भोपाल। रात साढ़े तीन बजे उनका दिन ऊग आता है. दिन की शुरुआत प्रार्थना से होती है कि रात सोते समय करवट लेते भी अगर किसी जीव को कष्ट पहुंचा हो तो क्षमा. इस प्रार्थना में अनजाने में हुई किसी भी गलती का पश्चाताप भी शामिल रहता है. भोजन, पानी सब खड़े रहकर ग्रहण करते हैं. एक बार में जितना अंजुरी में आ जाए उतना भोजन. भोजन का थाल नहीं सजाया जाता. एकाहार के इस व्रत में दिन में एक ही बार भोजन पानी लेने का विधान है. कंडे की राख हाथों में मलकर दो महीने के भीतर अपने हाथों से अपने केश खींचकर निकाले जाते हैं, सिर के बाल भी और दाड़ी मूंछे भी. कष्ट का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. भारी जाड़े में भी केवल एक चटाई का उपयोग जिसे ओढ़ना भी है बिछाना भी. जिस दिन पैरों में खड़े रह पाने की ताकत नहीं बचती शरीर छोड़ने सल्लेखना समाधि की ओर बढ़ जाते है. ये कठिन तपस्या जैन मुनि हिमालय पर जाकर, नहीं जनता के बीच रहकर करते हैं. कैसे संभव हो पाता है. कौन सी शक्ति है जो उन्हें हर दिन ऐसी कठिन तपस्या को पूरा करने का बल देती है. इस कठिन तपस्या से क्या पाना चाहते हैं ये जैन मुनि.
जैन मुनि हर दिन साढ़े तीन बजे क्यों उठते हैं: जैन मुनि के रुप में कठिन तप कर रहे मुनि अजित सागर महाराज को घर द्वार छोड़े हुए 23 वर्ष से ज्यादा का समय बीत चुका है. मध्यप्रदेश के ही सागर जिले के रहने वाले विनोद कुमार जी अब अजित सागर महाराज हैं. जो जैन मुनि की कठिन तपस्या में पूरी तरह से खुद को बांध चुके हैं. अजित सागर महाराज की कठिन दिनचर्या रात साढे़ तीन बजे शुरु हो जाती है. वे बताते हैं कि ''साढ़े तीन बजे से जागकर मैं ही नहीं कोई भी जैन मुनि ध्यान करता है. ये प्रतिक्रमण का समय होता है. प्रतिक्रमण यानि सभी जीवों के प्रति सद्भावना दिखाना. अगर करवट लेते हुए भी किसी जीव को कष्ट हुआ हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थना करते हैं. अपने से जाने अनजाने हुई गलतियों के लिए क्षमा प्रार्थी होते हैं. इस समय हम अपने पापों की क्षमा मांगते हैं. और 24 तीर्थंकरों के गुणों की स्तुति करते हैं.''
बर्तन में नहीं अंजुरी में भोजन पानी: जैन मुनियों के लिए कोई थाल नहीं सजता. जैन मुनि बन जाने के दिन से बर्तन का भी त्याग कर देते हैं जैन मुनि. जितना अंजुरी में आए उतना भोजन ग्रहण और उतना ही पानी पीते हैं. वो भी एकाहार. यानि दिन में एक ही बार. ये भोजन भी जैन मुनि खड़े होकर ही करते हैं. दिन में जिस समय भोजन लेते हैं, उसके बाद ना भोजन ना पानी. अब आहार दूसरे दिन उसी निश्चत समय पर और अंजूरी में ही.
चलते समय 4 हाथ तक क्यों देखते हैं जैन साधु: जैन मुनि शब्द से लेकर व्यवहार, यहां तक की अपनी चलने में भी अहिंसा व्रत का पालन करते हैं. कभी कोई जैन मुनि वाहन में नहीं बैठते कभी. हमेशा नीचे देखकर चार हाथ की दूरी पर निगाह रखते हैं कि कही उनके चलने में अनजाने में कोई हिंसा तो नहीं हो रही है. कोई जीव जंतु तो पैरों में नहीं आया. यही वजह है कि दिन ऊगने के बाद से ही जैन मुनि चलना शुरु करते हैं. और दिन जहां ढले वहीं ठहर जाते हैं. जैन मुनि अजित सागर महाराज बताते हैं कि ''एक बार विदिशा से भोपाल आते हुए मुझे कुरवाई के पास रुक जाना पड़ा. दिन ढल गया था, जाड़े के दिन थे. बहुत तेज ठंड पड़ रही थी. मैं चौराहे पर ही रोडवेज के पुल के नीचे रुक गया. रात्रि विश्राम वहीं खुले में पुल के नीचे किया. जैन मुनि अजित सागर महाराज कहते हैं कितना ही जाड़ा हो जैन मुनि एक कपड़ा भी शरीर पर नहीं डालते. बहुत ठंड हुई तो जो चटाई बिछाते हैं उसी को ओढ सकते हैं.''
हाथों से खींचकर निकालते हैं बाल: हर दो महीने में जैन मुनियों को कैश लोचन करना होता है. ये उत्कृष्ट विधा है यानि इतने समय में करना आदर्श स्थिति है. फिर मध्यम तीन महीने में और जघन्य चार माह में. अजित सागर महाराज बताते हैं कि ''गोबर की कंडी की राख हम हाथों में मल लेते हैं ताकि बाल हाथों में आसानी से पकड़ में आ जाएं. और दाड़ी मूंछ से लेकर सिर के बाल तक खींच खींच कर निकाल लेते हैं.''
पैरों में शक्ति नहीं तो देह त्याग सल्लेखना का समय: जैन मुनि अजित सागर महाराज बताते हैं कि ''अगर पैरों में चलने फिरने खड़े रहने की शक्ति बाकी नहीं रहती. तो ये मान लिया जाता है कि वृद्धावस्था आ चुकी है. जब तक सामर्थ्य है तब तक तपस्या वरना सल्लेखना, यानि धीरे धीरे देह त्याग.'' जब उनसे पूछा गया कि बीमारी के समय भी इलाज नहीं करवाते आप. जैन मुनि अजीत सागर महाराज कहते हैं ''इलाज स्वयं करते हैं, आर्युवेद की दवाएं ले लेते हैं, अंग्रेजी दवाईयां नहीं. वो भी जिस समय आहार लेंगे उसी समय. बाकी कोई जैन मुनि कभी अस्पताल में भर्ती नहीं होता. कभी किसी को इंजेक्शन नहीं लगता. शरीर साथ छोड़ता है तो सल्लेखना की ओर अग्रसर हो जाता है जैन मुनि.''