उम्मीदवार बलवीर सिंह राजेवाल भी अपनी सीट नहीं बचा पाए और वह भी बुरी तरह से चुनावी मैदान में पस्त हो गए. बलबीर सिंह राजेवाल को 4600 से कुछ ही अधिक वोट मिले और वे खुद की जमानत तक नहीं बचा पाए. इसके साथ ही पार्टी के अन्य सभी उम्मीदवार भी अपनी जमानत बचाने में कामयाब नहीं हो सके.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर किसानों की हक की बात करने वाली पार्टी और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के बाद सियासी मैदान में उतरी पार्टी का यह हाल क्यों हुआ? क्या जनता उनके चुनावी मैदान में उतरने की वजह से उनके खिलाफ हो गई ? या फिर जिस एजेंडे के तहत पार्टी बनी थी उसे ही जनता ने नकार दिया?

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इन सवालों के जवाब में सियासी मामलों के जानकार प्रोफेसर गुरमीत सिंह कहते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर किसानों की लड़ाई चल रही थी वह अभी तक पूरी तरह से खत्म नहीं हुए हैं. ऐसे में किसानों का सियासी दल बनाना, आंदोलन से जुड़े ज्यादातर किसानों को रास नहीं आया. खासतौर पर पंजाब का सबसे बड़ा किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन एकता भी (उगराहां) इससे दूर रहा. ऐसे में जो जमीनी स्तर के किसान थे उन्होंने इस पार्टी से नहीं जुड़ना मुनासिब नहीं समझा. वहीं किसानों की इस पार्टी में ज्यादातर वही किसान नेता थे जिनकी राजनीतिक इच्छाएं अक्सर हिलोरें लेती रहती थीं जो पार्टी की हार का एक बड़ा कारण बना.

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