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Watch : जलपाईगुड़ी के पांच गांवों के निवासियों की ये अजीब है कहानी, 'पहचान पत्र और आधार कार्ड हैं, पर जमीन का अधिकार नहीं

आजादी के 75 साल बाद भी पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में स्थित पांच गांवों के निवासियों को जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इनके पास मतदाता पहचान पत्र भी हैं और आधार कार्ड भी. फिर भी न तो इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता है और न ही ये जमीन खरीद सकते हैं, और न ही वे इसे बेच सकते हैं. पेश है ईटीवी भारत बांग्ला के रिपोर्टर अविजित बोस की एक रिपोर्ट.

No mans land
नो मेंस लैंड
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Published : Jul 27, 2023, 8:05 PM IST

Updated : Jul 27, 2023, 8:28 PM IST

नो मेंस लैंड की अजीबो-गरीब कहानी

कोलकाता : प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में पांच ऐसे गांव हैं, जहां के निवासियों के पास सभी दस्तावेज हैं, लेकिन उन्हें जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है. न तो वे जमीन खरीद सकते हैं, और न तो वे इसे बेच सकते हैं. यह अपने आप में बहुत ही अजीबो-गरीब है कि उनके पास मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड भी हैं. फिर भी वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें जमीन का अधिकार नहीं है. इस आधार पर उन्हें सरकार की किसी भी योजना का फायदा भी नहीं मिल पा रहा है.

ये सारे गांव भारत-बांग्लादेश की सीमा पर जलपाईगुड़ी जिले में हैं. यहां की आबादी 10 हजार से अधिक है. जिनके पास भी मतदाता पहचान पत्र है, वे चुनाव में हिस्सा ले सकते हैं. वे अपना जनप्रतिनिधि भी चुनते हैं. लेकिन बात जब जमीन पर अधिकार की आती है, तो उनके हाथ खाली हैं. वे न तो कोई भी जमीन खरीद सकते हैं और न ही बेच सकते हैं.

यहां इसका उल्लेख करना बहुत जरूरी है कि 2015 के अगस्त महीने में जब भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा को लेकर समझौता हो रहा था, तब यह एरिया भारत के हिस्से में आया. ये हैं - काजलदिघी, चिलाहाटी, बाराशशी, नवतरिदेबोत्तर और पधनी. ये सभी दक्षिण बेरुबाड़ी ग्राम पंचायत में स्थित हैं.

दरअसल, इस समस्या की शुरुआत आजादी के समय से ही हो गई थी. इस इलाके पर पाकिस्तान ने दावा ठोका था. उसके अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच इस ओर रेडक्लिफ लाइन ने विभाजन निर्धारित कर दिया था. पाकिस्तान दक्षिण बेरुबाड़ी पर दावा कर रहा था. लेकिन नेहरू नहीं माने. दोनों देशों के बीच 1947-64 तक बातचीत चलती रही. 1957 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने वाले फिरोज खान नून ने इस समस्या को और अधिक जटिल बना दिया.

1958 के समझौते के अनुसार दक्षिण बेरुबाड़ी को दो भागों में विभाजित किया गया. लेकिन द. बेरुबाड़ी के लोगों ने विरोध की आवाज बुलंद कर दी. उसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया. जटिल कानूनी स्थिति से निबटने के लिए 1960 में भारत ने इस बाबत संविधान में नौंवां संशोधन पेश किया. इस पर कोई भी निर्णायक पहल हो पाती, उसके पहले ही भारत और चीन के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई. उसके बाद 1964 में नेहरू गुजर गए. फिर अगले साल यानी 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो गया.

ऐसे में यह मामला लगातार टलता गया. इन इलाकों में सीमा निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया होती है. ये छोटे-छोटे पॉकेट हैं. विवाद होने की वजह से इस काम पर किसी ने प्राथमिकता के आधार पर विचार भी नहीं किया. लंबे समय बाद मोदी सरकार ने 2015 में बांग्लादेश के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट को अंतिम रूप प्रदान किया. बांग्लादेश की ओर से प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हस्ताक्षर किए थे.

इस समझौते के अनुसार भारत ने 111 एंक्लेव बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिए, जबकि बांग्लादेश ने 51 एंक्लेव भारत को सुपुर्द किए. इसके जरिए भारत ने बांग्लादेश को 17 हजार 160 एकड़ जमीन सौंपी, जबकि बांग्लादेश ने भारत को सात हजार एक सौ दस एकड़ जमीन सौंपी. यहां पर रहने वाले लोगों को विकल्प दिया गया था कि वे चाहें तो दोनों में से किसी भी देश को चुन सकते हैं.

पर, इन पांच एंक्लेव की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही, क्योंकि दोनों ही देशों के मैप पर इसे रेप्रेजेंट नहीं किया जा सका. ये बहुत ही छोटे पॉकेट वाले इलाके थे, इसलिए यहां की गुत्थी उलझ गई. हालांकि, उन्हें भारत की सीमा में रहने का अधिकार दिया गया है.

पूरे मामले पर ईटीवी भारत से बात करते हुए फॉर्वर्ड ब्लॉक के पूर्व विधायक गोबिंद रॉय ने कहा कि कामत गांव (चिलाहाटी) समेत पांच गांवों की यह समस्या लंबे समय से चली आ रही है. यहां के लोगों को जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है, जबकि 10 हजार निवासियों के पास सारे कागजात हैं. उन्होंने कहा कि यहां पर रजिस्टर्ड वोटर आठ हजार हैं, फिर भी उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं दिया जा रहा है, जैसे कृषक बंधु योजना या फिर किसान सम्मान निधि योजना वगैरह.

रॉय ने कहा कि समस्या की मूल में 1958 और 1974 के समझौते हैं. उनके अनुसार 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर रहमान के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट किया था. इसके तहत पांच गांव बांग्लादेश को मिले, जबकि चार गांव भारत के हिस्से में आए, लेकिन यहां पर रहने वाले लोगों को मैप पर बांग्लादेश की सीमा में दिखाया गया. यहां से उनकी जटिलताएं बढ़ती गईं.

उन्होंने कहा कि यहां के ग्रामवासियों ने समय-समय पर प्रदर्शन भी किया. अपनी आवाज उठाई. 2015 में लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट में सीमा विभाजन को अंमित रूप भी प्रदान कर दिया गया. लेकिन कामत और उसके चारों ओर स्थित चार गांवों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया. उन्हें भारत में रहने की इजाजत दी गई, साथ ही सारे कागजात भी दिए गए हैं. लेकिन जमीन का अधिकार नहीं दिया गया. इसकी वजह से उन्हें प्रॉपर्टी अधिकार नहीं मिल रहा है, न ही सरकारी सेवाओं का लाभ.

इस मामले पर जब ईटीवी भारत ने जलपाईगुड़ी के जिला कलेक्टर मौमित्रा गोदरा से बात की, तो उन्होंने कहा कि कुछ समस्याएं हैं, जिसके बारे में ऊपर के अधिकारियों को जानकारी दी गई है.

ये भी पढ़ें : ममता बनर्जी के हेलीकॉप्टर की जलपाईगुड़ी में आपात लैंडिंग, कमर और पैरों में लगी चोट

नो मेंस लैंड की अजीबो-गरीब कहानी

कोलकाता : प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में पांच ऐसे गांव हैं, जहां के निवासियों के पास सभी दस्तावेज हैं, लेकिन उन्हें जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है. न तो वे जमीन खरीद सकते हैं, और न तो वे इसे बेच सकते हैं. यह अपने आप में बहुत ही अजीबो-गरीब है कि उनके पास मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड भी हैं. फिर भी वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें जमीन का अधिकार नहीं है. इस आधार पर उन्हें सरकार की किसी भी योजना का फायदा भी नहीं मिल पा रहा है.

ये सारे गांव भारत-बांग्लादेश की सीमा पर जलपाईगुड़ी जिले में हैं. यहां की आबादी 10 हजार से अधिक है. जिनके पास भी मतदाता पहचान पत्र है, वे चुनाव में हिस्सा ले सकते हैं. वे अपना जनप्रतिनिधि भी चुनते हैं. लेकिन बात जब जमीन पर अधिकार की आती है, तो उनके हाथ खाली हैं. वे न तो कोई भी जमीन खरीद सकते हैं और न ही बेच सकते हैं.

यहां इसका उल्लेख करना बहुत जरूरी है कि 2015 के अगस्त महीने में जब भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा को लेकर समझौता हो रहा था, तब यह एरिया भारत के हिस्से में आया. ये हैं - काजलदिघी, चिलाहाटी, बाराशशी, नवतरिदेबोत्तर और पधनी. ये सभी दक्षिण बेरुबाड़ी ग्राम पंचायत में स्थित हैं.

दरअसल, इस समस्या की शुरुआत आजादी के समय से ही हो गई थी. इस इलाके पर पाकिस्तान ने दावा ठोका था. उसके अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच इस ओर रेडक्लिफ लाइन ने विभाजन निर्धारित कर दिया था. पाकिस्तान दक्षिण बेरुबाड़ी पर दावा कर रहा था. लेकिन नेहरू नहीं माने. दोनों देशों के बीच 1947-64 तक बातचीत चलती रही. 1957 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने वाले फिरोज खान नून ने इस समस्या को और अधिक जटिल बना दिया.

1958 के समझौते के अनुसार दक्षिण बेरुबाड़ी को दो भागों में विभाजित किया गया. लेकिन द. बेरुबाड़ी के लोगों ने विरोध की आवाज बुलंद कर दी. उसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया. जटिल कानूनी स्थिति से निबटने के लिए 1960 में भारत ने इस बाबत संविधान में नौंवां संशोधन पेश किया. इस पर कोई भी निर्णायक पहल हो पाती, उसके पहले ही भारत और चीन के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई. उसके बाद 1964 में नेहरू गुजर गए. फिर अगले साल यानी 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो गया.

ऐसे में यह मामला लगातार टलता गया. इन इलाकों में सीमा निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया होती है. ये छोटे-छोटे पॉकेट हैं. विवाद होने की वजह से इस काम पर किसी ने प्राथमिकता के आधार पर विचार भी नहीं किया. लंबे समय बाद मोदी सरकार ने 2015 में बांग्लादेश के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट को अंतिम रूप प्रदान किया. बांग्लादेश की ओर से प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हस्ताक्षर किए थे.

इस समझौते के अनुसार भारत ने 111 एंक्लेव बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिए, जबकि बांग्लादेश ने 51 एंक्लेव भारत को सुपुर्द किए. इसके जरिए भारत ने बांग्लादेश को 17 हजार 160 एकड़ जमीन सौंपी, जबकि बांग्लादेश ने भारत को सात हजार एक सौ दस एकड़ जमीन सौंपी. यहां पर रहने वाले लोगों को विकल्प दिया गया था कि वे चाहें तो दोनों में से किसी भी देश को चुन सकते हैं.

पर, इन पांच एंक्लेव की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही, क्योंकि दोनों ही देशों के मैप पर इसे रेप्रेजेंट नहीं किया जा सका. ये बहुत ही छोटे पॉकेट वाले इलाके थे, इसलिए यहां की गुत्थी उलझ गई. हालांकि, उन्हें भारत की सीमा में रहने का अधिकार दिया गया है.

पूरे मामले पर ईटीवी भारत से बात करते हुए फॉर्वर्ड ब्लॉक के पूर्व विधायक गोबिंद रॉय ने कहा कि कामत गांव (चिलाहाटी) समेत पांच गांवों की यह समस्या लंबे समय से चली आ रही है. यहां के लोगों को जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है, जबकि 10 हजार निवासियों के पास सारे कागजात हैं. उन्होंने कहा कि यहां पर रजिस्टर्ड वोटर आठ हजार हैं, फिर भी उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं दिया जा रहा है, जैसे कृषक बंधु योजना या फिर किसान सम्मान निधि योजना वगैरह.

रॉय ने कहा कि समस्या की मूल में 1958 और 1974 के समझौते हैं. उनके अनुसार 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर रहमान के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट किया था. इसके तहत पांच गांव बांग्लादेश को मिले, जबकि चार गांव भारत के हिस्से में आए, लेकिन यहां पर रहने वाले लोगों को मैप पर बांग्लादेश की सीमा में दिखाया गया. यहां से उनकी जटिलताएं बढ़ती गईं.

उन्होंने कहा कि यहां के ग्रामवासियों ने समय-समय पर प्रदर्शन भी किया. अपनी आवाज उठाई. 2015 में लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट में सीमा विभाजन को अंमित रूप भी प्रदान कर दिया गया. लेकिन कामत और उसके चारों ओर स्थित चार गांवों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया. उन्हें भारत में रहने की इजाजत दी गई, साथ ही सारे कागजात भी दिए गए हैं. लेकिन जमीन का अधिकार नहीं दिया गया. इसकी वजह से उन्हें प्रॉपर्टी अधिकार नहीं मिल रहा है, न ही सरकारी सेवाओं का लाभ.

इस मामले पर जब ईटीवी भारत ने जलपाईगुड़ी के जिला कलेक्टर मौमित्रा गोदरा से बात की, तो उन्होंने कहा कि कुछ समस्याएं हैं, जिसके बारे में ऊपर के अधिकारियों को जानकारी दी गई है.

ये भी पढ़ें : ममता बनर्जी के हेलीकॉप्टर की जलपाईगुड़ी में आपात लैंडिंग, कमर और पैरों में लगी चोट

Last Updated : Jul 27, 2023, 8:28 PM IST
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