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पीएम मोदी से लेकर कई हस्तियों के सिर पर सज चुकी है यहां बनी कराकुल टोपी - क़राकुली टोपी

टोपी को सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता है. कई राज्यों की टोपियां प्रसिद्ध हैं, लेकिन जब बात जम्मू कश्मीर की आती है तो एक ही नाम है, और वह है कराकुल टोपी (Karakul cap) का. कराकुली टोपी को कश्मीर की शाही टोपी माना जाता है. यह वह टोपी है जो पीएम मोदी के सिर पर भी सज चुकी है. आइए इस टोपी और इसे बनाने और बेचने वाली प्रसिद्ध दुकान के बारे में जानते हैं, इस खास रिपोर्ट में.

Karakul cap
कराकुल टोपी
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Published : Dec 10, 2022, 7:11 PM IST

श्रीनगर: नवां बाजार इलाके में टोपियों की एक मशहूर दुकान है 'जॉन केप हाउस'. यहां 125 साल से कराकुल टोपियां बनाई और बेची जाती हैं. इस काम में इस परिवार की चौथी पीढ़ी लगी है. इन टोपियों को बनाने वाले मुजफ्फर जॉन बताते हैं कि इस विशेष टोपी की तीन मूल शैलियां हैं. पहली जिन्ना शैली, दूसरी अफगान क़राक़ुल और तीसरी रूसी क़राक़ुल.

खास रिपोर्ट

मुजफ्फर का कहना है कि उनकी दुकान में बनी टोपियां मुहम्मद अली जिन्ना से लेकर भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई प्रमुख हस्तियों ने पहनी हैं. उनका कहना है कि 'मेरे दादा ने 1944 में जिन्ना के लिए एक क़राकुली टोपी बनाई थी जबकि पिताजी ने 1984 में राजीव गांधी के लिए.' मुजफ्फर के दादा और पिता ने कश्मीर और देश की महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक हस्तियों के लिए क़राकुली टोपी बनाई हैं.

मुजफ्फर ने बताया कि 'मैंने 2014 में डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, मीरवाइज, गुलाम नबी आजाद आदि के लिए ही नहीं बल्कि अन्य लोगों के लिए कराकुल टोपी बनाई थी. मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओमान के पूर्व राजा कबूस बिन सईद के लिए भी कराकुल टोपी बनाई थी.'

कश्मीर में क़राकुली को शाही टोपी के नाम से भी जाना जाता है, जो एक विशेष प्रकार की भेड़ की खाल से बनाई जाती है. एक जमाने में कश्मीर में क़राकुली पहनने का रिवाज़ बहुत ज़्यादा था, लेकिन समय बीतने के साथ आम तौर पर क़राकुली पहनने का रिवाज ख़त्म हो गया.

क़राकुली उज़्बेकिस्तान से मध्य एशिया और फिर अफ़ग़ानिस्तान होते हुए गुज़रा और अंत में कश्मीर की संस्कृति का हिस्सा बन गई. मुजफ्फर अहमद जान का कहना है कि हालांकि आज के दौर में नई पीढ़ी कराकुली पहनना पसंद नहीं करती है, लेकिन अब डिजाइन में नयापन लाकर कई युवा कुछ सालों से इन सर्दियों के दिनों में इसे पहनने में रुचि दिखा रहे हैं.

कराकुली की मौजूदा कीमत 5 हजार से 20 हजार के बीच है. ये चार प्राकृतिक रंगों में उपलब्ध है लेकिन भूरे रंग वाली कराकुली टोपी अपनी सुंदरता और आकर्षण के कारण सबसे महंगी है.

पढ़ें- जम्मू स्थित संगठनों ने आठ पारंपरिक वस्तुओं के जीआई टैग के लिए आवेदन किया

श्रीनगर: नवां बाजार इलाके में टोपियों की एक मशहूर दुकान है 'जॉन केप हाउस'. यहां 125 साल से कराकुल टोपियां बनाई और बेची जाती हैं. इस काम में इस परिवार की चौथी पीढ़ी लगी है. इन टोपियों को बनाने वाले मुजफ्फर जॉन बताते हैं कि इस विशेष टोपी की तीन मूल शैलियां हैं. पहली जिन्ना शैली, दूसरी अफगान क़राक़ुल और तीसरी रूसी क़राक़ुल.

खास रिपोर्ट

मुजफ्फर का कहना है कि उनकी दुकान में बनी टोपियां मुहम्मद अली जिन्ना से लेकर भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई प्रमुख हस्तियों ने पहनी हैं. उनका कहना है कि 'मेरे दादा ने 1944 में जिन्ना के लिए एक क़राकुली टोपी बनाई थी जबकि पिताजी ने 1984 में राजीव गांधी के लिए.' मुजफ्फर के दादा और पिता ने कश्मीर और देश की महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक हस्तियों के लिए क़राकुली टोपी बनाई हैं.

मुजफ्फर ने बताया कि 'मैंने 2014 में डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, मीरवाइज, गुलाम नबी आजाद आदि के लिए ही नहीं बल्कि अन्य लोगों के लिए कराकुल टोपी बनाई थी. मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओमान के पूर्व राजा कबूस बिन सईद के लिए भी कराकुल टोपी बनाई थी.'

कश्मीर में क़राकुली को शाही टोपी के नाम से भी जाना जाता है, जो एक विशेष प्रकार की भेड़ की खाल से बनाई जाती है. एक जमाने में कश्मीर में क़राकुली पहनने का रिवाज़ बहुत ज़्यादा था, लेकिन समय बीतने के साथ आम तौर पर क़राकुली पहनने का रिवाज ख़त्म हो गया.

क़राकुली उज़्बेकिस्तान से मध्य एशिया और फिर अफ़ग़ानिस्तान होते हुए गुज़रा और अंत में कश्मीर की संस्कृति का हिस्सा बन गई. मुजफ्फर अहमद जान का कहना है कि हालांकि आज के दौर में नई पीढ़ी कराकुली पहनना पसंद नहीं करती है, लेकिन अब डिजाइन में नयापन लाकर कई युवा कुछ सालों से इन सर्दियों के दिनों में इसे पहनने में रुचि दिखा रहे हैं.

कराकुली की मौजूदा कीमत 5 हजार से 20 हजार के बीच है. ये चार प्राकृतिक रंगों में उपलब्ध है लेकिन भूरे रंग वाली कराकुली टोपी अपनी सुंदरता और आकर्षण के कारण सबसे महंगी है.

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