नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल का बयान, 'सुप्रीम कोर्ट से कोई उम्मीद नहीं' को लेकर एक अधिवक्ता ने भारत के एटर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल को पत्र लिखा है. उन्होंने सीनियर एडवोकेट सिब्बल के खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू करने की मांग की है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ हालिया फैसलों पर नाराजगी जताते हुए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा था कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट से कोई उम्मीद नहीं है.
अधिवक्ता शशांक शेखर झा ने अपने पत्र में लिखा, "सीनियर एडवोकेट सिब्बल ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय और उसके माननीय न्यायाधीशों के अधिकार का अपमान कर सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और स्वतंत्रता की आलोचना की है." उन्होंने कहा कि राजनीतिक संबद्धता वाले वकीलों के लिए अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के साधन के रूप में न्यायपालिका का उपयोग करना और उनके पक्ष में आदेश नहीं मिलने पर लापरवाही का आरोप लगाना जैसे अब एक ट्रेंड बन गया है. उन्होंने सिब्बल के खिलाफ अवमानना कार्यवाही की मांग की है.
बता दें कि सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल में बोल रहे थे जो 6 अगस्त 2022 को नई दिल्ली में न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) एंड नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (एनएपीएम) द्वारा "नागरिक स्वतंत्रता के न्यायिक रोलबैक" पर आयोजित किया गया था. ट्रिब्यूनल का फोकस गुजरात दंगों (2002) और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नरसंहार (2009) पर सुप्रीम कोर्ट के 2022 के फैसले पर था. सिब्बल ने गुजरात दंगों में राज्य के पदाधिकारियों को एसआईटी की क्लीन चिट को चुनौती देने वाली जकिया जाफरी की याचिका को खारिज करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की. साथ ही मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम के प्रावधानों को बरकरार रखने के फैसले की भी आलोचना की, जो प्रवर्तन निदेशालय को व्यापक अधिकार देते हैं. वह दोनों मामलों में याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे.
सुप्रीम कोर्ट के कुछ हालिया फैसलों पर नाराजगी जताते हुए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट से कोई उम्मीद नहीं है. सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल में बोल रहे थे जो 6 अगस्त 2022 को नई दिल्ली में न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) एंड नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (एनएपीएम) द्वारा "नागरिक स्वतंत्रता के न्यायिक रोलबैक" पर आयोजित किया गया था. ट्रिब्यूनल का फोकस गुजरात दंगों (2002) और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नरसंहार (2009) पर सुप्रीम कोर्ट के 2022 के फैसले पर था. सिब्बल ने गुजरात दंगों में राज्य के पदाधिकारियों को एसआईटी की क्लीन चिट को चुनौती देने वाली जकिया जाफरी की याचिका को खारिज करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की. साथ ही मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम के प्रावधानों को बरकरार रखने के फैसले की भी आलोचना की, जो प्रवर्तन निदेशालय को व्यापक अधिकार देते हैं. वह दोनों मामलों में याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे.
उन्होंने अपने संबोधन की शुरुआत यह कहकर की कि भारत के सुप्रीम कोर्ट में 50 साल तक प्रैक्टिस करने के बाद संस्थान में उनकी कोई उम्मीद नहीं बची है. उन्होंने कहा कि भले ही एक ऐतिहासिक फैसला पारित हो जाए, लेकिन इससे शायद ही कभी जमीनी हकीकत बदलती हो. सिब्बल ने इस संदर्भ में आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने के फैसले का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि फैसला सुनाए जाने के बावजूद जमीनी हकीकत जस की तस बनी हुई है.
सभा को संबोधित करते हुए सिब्बल ने कहा कि स्वतंत्रता तभी संभव है जब हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों और उस स्वतंत्रता की मांग करें. सिब्बल ने गुजरात दंगों में मारे गए गुजरात के कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी का सुप्रीम कोर्ट में प्रतिनिधित्व किया था. उन्होंने कहा कि अदालत में बहस करते हुए उन्होंने केवल सरकारी दस्तावेजों और आधिकारिक रिकॉर्डों को रिकॉर्ड किया और कोई निजी दस्तावेज नहीं रखा था. दंगों के दौरान कई घर जला दिए गए. स्वाभाविक रूप से खुफिया एजेंसी इस तरह की आग को बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड बुलाएगी. हालांकि, कपिल सिब्बल के अनुसार, खुफिया एजेंसी के दस्तावेज या पत्राचार से पता चलता है कि किसी फायर ब्रिगेड ने फोन नहीं उठाया. उन्होंने कहा कि यह तर्क दिया गया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी ने ठीक से पूछताछ नहीं की कि फायर ब्रिगेड ने कॉल क्यों नहीं उठाया और इसका मतलब यह था कि एसआईटी ने अपना काम ठीक से नहीं किया.
सिब्बल ने कहा कि इन सबमिशन के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया. उन्होंने कहा कि एसआईटी ने कई लोगों को केवल उन लोगों द्वारा दिए गए बयानों पर भरोसा करते हुए छोड़ दिया जो खुद आरोपों का सामना कर रहे थे. हालांकि, इन पहलुओं को सुप्रीम कोर्ट को बताया गया था, लेकिन कुछ भी नहीं किया गया. उन्होंने कहा कि कानून का छात्र भी जानता होगा कि किसी आरोपी को सिर्फ उसके बयान के आधार पर छोड़ा नहीं जा सकता. उन्होंने कहा कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले कुछ न्यायाधीशों को सौंपे जाते हैं और फैसले की भविष्यवाणी पहले से ही की जा सकती है.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता की बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक अदालत जहां समझौता की प्रक्रिया के माध्यम से न्यायाधीशों की स्थापना की जाती है, एक अदालत जहां यह निर्धारित करने की कोई व्यवस्था नहीं है कि किस मामले की अध्यक्षता किस पीठ द्वारा की जाएगी, जहां भारत के मुख्य न्यायाधीश तय करते हैं कि किस मामले को किस पीठ द्वारा और कब निपटाया जाएगा, वह अदालत कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती.
सुप्रीम कोर्ट (विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ) द्वारा पारित हालिया पीएमएलए फैसले को संबोधित करते हुए सीनियर एडवोकेट सिब्बल ने कहा कि प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) बेहद खतरनाक हो गया है और उसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमाओं को पार कर लिया है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि मामले की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीश ने कहा था कि पीएमएलए एक दंडात्मक क़ानून नहीं है, जबकि अपराध शब्द सहित पीएमएलए के तहत "अपराध से प्राप्त संपत्ति" की परिभाषा प्रकृति में दंडनीय है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस निष्कर्ष के तर्क पर सवाल उठाया कि ईडी अधिकारी कोई पुलिस अधिकारी नहीं हैं.
उन्होंने पूछा, "जब सुप्रीम कोर्ट इस तरह के कानूनों को बरकरार रखता है तो आप उस पर भरोसा कैसे रख सकते हैं?" उन्होंने आईपीसी की धारा 120बी और इसकी कमियों के बारे में भी बताया. उन्होंने कहा कि जब भी कोई किसी निर्दोष व्यक्ति को फंसाना चाहता है तो उसके खिलाफ धारा 120बी (आपराधिक साजिश के लिए) के तहत मामला बनता है. उन्होंने कहा कि ऐसे आरोपी व्यक्तियों को तब तक जमानत नहीं दी जाती जब तक कि वे अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर देते. अगर इस तरह के कानून को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है तो ऐसी अदालत से कुछ भी उम्मीद नहीं की जा सकती.