गोरखपुर: शहर के अधियारीबाग मोहल्ले में स्थित 'नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान' पांडुलिपियों का संग्रह स्थल है. करीब 44 वर्ष पुराने इस प्रतिष्ठान में 5 हजार से अधिक पांडुलिपियां रखी गई हैं. इनमें से कुछ पांडुलिपियां विदेशों से खरीदकर भी लाई गई हैं. इनमें नागरी, प्रोटो नागरी, बांग्ला, प्रोटो बंगाली, मैथिली, अवधि आदि दो सौ से 12 साल तक पुरानी पांडुलिपियां यहां संरक्षित हैं. आचार्य असंग की 'श्रावक भमि' और कंबलपाद की 'हेरुक साधन पंजिका' भी सम्मिलित है. यह दोनों पांडुलिपियां 7वीं और 8वीं शताब्दी की हैं.
नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान गोरखपुर विश्वविद्यालय (nagarjuna buddhist foundation gorakhpur university) में संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष रहे प्रोफेसर कमलेश शुक्ला की संस्था है. उन्होंने पांडुलिपियों को एक वृहद संग्रह केंद्र के रूप में स्थापित किया, जो गोरखपुर में देखने को मिलता है. 80 वर्ष की उम्र में भी कमलेश शुक्ला अपने सहयोगी डॉ. रामचंद्र मिश्र के साथ इन पांडुलिपियों के संग्रह और संरक्षा में जुटे हुए हैं, जो लिपियों और साहित्य को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए एक शोध का केंद्र बन गया है.
प्रोफेसर कमलेश शुक्ला ने बताया कि पांडुलिपियों के संग्रह और संरक्षण की शुरुआत उन्होंने अपनी संस्था की स्थापना 1987 में करने के साथ की थी. इसके लिए उन्होंने मिथिला और जम्मू में रहने वाले कुछ ऐसे साथियों से संपर्क साधा जो पांडुलिपि संग्रहण के कार्य से जुड़े हुए थे. ऐसे लोगों की मदद से 5 वर्ष में प्रतिष्ठान करीब 5 हजार पांडुलिपियों का संग्रहालय बन गया. मौजूदा समय में इसमें रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, वेद, आयुर्वेद, व्याकरण, तंत्र, ज्योतिष विज्ञान की ऐतिहासिक पांडुलिपियों का संरक्षण किया जा रहा है. इसी के चलते आज के समय में संग्रहालय 16 हजार किताबों की लाइब्रेरी बन चुका है.
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इस बौद्ध संग्रहालय के प्रधान संरक्षक की भूमिका में दलाई लामा हैं. प्रोफेसर शुक्ला ने बताया कि प्रतिष्ठान की तरफ से समय पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जाती रही हैं. ऐसी दो संगोष्ठी में शिरकत करने के लिए दलाई लामा भी 1981 और 1998 में गोरखपुर आ चुके हैं. इस प्रतिष्ठान को राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन 2005 से मदद मिलती रही है. लेकिन, सरकार को इसे सर्व सुलभ बनाने के लिए संरक्षण पर जोर देना पड़ेगा.
प्रतिष्ठान में रखी गईं पांडुलिपियों के पेज इतने पुराने और जर्जर हैं कि इन्हें संभालना भी बड़ी जिम्मेदारी है. इन्हें संभालने का कार्य डॉ. रामचंद्र मिश्र करते हैं. जिन्होंने पीएचडी की डिग्री लेने के बाद अध्यापन कार्य तो किया, लेकिन इस कार्य से प्रभावित होकर उन्होंने राजधानी लखनऊ के बाद केंद्रीय संस्था से पांडुलिपि संरक्षण की ट्रेनिंग ली.
पांडुलिपि का मतलब
पांडुलिपि वह प्राचीन दस्तावेज है, जो हस्तलिखित होता है. प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जब विचार मीमांसा करते थे तो उनके विचार को भूमि पर खड़िया या मिट्टी से लिख दिया जाता था और बाद में यह क्रम दीवारों, लकड़ी की पत्तियों और ताड़पत्रों पर होने लगा. जब कागज का दौर आया तो विचार कागजों पर उतरने लगे. छापाखाना के आविष्कार होने तक विचारों को दस्तावेजी रूप देने का यही प्रारूप पांडुलिपि कहलाया.
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