नई दिल्ली : देश की कानून व्यवस्था को लेकर आम आदमी के मन में धारणा बनती जा रही है कि कोर्ट-कचहरी से न्याय की आस में जूते-चप्पल घिसते हुए पूरी जिंदगी निकल जाएगी. वहीं, यह भी लोगों का मानना है कि अपनी भावी पीढ़ी को भी इसी गर्त में डालने से बेहतर है कि अदालत के बाहर ही ले-देकर समझौता कर लिया जाए. दरअसल, हाल ही के खबरों में पता चला है कि भारत की न्याय व्यवस्था इतनी धीमी चलती है कि लाखों मुकद्दमे बरसों से फैसलों या सुनवाई का इंतजार करते रह जाते हैं. वहीं, वकील के खर्चे सुनवाई की तारीखों की तरह बढ़ते चले जाते हैं, जिसे वहन करना एक आम आदमी के लिए नामुमकिन हो जाता है और केस लड़ने से पहले ही अपनी हार स्वीकार करने के लिए मजबूर हो जाता है. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो न्याय की आस में हिम्मत नहीं हारते और अपना केस खुद लड़ने का हौसला रखते हैं.
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट में 11 नंबर की अदालत में ऐसा ही एक वाकया सामने आया. जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस सीटी रवि कुमार की अदालत में राजस्थान की एक महिला की संपत्ति के विवाद का मामला आया था. महिला का उसके भाई दौलत राम के साथ संपत्ति का विवाद है. निचली अदालतों के चक्कर लगाती हुई, अब वह सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर जा पहुंची. अदालत में मौजूद एक वकील ने ईटीवी भारत को बताया कि खचाखच भरी अदालत में जब जज साहब ने वकील की जगह एक महिला को देखा, तो उन्होंने पूछा कि उनके वकील कहां हैं.
महिला ने जवाब दिया कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह एक वकील का इंतजाम कर सकें और इसलिए वह अपना मुकदमा स्वयं लड़ेंगी. निचली अदालतों से देश की सबसे बड़ी अदालत तक आते-आते गीता देवी अदालती दांव-पेंच सीख चुकी थीं. ऐसे में जब उन्होंने अपना पक्ष रखना शुरू किया तो जस्टिस रस्तोगी हैरान हो गए. अदालत में मौजूद बाकी वकीलों के लिए भी ये एक ताज्जुब भरा नजारा था कि बिना कानून की डिग्री लिए एक आम महिला कितनी दक्षता के साथ अपना पक्ष रख रही है.
जस्टिस अजय रस्तोगी ने महिला से कहा कि ये बात तो ठीक है कि वे अपना पक्ष हिंदी में रख रही हैं और वे समझ भी रहे हैं कि वे क्या कह रही हैं. लेकिन उनके साथी जज दक्षिण भारत से हैं और वे हिंदी नहीं समझते. महिला ने अंग्रेजी बोलने में लाचारी जताई तो जज साहब ने भरी कोर्ट में पूछा कि क्या वहां उपस्थित कोई वकील इनकी बात को अंग्रेजी में अनुवाद कर सकता है. इस सवाल के जवाब में जब कोई आगे आता नहीं दिखा तो जस्टिस अजय रस्तोगी ने ये जिम्मेदारी ली.
इससे पहले जस्टिस रस्तोगी ने महिला से पूछा कि निचली अदालतों में उनका वकील कौन था. महिला ने जवाब दिया कि उनकी ओर से हमेशा सरकारी वकील ही खड़े होते रहे, जिन्होंने कभी उनकी मदद ही नहीं की. वे अदालत में महिला का पक्ष रखने के लिए मौजूद तो होते थे, लेकिन न कभी उनका पक्ष रखा या अनमने ढंग से रखते थे. ये कहते ही महिला पीछे मुड़ी और अदालत में मौजूद सभी वकीलों की ओर मुखातिब होकर कहा, "आप सब बुरा मत मानिए, मैं आप सबके लिए ऐसा नहीं कह रही हूं. कुछ वकील ही ऐसे होते हैं, सब नहीं." इस पर सब हंस पड़े. महिला की बातें सुनने के बाद जस्टिस रस्तोगी ने महिला को भरोसा दिलाया कि अदालत उन्हें एक वकील मुहैया कराएगी.
सुप्रीम कोर्ट के वकील संदीप मिश्रा के मुताबिक, संविधान की तो प्रस्तावना में ही इस बात की व्यवस्था की गई कि राज्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की व्यवस्था करेगा. न्याय पाने का अधिकार मूल अधिकारों में शामिल है. संविधान में आर्टिकल 39 ए इस बात की व्यवस्था करता है कि अगर किसी के पास वकील करने के पैसे नहीं हैं, तो सरकार के खर्चे पर उसे वकील मुहैया कराने का प्रावधान है, चाहे आरोपी ने वकील के लिए इच्छा जाहिर न भी की हो. इसके लिए विधिक सेवा प्राधिकरण न्याय के हर स्तर पर निशुल्क कानूनी मदद मुहैया करवाते हैं. इस महिला की कहानी न्याय पाने के लिए जबरदस्त संघर्ष कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने वाली एक महिला की कहानी तो है ही, ये यह भी साबित करती है कि जुडिशियल सिस्टम में देर-सबेर ही सही, सुनवाई होती है. उस महिला ने अपने इसी भरोसे के चलते निचली अदालतों से सुप्रीम कोर्ट तक का दुरूह सफर तय किया और आखिर सबसे बड़ी अदालत के न्यायाधीश ने उसकी तकलीफ समझी और वकील मुहैया करवाने का भरोसा दिया.