हैदराबाद: 'हम जी हुजूर-23 नहीं हैं, हम अपनी बात रखेंगे और रखते जाएंगे'. बुधवार को ये बयान कांग्रेस नेता कपित सिब्बल की जुबां से निकला, जिसके बाद एक बार फिर G-23 की चर्चा शुरू हो गई है. आखिर क्या है ये G-23 ? इस वक्त क्यों हो रही है इसकी चर्चा ? इसके बारे में सब कुछ जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)
क्या है ये जी-23 ?
मई 2019, लोकसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए 2014 जितने ही दुखदायी थे. 2014 में 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस, 2019 में 52 सीटों तक ही पहुंच पाई. 10 अगस्त 2019 को राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी. 2014 लोकसभा चुनाव के बाद पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव से भी लगातार हार झेलनी पड़ी.
इसी बीच अगस्त 2020 में कांग्रेस के शीर्ष 23 नेताओं ने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी और नेतृत्व परिवर्तन से लेकर संगठनात्मक बदलावों की मांग कर दी. इन्हीं 23 कांग्रेस नेताओं के समूह को जी-23 कहा गया. इस चिट्ठी को पार्टी नेतृत्व और खासकर गांधी परिवार को चुनौती दिए जाने के तौर पर देखा गया. इसी साल 28 फरवरी को इस जी-23 समूह की बैठक भी जम्मू में हुई थी. जिसके बाद से ये नेता कांग्रेस आलाकमान से सवाल पूछते रहते हैं और अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की कोशिश करते रहते हैं.
जी-23 की चिट्ठी का नतीजा
इस चिट्ठी का नतीजा ये हुआ कि जी-23 की अगुवाई करने वाले गुलाम नबी आजाद की राज्यसभा की टिकट काट दी गई. वो राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल का नेता यानि नेता विपक्ष थे, लेकिन फरवरी 2021 में उनका कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें टिकट नहीं दी गई. इसके बाद जब राज्यसभा सदस्य आनंद शर्मा के नेता विपक्ष बनने के पूरे चांस थे, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा भेजकर नेता विपक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया गया.
इसके अलावा लोकसभा और राज्यसभा में मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस ने जिन पांच सदस्यों की कमेटी बनाई उसमें जी-23 के नेताओं का पत्ता काट दिया. इस 5 सदस्यीय कमेटी में जी-23 ग्रुप के एक भी नेता शामिल नहीं था. इस कमेटी में जयराम रमेश, पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, डॉ. अमर सिंह और गौरव गोगोई का नाम शामिल था. कुल मिलाकर इस कमेटी में आलाकमान के भरोसेमंद लोगों का नाम था.
भानुमति का कुनबा है G-23
'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा' कुछ ऐसा ही है कांग्रेसियों का ये G-23. जिसमें हिमाचल से लेकर केरल तक और कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक के नेता हैं. लेकिन मौजूदा परिस्थितियों और इनके सियासी रिपोर्ट कार्ड को देखें तो बहुत कम नेता हैं जिनका वर्चस्व किसी स्थान विशेष में भी बचा हो. पूरे राज्य की बात तो फिलहाल बेईमानी है और बात देश में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की हो तो इनमें कुछ नेता दूसरे दलों से कांग्रेस में शामिल हुए हैं, तो कुछ ने सिर्फ राज्यसभा सदस्य रहते हुए केंद्र में मंत्रीपद हासिल किए हैं, कई ऐसे हैं जो 70 से 80 साल के बीच हैं. एक नेता तो ऐसे भी हैं जो कांग्रेस छोड़कर गए और फिर कांग्रेस में ही लौट आए.
जानकार मानते हैं कि ये ऐसे नेताओं का गुट है जिनका सियासी करियर या तो लगभग खत्म हो चुका है या फिर ढलान पर है. कुछ के पास आखिरी मौके जरूर होंगे लेकिन कांग्रेस का हाल और बीते 7 सालों में बीजेपी का प्रदर्शन उन्हें कहीं का नहीं छोड़ रहा. इनमें से कई नेता अच्छा फेयरवेल या हैप्पी एंडिंग भी चाहते होंगे लेकिन ज्यादातर नेता अब सियासी रण में लड़ तो नहीं सकता लेकिन कांग्रेस की मुश्किलों में और इजाफा कर सकता है. वो भले जुबान से कांग्रेस की भलाई की बात करते रहें लेकिन इसमें जग हंसाई कांग्रेस की ही होगी.
G-23 के नेताओं का इतिहास और मौजूदा हैसियत क्या है ?
जितिन प्रसाद- पहले नंबर पर इनका जिक्र करना इसलिये जरूरी है क्योंकि ये अब ना जी-23 का हिस्सा हैं और ना ही कांग्रेस का, करीब 3 महीने पहले बीजेपी में शामिल हुए और बीते दिनों यूपी की योगी सरकार में मंत्री बना दिए गए. जितिन प्रसाद 2004 और 2009 में लोकसभा चुनाव जीते, मनमोहन सरकार के सबसे युवा मंत्रियों में शुमार हुए. लेकिन फिर 2014, 2019 लोकसभा और 2017 विधानसभा चुनाव हार गए, बंगाल के प्रभारी रहते हुए वहां पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई. कद और पद को लेकर पार्टी में मनमुटाव हुआ तो 'हाथ' छोड़कर कमल थाम लिया.
गुलाम नबी आजाद- 2005 में जम्मू-कश्मीर के 7वें मुख्यमंत्री रह चुके हैं. 1980 में पहली बार महाराष्ट्र की वाशिम सीट से लोकसभा पहुंचे और फिर केंद्र सरकार में मंत्री बन गए. लोकसभा के अलावा राज्यसभा सांसद रह चुके हैं और केंद्र में नागरिक उड्डयन से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं. आखिर उपलब्धि राज्यसभा सदस्य रहते हुए, संसद के ऊपरी सदन में नेता विपक्ष थे लेकिन जी-23 की अगुवाई का अंजाम टिकट कटने के रूप में सामने आया. उसके बाद पीएम मोदी की तारीफ करने को लेकर भी सुर्खियों में रहे, पाला बदलने का अंदेशा जताया जा रहा था लेकिन फिलहाल सिर्फ जी-23 के अघोषित नेता हैं, क्योंकि इनकी अगुवाई में ही एक तरह से इसकी नींव रखी गई.
भूपेंद्र सिंह हुड्डा- इन्हें एक तरह से इस गुट का सबसे ताकतवर या जन नेता कहा जा सकता है, बाकियों का बायोडेटा पढ़ने के बाद आप खुद भी अंदाजा लगा लेंगे. भूपेंद्र सिंह हुड्डा लगातार 10 साल (2005-2014) हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. 1991,1996,1998 और 2004 में लोकसभा चुनाव जीते हैं, इनमें से तीन बार लगातार उन्होंने देश के उपप्रधानमंत्री रहे चौधरी देवीलाल को शिकस्त दी थी. इसके बाद से लगातार 5वीं बार विधायक हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष, नेता विपक्ष भी रह चुके हैं.
हरियाणा के बड़े जाट नेता हैं और जाटलैंड कहे जाने वाले रोहतक, सोनीपत, झज्जर में अच्छी खासी पैठ है. इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि 2005 में हुड्डा मुख्यमंत्री बने तो रोहतक लोकसभा सीट उन्हें छोड़नी पड़ी लेकिन अपने बेटे दीपेंद्र हुड्डा को टिकट दिलवाया जो लगातार तीन बार सासंद चुने गए. 2019 में हुए विधानसभा से ऐन पहले पार्टी ने भूपेंद्र हुड्डा को कमान सौंपी और 2014 में 15 सीटों पर सिमटी कांग्रेस 30 सीटें लाकर मुख्य विपक्षी दल बनी और 75 सीट जीतने का दावा करने वाली बीजेपी महज 40 सीटें जीत पाई. 2019 में दोनों पिता-पुत्र लोकसभा चुनाव लड़े लेकिन हार गए. हुड्डा फिलहाल हरियाणा विधानसभा में नेता विपक्ष हैं और दीपेंद्र हुड्डा राज्यसभा सांसद
कपिल सिब्बल- पेशे से वकील कपिल सिब्बल भारत के एडिशनल सोलिसिटर जनरल रह चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस के कई मामलों में पैरवी कर चुके हैं. 2004 और फिर 2009 में दिल्ली की चांदनी चौक सीट से चुनाव जीता. इस दौरान साइंस एंड टैक्नॉलजी से लेकर मानव संसाधन मंत्रालय और कानून मंत्री तक की जिम्मेदारी संभाली. 2014 में अपनी ही चांदनी चौक लोकसभा सीट पर वो तीसरे नंबर पर रहे, जहां उन्हें पहली बार 71 फीसद वोट मिले थे वहां उन्हें सिर्फ 18 फीसद वोट मिले. बहुत कम लोग जानते हैं कि सिब्बल लेखक भी हैं, बॉलीवुड फिल्म 'शोरगुल' के लिए वो गाने लिख चुके हैं. राज्यसभा सदस्य के रूप में उनका कार्यकाल एक साल से भी कम का बचा है ऐसे में अपने भविष्य की स्क्रिप्ट लिखने की कोशिश कर रहे हैं.
शशि थरूर- इनकी गिनती देश के सबसे पढ़े-लिखे नेताओं में होती है. संयुक्त राष्ट्र में कई पदों पर काम करने का अनुभव रखने वाले शशि थरूर 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव की दौड़ में भी थे लेकिन दूसरे नंबर पर रहे. 2009 में केरल की तिरुवनंतपुरम से पहली बार चुनाव लड़े और जीतते ही मनमोहन मंत्रिमंडल में विदेश राज्य मंत्री के रूप में जगह मिल गई. मानव संसाधन राज्य मंत्री के साथ कई संसदीय समितियों में भी रहे. तिरुवनंतपुरम से थरूर लगातार तीसरी बार सांसद हैं. पत्नी सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद शशि थरूर पर भी सवाल उठे थे. कभी पार्टी की हर समिति और मोर्चे पर आगे खड़े रहने वाले शशि थरूर फिलहाल सिर्फ तिरुवनंतपुरम से सांसद हैं.
मनीष तिवारी- साल 2004 में पहला लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. 2009 में पंजाब की आनंदपुर साहिब सीट से चुनाव जीते, 2012 में सूचना प्रसारण मंत्री बने. तबीयत का हवाला देकर 2014 का चुनाव नहीं लड़ा लेकिन 2019 में आनंदपुर साहिब से सांसद चुने गए. फिलहाल सांसद होने के अलावा पार्टी ने कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं दी है.
आनंद शर्मा- कांग्रेस की छात्र विंग से होकर पहुंचे आनंद शर्मा ने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा है. हमेशा राज्यसभा सदस्य रहे और यूपीए के कार्यकाल के दौरान मनमोहन कैबिनेट का हिस्सा रहे.
पीजे कुरियन- साल 1980 से 1999 तक केरल से लगातार 6 बार लोकसभा सांसद रहे पी. जे. कुरियन नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं. साल 2005 में 2018 तक राज्यसभा सदस्य रहे और अगस्त 2012 में राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर चुने गए. 80 साल के पीजे कुरियन फिलहाल सिर्फ जी-23 के सदस्य हैं.
रेणुका चौधरी- तेलुगु देशम पार्टी से राजनीति की शुरुआत करने वाली रेणुका चौधरी 1986 से 1998 तक राज्यसभा सदस्य रहीं. 1997-98 में वो एचडी. देवगौड़ा की सरकार में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री रहीं. 1998 में कांग्रेस का हाथ थामा और 1999, 2004 लोकसभा चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची. पर्यटन से लेकर महिला बाल विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली. 2009 लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस ने साल 2012 में उन्हें राज्यसभा भेजा, 2018 में कार्यकाल खत्म होने के बाद कांग्रेस में वो भी फिलहाल हाशिये पर ही हैं.
मिलिंद देवड़ा- 2004 और 2009 लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. यूपीए-2 के दौरान मनमोहन कैबिनेट में शिपिंग के अलावा संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रीलय की जिम्मेदारी संभाली. मिलिंद देवड़ा को मुंबई कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया था लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तो मिलिंद देवड़ा ने भी पद छोड़ दिया.
मुकुल वासनिक- NSUI के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे मुकुल वासनिक 25 साल की उम्र में लोकसभा पहुंचने वाले सबसे युवा सांसद थे. अब तक 8 लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं, जिनमें चार में हार और चार में जीत दर्ज की है. 1984, 1991, 1998, 2009 में जीत हासिल हुई जबकि 1989, 1996, 1999, 2014 में हार गए. यूपीए-2 में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री रह चुके हैं.
राजिंदर कौर भट्ठल- पंजाब की पूर्व मुख्यमंत्री हैं. राज्य की इकलौती महिला मुख्यमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल 3 महीने से भी कम का था. 5 बार विधायक, मंत्री, कांग्रेस विधायक दल की नेता और पंजाब कांग्रेस की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं.
वीरप्पा मोइली- कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली राज्य में नेता विपक्ष से लेकर कई विभागों के मंत्री भी रह चुके हैं. साल 2009 से लगातार 2 बार सांसद रहे मोइली यूपीए-2 के दौरान मनमोहन कैबिनेट में ऊर्जा, पेट्रोलियम, पर्यावरण, कॉरपोरेट अफेयर और कानून मंत्रालय संभाल चुके हैं. वीरप्पा मोइली इस समय 81 साल के हैं.
पृथ्वीराज चव्हाण- 1991, 1996 और 1998 लोकसभा चुनाव में जीते लेकिन 1999 में हार मिली. 2002 से 2010 तक राज्यसभा सदस्य रहे. इस दौरान विज्ञान एवं प्रौद्योगिकि, कार्मिक मंत्रालय, संसदीय कार्यमंत्री समेत कई जिम्मेदारियां निभाई. फिर 2010 से 2014 तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने.
राज बब्बर- बॉलीवुड के पर्दे से सियासी पिच पर उतरे राज बब्बर जनता दल के जरिये 1989 में राजनीति में उतरे. बाद में उन्होंने समाजवादी पार्टी ज्वाइन की और पहली बार लोकसभा पहुंचे. 1994 से 1999 तक राज्यसभा के सदस्य रहे और साल 2004 में लोकसभा के लिए दोबारा चुने गए. समाजवादी पार्टी ने 2006 में सस्पेंड किया तो दो साल बाद कांग्रेस में शामिल हो गए. 2009 में लोकसभा चुनाव जीते लेकिन 2014 में हार गए. इसके बाद उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया लेकिन 2019 में वो अपनी सीट भी नहीं बचा पाए, यूपी में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट नसीब हुई.
अरविंदर सिंह लवली- 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में सबसे युवा विधायक चुने गए. फिर 2003, 2008, 2013 में भी विधायक बने. शीला दीक्षित की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार में उन्हें शिक्षा, शहरी विकास, परिवहन, पर्यटन समेत कई विभागों की जिम्मेदारी दी गई. वो दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. अप्रैल 2017 में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए और एक साल से भी कम वक्त में फरवरी 2018 में वापस कांग्रेस में लौट आए. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार गए, वैसे दिल्ली में कांग्रेस एक भी सीट ना 2015 में जीत पाई थी और ना 2020 में.
संदीप दीक्षित- लगातार 3 बार दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे हैं. 2004 और 2009 लोकसभा चुनाव में दिल्ली से जीते. लेकिन उसके बाद ना जीत मिली ना पार्टी में पद. फिलहाल कहां हैं कोई नहीं जानता
कौल सिंह ठाकुर- 75 साल के कौल सिंह ठाकुर 1977 में पहली बार हिमाचल विधानसभा पहुंचे. कुल 7 बार विधायक रह चुके हैं, मंत्री रहे और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष भी. 2017 में हिमाचल में विधानसभा चुनाव हुए तो ना कांग्रेस सत्ता में वापसी कर पाई और ना कौल सिंह ठाकुर अपनी सीट बचा पाए.
इसके अलावा अजय सिंह, अखिलेश प्रसाद सिंह, योगानंद शास्त्री, विवेक तन्खा, कुलदीप शर्मा जैसे कुछ और नाम भी शामिल हैं. कपिल सिब्बल के मुताबिक इस ग्रुप से कुछ लोग जा चुके हैं तो कुछ नए चेहरे आए भी हैं लेकिन इसकी कोई औपचारिक पुष्टि नहीं की गई है. हालांकि जो नेता इस जी-23 में हैं उनमें से गिने चुने हीं अभी सक्रिय राजनीति यानि लोकसभा, विधानसभा या विधानसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. राजनीति में ज्यादातर के पास करने के लिए कुछ नहीं है. हां, बयानबाजी उनके पल्ले है, जो वो फिलहाल बिंदास कर रहे हैं.
कांग्रेस, कलह और कन्फ्यूजन
कपिल सिब्बल से लेकर गुलाम नबी आजाद तक भले कांग्रेस की भलाई की बात कह रहे हों और वो एक बार को ठीक भी लगती है. लेकिन जानकार मानते हैं कि कांग्रेसियों के इस गुट के पीछे पार्टी की भलाई से ज्यादा अपनी अनदेखी की नाराजगी है. दरकिनार हो चुके और होने का खतरा देख रहे नेता लामबंद हो रहे हैं और विरोधियों का काम भी अपने कर रहे हैं. लेकिन इसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है, जिसके चलते कई हाथ कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं. जिसका खामियाजा आने वाले दिनों में कांग्रेस को और भी भुगतना पड़ेगा.
नवजोत सिद्धू के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह को दांव पर लगाना किसी को भी समझ नहीं आ रहा. मध्यप्रदेश से ज्योतिरादित्य भी चले गए और कांग्रेस की सरकार भी ढहा गए. राजस्थान में पायलट और गहलोत की जंग लगातार जारी है. वैसे ये कांग्रेस की पुरानी बीमारी है जो हर सूबे में मौजूद है. जितिन प्रसाद से लेकर रीता बहुगुणा जोशी, चौधरी बीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह समेत दर्जनों ऐसे चेहरे हैं जो अपने क्षेत्र विशेष में पैठ रखते थे लेकिन पार्टी की अंदरूनी कलह और आलाकमान की अनदेखी के चलते बीजेपी में चले गए और उनकी सीटों की तादाद बढ़ाते रहे. पार्टी अध्यक्ष से लेकर राज्यों में अध्यक्ष और सीट बंटवारे तक कांग्रेस में कन्फ्यूजन की स्थिति रहती है. बची-खुची कसर जी-23 के नेता निकाल रहे हैं जो भले अपनी भड़ास निकाल रहे हों लेकिन नुकसान कांग्रेस को ही हो रहा है.