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निजी अस्पतालों को बढ़ावा देती सरकार, दुर्दशा में अवसर की तलाश ! - chairman desk on health care sector

ऐसे समय में जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने की जरूरत है, सरकार निजी अस्पतालों को बढ़ावा दे रही है. टीयर टू और टीयर तीन जैसे शहरों में 600 से अधिक निजी प्रोजेक्ट्स हरी झंडी का इंतजार कर रहे हैं. भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में निजी मेडिकल सेवाओं को बढ़ावा देना कितना सही है, यह बहुत ही गंभीर सवाल है.

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Published : Apr 1, 2021, 9:27 PM IST

हैदराबाद : सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य ही धन है. नीति आयोग ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि निजी स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत बहुत बड़ी प्रगति हासिल करेगा, क्योंकि आने वाले समय में यहां निवेश की बहुत अधिक संभावनाएं हैं. रिपोर्ट ऐसे समय में आई है, जब देश महामारी के दौर से गुजर रहा है. सचमुच इसने सबको चौंका दिया.

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अस्पताल उद्योग का योगदान 80 फीसदी तक है. यह हर साल 16 से 17 फीसदी की गति से बढ़ रहा है. अगले दो सालों में इसका कारोबार 13,200 करोड़ तक पहुंच जाएगा. नीति आयोग के मुताबिक अगर फार्मा और मेडिकल उपकरणों के कारोबार को जोड़ दिया जाए, तो मेडिकल सेवाओं का कारोबार अगले साल तक 27 लाख करोड़ तक हो जाएगा. ऐसे में एफडीआई की बहुत अधिक संभावनाएं हैं. स्वास्थ्य बीमा, स्वास्थ्य पर्यटन, टेली मेडिसीन, तकनीक पर आधारित मेडिकल सेवाएं और अन्य संबंधित क्षेत्रों में हो रही वृद्धि को देखें, तो 2017-22 के बीच 27 लाख अतिरिक्त रोजगार पैदा होंगे.

अस्पतालों के 65 फीसदी बेड मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और प. बंगाल में केंद्रित हैं. बाकी के राज्यों में अभी कम से कम 30 फीसदी तक बेड की संख्या बढ़ाई जा सकती है.

अस्पतालों के भारी भरकम बिल भरने की वजह से भारत में हर साल करीब छह करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं. ऐसे में विश्व बैंक की उस रिपोर्ट पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें कहा गया है कि 90 फीसदी बीमारियों की पहचान की जा सकती है और इसे ठीक भी किया जा सकता है. अफसोस है कि किसी ने इस सुझाव पर गंभीरता से विचार नहीं किया. परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य सेवाओं में संपन्न लोगों को प्राथमिकता मिलने लगी.

कोविड जैसी महामारी के दौर में सरकार को आम आदमी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिए. अफसोस ये है कि कोई भी सरकार आए, तात्कालिक समस्याओं का समाधान खोजने में समय गंवा देते हैं.

किसी भी देश का विकास योग्य और स्वस्थ मानव संसाधन पर निर्भर करता है. शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिससे मानव संसाधन को बेहतर बनाया जा सकता है. नोबेल विजेता अमर्त्य सेन का कहना है कि उदारीकरण के लिए चाहे जितने भी सेक्टर खोल दें, शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिसे हर हाल में सरकारी क्षेत्र में ही होने चाहिए. लेकिन ऐसी सलाह पर कौन ध्यान देता है.

कनाडा, डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, यूके, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में दुनिया की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा रहीं हैं. पर, भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में बिना अधिक पैसे खर्च किए आपको अच्छी स्वाथ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं.

नीति आयोग के अनुसार दूसरे और तीसरे टीयर के शहरों के लिए निजी स्वास्थ्य क्षेत्रों के करीब 600 प्रोजेक्टस इंतजार में हैं. 2.3 लाख करोड़ के ये प्रोजेक्ट हैं. माना जा रहा है कि 7.3 करोड़ लोग मध्यम वर्ग में जल्द ही शामिल हो जाएंगे. यह बहुत बड़ा मार्केट है. आयोग ये भी मानता है कि जीवन शैली में बदलाव की वजह से उपजी बीमारियां जैसे मोटापा, ब्लड प्रेशर और हाई कोलेस्ट्ररॉल के मामले तेजी से बढ़ेंगे और ये निजी क्षेत्रों की मांग को बढ़ाएंगे.

ऐसा लगता है कि किसी की दुर्दशा, किसी के लिए वरदान साबित होगा. आयोग लोगों की दुर्दशा में अवसर तलाश रहा है. ऐसे समय में जबकि करोड़ों लोगों की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है, मेडिकल सेवाओं में निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देना सही नहीं हो सकता है. जरूरत है तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को और अधिक मजबूत करने की. ऐसा नहीं हुआ, तो यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति मानी जाएगी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्वास्थ्य के अधिकार में सस्ता उपचार भी शामिल है. सरकार की स्वास्थ्य देखभाल नीति उसी तर्ज पर होनी चाहिए. सरकारों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में नई जान फूंकनी चाहिए. उन उपायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं में विदेशी निवेश की तलाश नहीं करनी पड़े.

हैदराबाद : सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य ही धन है. नीति आयोग ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि निजी स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत बहुत बड़ी प्रगति हासिल करेगा, क्योंकि आने वाले समय में यहां निवेश की बहुत अधिक संभावनाएं हैं. रिपोर्ट ऐसे समय में आई है, जब देश महामारी के दौर से गुजर रहा है. सचमुच इसने सबको चौंका दिया.

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अस्पताल उद्योग का योगदान 80 फीसदी तक है. यह हर साल 16 से 17 फीसदी की गति से बढ़ रहा है. अगले दो सालों में इसका कारोबार 13,200 करोड़ तक पहुंच जाएगा. नीति आयोग के मुताबिक अगर फार्मा और मेडिकल उपकरणों के कारोबार को जोड़ दिया जाए, तो मेडिकल सेवाओं का कारोबार अगले साल तक 27 लाख करोड़ तक हो जाएगा. ऐसे में एफडीआई की बहुत अधिक संभावनाएं हैं. स्वास्थ्य बीमा, स्वास्थ्य पर्यटन, टेली मेडिसीन, तकनीक पर आधारित मेडिकल सेवाएं और अन्य संबंधित क्षेत्रों में हो रही वृद्धि को देखें, तो 2017-22 के बीच 27 लाख अतिरिक्त रोजगार पैदा होंगे.

अस्पतालों के 65 फीसदी बेड मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और प. बंगाल में केंद्रित हैं. बाकी के राज्यों में अभी कम से कम 30 फीसदी तक बेड की संख्या बढ़ाई जा सकती है.

अस्पतालों के भारी भरकम बिल भरने की वजह से भारत में हर साल करीब छह करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं. ऐसे में विश्व बैंक की उस रिपोर्ट पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें कहा गया है कि 90 फीसदी बीमारियों की पहचान की जा सकती है और इसे ठीक भी किया जा सकता है. अफसोस है कि किसी ने इस सुझाव पर गंभीरता से विचार नहीं किया. परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य सेवाओं में संपन्न लोगों को प्राथमिकता मिलने लगी.

कोविड जैसी महामारी के दौर में सरकार को आम आदमी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिए. अफसोस ये है कि कोई भी सरकार आए, तात्कालिक समस्याओं का समाधान खोजने में समय गंवा देते हैं.

किसी भी देश का विकास योग्य और स्वस्थ मानव संसाधन पर निर्भर करता है. शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिससे मानव संसाधन को बेहतर बनाया जा सकता है. नोबेल विजेता अमर्त्य सेन का कहना है कि उदारीकरण के लिए चाहे जितने भी सेक्टर खोल दें, शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिसे हर हाल में सरकारी क्षेत्र में ही होने चाहिए. लेकिन ऐसी सलाह पर कौन ध्यान देता है.

कनाडा, डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, यूके, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में दुनिया की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा रहीं हैं. पर, भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में बिना अधिक पैसे खर्च किए आपको अच्छी स्वाथ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं.

नीति आयोग के अनुसार दूसरे और तीसरे टीयर के शहरों के लिए निजी स्वास्थ्य क्षेत्रों के करीब 600 प्रोजेक्टस इंतजार में हैं. 2.3 लाख करोड़ के ये प्रोजेक्ट हैं. माना जा रहा है कि 7.3 करोड़ लोग मध्यम वर्ग में जल्द ही शामिल हो जाएंगे. यह बहुत बड़ा मार्केट है. आयोग ये भी मानता है कि जीवन शैली में बदलाव की वजह से उपजी बीमारियां जैसे मोटापा, ब्लड प्रेशर और हाई कोलेस्ट्ररॉल के मामले तेजी से बढ़ेंगे और ये निजी क्षेत्रों की मांग को बढ़ाएंगे.

ऐसा लगता है कि किसी की दुर्दशा, किसी के लिए वरदान साबित होगा. आयोग लोगों की दुर्दशा में अवसर तलाश रहा है. ऐसे समय में जबकि करोड़ों लोगों की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है, मेडिकल सेवाओं में निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देना सही नहीं हो सकता है. जरूरत है तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को और अधिक मजबूत करने की. ऐसा नहीं हुआ, तो यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति मानी जाएगी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्वास्थ्य के अधिकार में सस्ता उपचार भी शामिल है. सरकार की स्वास्थ्य देखभाल नीति उसी तर्ज पर होनी चाहिए. सरकारों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में नई जान फूंकनी चाहिए. उन उपायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं में विदेशी निवेश की तलाश नहीं करनी पड़े.

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