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नए चेहरों पर दांव लगा रही पार्टियां, क्या कन्हैया के 'हाथ' थामने से तेजस्वी की राह हाेगी आसान!

बिहार की राजनीति में पुराने और नए चेहरों के बीच प्रतिस्पर्धा देखने को मिल रही है. कन्हैया कुमार के कांग्रेस में जाने से राजद नेता तेजस्वी यादव का कद और बढ़ने के आसार बन गए हैं. बिहार की सियासत में सभी राजनीतिक दल अपनी नई पीढ़ी को तवज्जो देते नजर आ रहे हैं. पढ़िए बिहार की राजनीति की बदलती तस्वीर की पूरी कहानी...

कन्हैया
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Published : Sep 29, 2021, 4:50 PM IST

पटना : बिहार (Bihar Politics) में जमीन और जनाधार बनाने में जुटे राजनीतिक दलों के लिए नए चेहरों की तलाश चल रही है और यह राष्ट्रीय पार्टी के लिए ज्यादा मायने रख रही है. बिहार के राजनीतिक दलों में नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) को छोड़ दिया जाए तो सभी नेताओं ने अपनी दूसरी पीढ़ी को मैदान में उतर दिया है और इसमें राजद (RJD) और लोजपा (LJP) का नाम सबसे ऊपर है.

दिल्ली के विवाद से नेता बने कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) वाम दलों के लिए बिहार में एक चेहरे के रूप में दिखे जरूर थे, लेकिन कांग्रेस का हाथ पकड़ कन्हैया ने बिहार में तेजस्वी की राजनीति को खुला रास्ता दे दिया.

बिहार में 2020 के लिए हुए विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और वाम दलों का महागठबंधन बिहार में 2020 में बनी नीतीश सरकार का विरोधी दल बना तो तेजस्वी यादव विरोधी दल के नेता बन गए.

चुनाव की रणनीति से लेकर टिकट बंटवारे तक तेजस्वी यादव की हर जगह उपस्थित रही है. 11 नवम्बर 2020 को राबड़ी देवी के आवास पर बैठक में वाम दल और राजद, कांग्रेस की नीति से नाराज थे कि चुनाव में उनका वह साथ नहीं मिला जो होना चाहिए और तेजस्वी को वाम दलों की सराहना भी मिली और तब कन्हैया वाम दल के हिस्सा थे.

कन्हैया कुमार ने कांग्रेस का दामन थाम कर तेजस्वी के लिए बिहार की राजनीति में नेतृत्व को स्वीकार करने की बात को और आसान कर दिया. कांग्रेस के बड़े नेता यह मानकर चल रहे हैं कि बिहार में कांग्रेस को राजद के साथ ही रहना है और राजद के पीछे ही बैठना है. यह कांग्रेस की नयी योजना नहीं है. 1990 के बाद से बिहार में बदले राजनीतिक हालात के बाद से ही कांग्रेस राजद के साथ ही खड़ी है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस लंबे समय से हाशिए पर रही है. 2015 में राजद और कांग्रेस के साथ नीतीश के समझौते ने कांग्रेस को बिहार की सियासत में संजीवनी दे दी. 2015 में कांग्रेस ने कुल 41 सीटों पर चुनाव लड़कर 27 सीटों पर जीत दर्ज किया था. 2015 में 27 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का कुल वोट 6.8 प्रतिशत ही था.

2020 के चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने और 19 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का वोट शेयर 9.48 फीसदी पहुंच गया है. बिहार में बढ़े वोट प्रतिशत को लेकर कांग्रेस उत्साहित है. हालांकि 2015 जितनी सीट नहीं जीत पाने का मलाल भले ही कांग्रेस के मन हो लेकिन वोट प्रतिशत की खुशी लाज़मी है. यह परिणाम उन हालातों में आया जब सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार में नहीं आए थे, पूरी नीति तेजस्वी की थी.

चिराग पासवान भी युवा राजनीति के नेता बनना चाह रहे थे, लेकिन राजनीति की पूरी बाजी तेजस्वी ने मार ली. तेजस्वी यादव इस नब्ज को पकड़ लिया. तेजस्वी ने जिस आयु वर्ग को पकड़ा दरअसल तमाम राजनीतिक पंडित उसे पकड़ने में पीछे रह गए. 7.8 करोड़ मतदाता में से 3.66 करोड़ युवा जो बिहार की तकदीर बदलने की हैसियत रखते हैं, उनको नजरअंदाज कर तमाम राजनीतिक दलों ने अपने लिए परेशानी मोल ले ली. वहीं रोजगार की बात कर तेजस्वी यादव अपने खाते में युवाओं को खींच लाए.

वाम दल की नीतियों से नाराज होकर कांग्रेस में पहुंचे कन्हैया को बिहार में किसी विरोध की राजनीति से जोड़ा जाये, यह जोखिम कांग्रेस नहीं लेना चाहेगी. बिहार के लिए कन्हैया को अगर कांग्रेस कोई जगह देती भी है तो तेजस्वी की नीति से अलग जाना कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए मुश्किल होगा.

इसे भी पढ़ें : कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी आज थामेंगे 'हाथ'

पटना : बिहार (Bihar Politics) में जमीन और जनाधार बनाने में जुटे राजनीतिक दलों के लिए नए चेहरों की तलाश चल रही है और यह राष्ट्रीय पार्टी के लिए ज्यादा मायने रख रही है. बिहार के राजनीतिक दलों में नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) को छोड़ दिया जाए तो सभी नेताओं ने अपनी दूसरी पीढ़ी को मैदान में उतर दिया है और इसमें राजद (RJD) और लोजपा (LJP) का नाम सबसे ऊपर है.

दिल्ली के विवाद से नेता बने कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) वाम दलों के लिए बिहार में एक चेहरे के रूप में दिखे जरूर थे, लेकिन कांग्रेस का हाथ पकड़ कन्हैया ने बिहार में तेजस्वी की राजनीति को खुला रास्ता दे दिया.

बिहार में 2020 के लिए हुए विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और वाम दलों का महागठबंधन बिहार में 2020 में बनी नीतीश सरकार का विरोधी दल बना तो तेजस्वी यादव विरोधी दल के नेता बन गए.

चुनाव की रणनीति से लेकर टिकट बंटवारे तक तेजस्वी यादव की हर जगह उपस्थित रही है. 11 नवम्बर 2020 को राबड़ी देवी के आवास पर बैठक में वाम दल और राजद, कांग्रेस की नीति से नाराज थे कि चुनाव में उनका वह साथ नहीं मिला जो होना चाहिए और तेजस्वी को वाम दलों की सराहना भी मिली और तब कन्हैया वाम दल के हिस्सा थे.

कन्हैया कुमार ने कांग्रेस का दामन थाम कर तेजस्वी के लिए बिहार की राजनीति में नेतृत्व को स्वीकार करने की बात को और आसान कर दिया. कांग्रेस के बड़े नेता यह मानकर चल रहे हैं कि बिहार में कांग्रेस को राजद के साथ ही रहना है और राजद के पीछे ही बैठना है. यह कांग्रेस की नयी योजना नहीं है. 1990 के बाद से बिहार में बदले राजनीतिक हालात के बाद से ही कांग्रेस राजद के साथ ही खड़ी है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस लंबे समय से हाशिए पर रही है. 2015 में राजद और कांग्रेस के साथ नीतीश के समझौते ने कांग्रेस को बिहार की सियासत में संजीवनी दे दी. 2015 में कांग्रेस ने कुल 41 सीटों पर चुनाव लड़कर 27 सीटों पर जीत दर्ज किया था. 2015 में 27 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का कुल वोट 6.8 प्रतिशत ही था.

2020 के चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने और 19 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का वोट शेयर 9.48 फीसदी पहुंच गया है. बिहार में बढ़े वोट प्रतिशत को लेकर कांग्रेस उत्साहित है. हालांकि 2015 जितनी सीट नहीं जीत पाने का मलाल भले ही कांग्रेस के मन हो लेकिन वोट प्रतिशत की खुशी लाज़मी है. यह परिणाम उन हालातों में आया जब सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार में नहीं आए थे, पूरी नीति तेजस्वी की थी.

चिराग पासवान भी युवा राजनीति के नेता बनना चाह रहे थे, लेकिन राजनीति की पूरी बाजी तेजस्वी ने मार ली. तेजस्वी यादव इस नब्ज को पकड़ लिया. तेजस्वी ने जिस आयु वर्ग को पकड़ा दरअसल तमाम राजनीतिक पंडित उसे पकड़ने में पीछे रह गए. 7.8 करोड़ मतदाता में से 3.66 करोड़ युवा जो बिहार की तकदीर बदलने की हैसियत रखते हैं, उनको नजरअंदाज कर तमाम राजनीतिक दलों ने अपने लिए परेशानी मोल ले ली. वहीं रोजगार की बात कर तेजस्वी यादव अपने खाते में युवाओं को खींच लाए.

वाम दल की नीतियों से नाराज होकर कांग्रेस में पहुंचे कन्हैया को बिहार में किसी विरोध की राजनीति से जोड़ा जाये, यह जोखिम कांग्रेस नहीं लेना चाहेगी. बिहार के लिए कन्हैया को अगर कांग्रेस कोई जगह देती भी है तो तेजस्वी की नीति से अलग जाना कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए मुश्किल होगा.

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