दरभंगा : जब दुनिया पृथ्वी को चपटी समझ रही थी, धरती का चक्कर सूरज लगाता है बता रही थी, उस वक्त दरभंगा में बैठा एक विद्वान 'बांस की फोंफियों' से देखकर खगोलीय घटना की गणना कर रहा था. आज से ठीक 400 साल पहले उसने अपनी विलक्षण गणना के आधार पर जो चंद्र और सूर्य ग्रहण (Solar Eclipse and Lunar Eclipse) पर जो लिखा वो आज भी अक्षरस: घट रही है और आगामी 700 साल तक घटने का दावा किया जा रहा है.
हेमांगद ठाकुर लिखित किताब 'ग्रहणमाला' में 1088 साल के चंद्र और सूर्य ग्रहण का विश्लेषण है. ये पुस्तक अब भी महाराजा कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय (Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University) के पास है. 1983 में विश्वविद्यालय की ओर से इस पुस्तक का प्रकाशन करवाया गया था. भारत के विद्वान धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्र के क्षेत्र में इस पुस्तक को एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं.
भारतीय समय के अनुसार सूर्यग्रहण 4 दिसंबर दिन शनिवार को पूर्वाह्न 10 बज कर 59 मिनट पर साल का अंतिम सूर्य ग्रहण शुरू हुआ और अपराह्न 3 बज कर 7 मिनट तक रहा. हालांकि, यह भारत में नहीं दिखाई दिया. ऐसे में एक बार फिर इस पुस्तक को लेकर चर्चा शुरू हो गई. इस दुर्लभ पुस्तक 'ग्रहणमाला' के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए ईटीवी भारत ने राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि के पूर्व कुलपति और पूर्व ज्योतिष विभागाध्यक्ष डॉ. रामचंद्र झा (Dr. Ramchandra Jha) से बात की.
इस दौरान रामचंद्र झा ने कहा कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ग्रहणमाला नामक एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें 1088 वर्षों तक सूर्य और चंद्र ग्रहणों की गणना की गई है. इसमें अभी भी आने वाले करीब 688 वर्षों में लगने वाले सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के बारे में करीब-करीब सटीक जानकारी (information about eclipse up to 1088 years) मिलती है. उन्होंने बताया कि ये पुस्तक 400 साल पहले लिखी गई थी. ग्रहण माला के रचयिता महामहोपाध्याय हेमांगद ठाकुर हैं. इसमें करीब 1100 वर्षों तक लगने वाले सूर्य-चंद्र ग्रहण के बारे में गणना की गई है.
'ग्रहणमाला एक ऐसी उपयोगी पुस्तक है जिसमें चंद्र और सूर्य ग्रहण पर लिखी गई तारीख और समय इतना सटीक है कि कोई भी ग्रहण पुस्तक में दर्शाए गए समय पर ही घटित होता है. यहां तक इस पुस्तक में ये भी लिखा हुआ है कि वो ग्रहण भारत में दिखेगा या नहीं'- प्रो. लक्ष्मीकांत झा, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, संस्कृत विवि
दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर लक्ष्मीकांत झा बताते हैं कि हेमांगद ठाकुर की ग्रहणमाला पुस्तक इतनी सटीक है कि दुनिया के किसी भी कोने में ग्रहण हो उसका उल्लेख इसमें जरूर मिलेगा. इस पुस्तक में ये भी लिखा है कि कौन सा ग्रहण भारत में दिखेगा और कौन नहीं दिखेगा. इतना सटीक विश्लेषण होने के कारण ही विद्वान पंचांग निर्माण में इसी किताब का सहारा लेते हैं. ये पुस्तक मिथिला के लिए एक बड़ी उपलब्धि है.
'ग्रहणमाला पुस्तक में जितने भी आगामी सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण लगेंगे उसका इसमें वृहद विवरण है. ये मिथिलांचल का बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है. यहां इसी पुस्तक को आधार मानकर ग्रहण का विचार किया जाता है.' - डॉ. अनिल झा, प्रभारी, शोध एवं प्रकाशन विभाग, संस्कृत विवि
उन्होंने बताया कि इस पुस्तक की गणना तकरीबन सही है. इस पुस्तक में सूर्य और चंद्र ग्रहणों की जो गणना है वह 1542 शकाब्द (शक संवत) से 2630 शकाब्द के बीच की है. इस समय 2020 ईस्वी चल रही है और 1942 शकाब्द. यानी दोनों की अवधि में 78 वर्ष का अंतर होता है. उनके अनुसार इस पुस्तक में 1620 ईस्वी से 2708 ईस्वी तक के 1088 वर्ष तक लगने वाले ग्रहणों के बारे में बताया गया है.
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डॉ. रामचंद्र झा ने बताया कि ये पुस्तक कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित की गई है. इसमें ग्रहणों की सूची है. यह पुस्तक वर्तमान में संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी है. उन्होंने बताया कि कहीं-कहीं गणना में थोड़ा अंतर है, लेकिन उसकी कई वजह हो सकती है. चूकि यह पुस्तक 400 साल पहले लिखी गई और उस समय लिखने की विधि और किस व्यक्ति ने इसे लिपिबद्ध किया, इस पर भी निर्भर करता है.
गौरतलब है कि ग्रहण माला पुस्तक के लेखक हेमांगद ठाकुर दरभंगा राजपरिवार के सदस्य थे. दरभंगा राजपरिवार तंत्र विद्या और ज्योतिष के क्षेत्र में दुनिया भर में जाना जाता है. इनके राजा खुद प्रकांड ज्योतिषी और तांत्रिक हुआ करते थे. हेमांगद ठाकुर महामहोपाध्याय महेश ठाकुर के पौत्र और गोपाल ठाकुर के पुत्र थे. उनका जीवन काल सन 1530 से 1590 के बीच का है. इसी दौरान इस पुस्तक की रचना की गई.
कामेश्वरसिंह-दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय बिहार का एकमात्र प्रच्य विद्या का विश्वविद्यालय है. इसकी स्थापना 26 जनवरी 1961 को महाराजा कामेश्वर सिंह के दान से हुई थी. यह भारत का दूसरा संस्कृत विश्वविद्यालय है. महाराजा ने इसकी स्थापना के लिए न सिर्फ अपना महल लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस दान में दिया बल्कि हजारों की संख्या में दुर्लभ पुस्तकें और पांडुलिपियां भी दान में दे दीं. आज विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इन्हीं दुर्लभ पांडुलिपियों और पुस्तकों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है.