नई दिल्ली: बीते 24 फरवरी की सुबह यूक्रेन पर रूसी आक्रमण (Russia Ukraine conflict) के बाद नई दिल्ली, विश्व शक्तियों की जुटान का केंद्र (center of mobilization of world powers) बन गया है. इसे भारतीय कूटनीति के प्रयासों का उच्चतम शिखर (Highest Peak of Indian Diplomacy Efforts) भी माना जा सकता है.
हाल के कुछ दिनों में हुई कुछ महत्वपूर्ण यात्राओं में चीनी विदेश मंत्री वांग यी, अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, ब्रिटिश विदेश सचिव और जर्मन काउंसलर के सुरक्षा सलाहकार शामिल रहे हैं. साथ ही रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव भी इस समय भारत के दौरे पर हैं. हालांकि सभी अपने-अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति और भारत को अपने पक्ष में करने के लिए प्रयासरत हैं. इस दौरान यूक्रेन संघर्ष पर युद्ध विरोधी बयानबाजी बनाए रखने की भारतीय स्थिति, रूसी सैन्य कार्रवाई की स्पष्ट रूप से निंदा करने से इनकार करना और अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो और पश्चिमी देशों के आगे घुटने नहीं टेकने की भारत की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है.
अमेरिकी डॉलर को चुनौती: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अमेरिकी डॉलर के आधिपत्य (challenge to the hegemony of the US dollar) को कम करने की कोशिशें पहले से चल रही हैं. यूक्रेन संघर्ष का एक प्रभाव यह भी है कि भारत की स्थिति अमेरिकी नेतृत्व संतुलन को काफी हद तक प्रभावित करेगी. क्योंकि रूस-चीन के संयुक्त नेतृत्व का प्रयास अमेरिकी वर्चस्व को पूर्ववत करने की कोशिश कर रहा है.
स्वर्ण मानक की परंपरा: स्वर्ण मानक यानी जहां सोने की निश्चित मात्रा अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक और वित्तीय प्रणाली का आधार होती थी. विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह कई जटिलताओं का कारण भी बनी. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के दिमाग की उपज ब्रेटन वुड्स मानदंड प्रणाली की शुरुआत एक सम्मेलन के बाद की गई थी. जिसे संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन भी कहा जाता है. जुलाई 1944 में 44 मित्र राष्ट्रों ने एक नई वित्तीय प्रणाली का निर्णय लिया, जिसे माना गया कि यह आर्थिक सहयोग में सहायता और वृद्धि करेगी. 1968 तक ब्रेटन वुड्स मानदंड अप्रभावी साबित होने लगी. जिसके कारण 1973 में सिस्टम का विघटन हो गया. सभी सदस्य अपनी मुद्रा को सोने से जोड़ने के अलावा किसी भी प्रकार की विनिमय व्यवस्था को चुनने के लिए स्वतंत्र थे. तब फ्लोटिंग विनिमय दरों का युग शुरू हो गया था.
पेट्रो डॉलर का युग: कुछ समय बाद पेट्रो डॉलर के फलने-फूलने का समय आया. जिसके कारण देशों द्वारा ऊर्जा खरीदने के लिए अमेरिकी डॉलर की अधिक मांग हुई क्योंकि पेट्रोल को अमेरिकी डॉलर के साथ ही खरीदा और बेचा जाता था. यह एक ऐसी मुद्रा थी, जिसे हर देश द्वारा प्रतिष्ठित किया जाने लगा. पेट्रो डॉलर प्रणाली 1973 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और सऊदी अरब के राजा फैसल बिन अब्दुल अजीज अल सऊद के बीच एक समझौते से उत्पन्न हुई थी. तब अमेरिकी सुरक्षा और सैन्य उपकरणों के बदले में सऊदी अरब से इसके लिए डॉलर का भुगतान करके तेल खरीदा था.
विरोध भी हुआ: दुनिया में सबसे अधिक कारोबार वाली वस्तु पेट्रोल केवल डॉलर में खरीदा और बेचा जाता रहा, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका के लिए यह खास स्थिति बन गई. जिसने महाशक्ति को सक्रिय कर दिया और दुनिया भर में सभी तेलों का लेनदेन लगभग 80 प्रतिशत डॉलर में होने लगा. इस बीच पेट्रो डॉलर प्रणाली को खत्म करने के कई प्रयास किए गए. लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी और इराक के सद्दाम हुसैन द्वारा आक्रामक अभिव्यक्ति की गई, जो बाद में मारे गये. गद्दाफी की अक्टूबर 2011 में कैद में मृत्यु हो गई थी. जब उसका काफिला अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो बलों के हमले के बीच आ गया. वहीं सद्दाम हुसैन को 2003 में अमेरिकी सेना द्वारा कब्जा किए जाने के बाद 2006 में फांसी दी गई थी.
क्या हो सकता है विकल्प: कहा जा सकता है कि न तो यूरो, पेट्रो डॉलर के लिए वैकल्पिक प्रणाली साबित हो सकता है, न ही रूसी रूबल और न ही चीनी युआन ही इस उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं. वेनेजुएला ने हिम्मत की लेकिन उसे कड़े अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा. वर्तमान परिदृश्य अमेरिका के लिए बहुत गंभीर है. वास्तव में यह वाटरशेड क्षण भी साबित हो सकता है. भले ही रूस, चीन और ईरान के बीच एकता के मजबूत संकेत उभर रहे हों और अगर भारत अगर अपनी भी उपस्थिति दर्ज करा देता है तो यह एक दुर्जेय ब्लॉक बन जाएगा. जो डॉलर के मुकाबले खड़ा हो सकता है.
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ बैठक के बाद शुक्रवार को रूसी विदेश मंत्री लावरोव ने कहा कि मुझे याद है कि कई साल पहले हमने, भारत, चीन और कई अन्य देशों के साथ डॉलर और यूरो मुद्राओं के अधिक से अधिक उपयोग के लिए अपने संबंधों का उपयोग करना शुरू कर दिया था. वर्तमान परिस्थितियों में मेरा मानना है कि यह प्रवृत्ति तेज होगी, जो स्वाभाविक और स्पष्ट है. गौरतलब है कि मंत्री ने रूस-भारत-चीन अक्ष को ट्रोइका होने पर भी टिप्पणी की. कहा कि हम दोनों देशों के साथ घनिष्ठ भागीदार हैं. हम तीनों कई अंतरराष्ट्रीय प्रारूपों में भाग लेते हैं. हमारी ट्रोइका है.