ETV Bharat / bharat

FirstPunch: धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे… - फर्स्ट पंच

राजनीतिक मामलों में पुलिस और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर बहस पुरानी है. लेकिन कल के घटनाक्रम से फिर प्रासंगिक हो गई है. राजनीतिक मुकदमे में पंजाब और दिल्ली के नेताओं के बीच की खींचतान में पुलिस ही मोहरा बन गई. हरियाणा सरकार की ओर से कुरुक्षेत्र में पंजाब पुलिस को रोक देने से मामला और पेचीदा हो गया. कौन सही, कौन गलत अब ये बहस का मुद्दा कहां रहा जब सारी मर्यादाएं टूटी हैं, सारे नियम सवालों के घेरे में हैं. अतीत काल से राजनीतिक और नैतिक युद्ध की भूमि कुरुक्षेत्र फिर सुर्खियों में हैं. पढ़िए रीजनल एडिटर विशाल सूर्यकांत की नज़र से पूरा घटनाक्रम...फर्स्ट पंच में...

FirstPunch
दिल्ली पुलिस बग्गा घटनाक्रम
author img

By

Published : May 7, 2022, 11:18 AM IST

- विशाल सूर्यकांत

" धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय। " महाभारत में धृतराष्ट्र इसी श्लोक में संजय से पूछते हैं कि धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? पूरी महाभारत में धृतराष्ट्र का यही कथन है, इसके बाद जो कुछ कहा गया वो संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से ही बताया. दैवीय शक्तियों की वो दिव्यता तो नहीं लेकिन लोकतंत्र के इस दौर में अपना विवेक, अपनी मर्यादा और अपनी-अपनी सीमाओं की पराकाष्ठाएं जरूर हैं. जिसे हर पक्ष को समझना चाहिए. क्योंकि जब कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध खत्म हुआ तो फिर यह सवाल प्रासंगिक नहीं रह गया था कि कौन न्याय के पक्ष में था, कौन अन्याय का पैरोकार था. कौन कौरव था, कौन पांडवों के साथ खड़ा था. युद्ध का परिणाम उस शाश्वत सत्य को दिखा रहा था जिसमें साफ झलक रहा था कि कई वर्जनाएं टूटी, कई नियम बदले, कई मर्यादाएं लांघी गई. युद्ध जीतने के लिए नैतिक, अनुशासनिक और संवैधानिक बाध्यताएं भुला दी गईं.

आप सोच रहे होंगे कि अचानक महाभारत के युद्ध का जिक्र क्यों, दरअसल, मुद्दा दिल्ली, पंजाब और हरियाणा सरकारों के बीच के घटनाक्रम का है. जिसमें कुरुक्षेत्र फिर प्रासंगिक है. काल बदल गया लेकिन कुरुक्षेत्र का मैदान नहीं बदला. उलटे मैदान में तीसरे पक्ष के रूप में हरियाणा सरकार भी दिल्ली और पंजाब सरकार के बीच उतर आई और कुरुक्षेत्र के रास्ते वापस लौट रहे पंजाब पुलिस के रथों को रोक दिया गया. पंजाब पुलिस के जवानों की हालत ये हो गई कि कहां तो गिरफ्तार कर भाजपा के प्रवक्ता को ले जा रहे थे और कहां खुद की गिरफ्तारी की नौबत आ गई. दिल्ली पुलिस को अपने यहां होती कार्रवाई की भनक नहीं लग पाई. दरअसल, ये पूरी घटनाएं बता रही हैं कि अगर लोकतंत्र में सियासत सिस्टम पर हावी हो जाए तो क्या-क्या नतीजे हो सकते हैं. दिल्ली में छापों की राजनीति से लेकर पंजाब की पुलिसिया रुबाब की राजनीति, दोनों को लोकतंत्र की बेहबूदी के लिहाज से जायज नहीं ठहराया जा सकता. देश के संघीय ढांचे में राज्यों को बर्तनों की मानिंद टकराने की ऐसी आजादी नहीं दी जा सकती. जिसमें पुलिस, प्रशासन कठपुतलियों के मानिंद नजर आएं. आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी लगे लेकिन इतना तो तय है कि किसी दुर्दांत अपराधी या आतंकी षडयंत्र की नहीं बल्कि मसला राजनीतिक विचारों के टकराव में आपत्तिजनक टिप्पणियों का है. इसे इसी रूप में लेना चाहिए. पंजाब पुलिस का छापामार तरीका समझ से परे है और दिल्ली पुलिस अतिसक्रियता का भी कोई तुक नहीं दिखता. राजनीतिक मामलों में मानहानि के दावों से देश और दिल्ली की राजनीति भरी पड़ी है. इसे वहीं तक रहने दें. क्योंकि आती-जाती सत्ताओं में अगर इस तरह का चलन बढ़ गया तो वो किसी के भी हक़ में नहीं है. नेता तो आएंगे और चले जाएंगे लेकिन लोकतंत्र की साख पर जो बट्टा लग रहा है वो दशकों तक नजीर बनकर सत्ता के गलियारों में घुमता रहेगा. केन्द्र सरकार दिल्ली पुलिस को नियंत्रित करे और पंजाब और हरियाणा सरकारें अतिरेक से बचें. अन्यथा ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा, ये कल्पना करना भी मुश्किल है. इस दौर के कुरुक्षेत्र में न हमें धृतराष्ट्र चाहिए, न कुछ भी कर गुजरने वाले योद्धा चाहिए, न ही सिर्फ व्याख्या करते रहने वाले दिव्य चक्षुधारी संजयों की जरूरत है. आने वाले भविष्य की पीढ़ियों के लिए राजनीति को लेकर कुछ अच्छी नजीर दी जा सके. इसके लिए जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल, नेता, पुलिस-प्रशासन के जिम्मेदारान लोग, भीष्म रूपी मर्यादाओं की शपथ दोहराएं और खुद को सत्ता और सियासत का खिलौना बनने से बचाएं. इतिहास गवाह है कि सत्ताएं जैसा बर्ताव करती हैं, जनता भी वैसी ही हो जाया करती है. सोचिए ऐसी सरकार और सिस्टम में बढ़ती ये अराजकताएं सड़कों पर आने लगें तो क्या हो...

- विशाल सूर्यकांत

" धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय। " महाभारत में धृतराष्ट्र इसी श्लोक में संजय से पूछते हैं कि धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? पूरी महाभारत में धृतराष्ट्र का यही कथन है, इसके बाद जो कुछ कहा गया वो संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से ही बताया. दैवीय शक्तियों की वो दिव्यता तो नहीं लेकिन लोकतंत्र के इस दौर में अपना विवेक, अपनी मर्यादा और अपनी-अपनी सीमाओं की पराकाष्ठाएं जरूर हैं. जिसे हर पक्ष को समझना चाहिए. क्योंकि जब कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध खत्म हुआ तो फिर यह सवाल प्रासंगिक नहीं रह गया था कि कौन न्याय के पक्ष में था, कौन अन्याय का पैरोकार था. कौन कौरव था, कौन पांडवों के साथ खड़ा था. युद्ध का परिणाम उस शाश्वत सत्य को दिखा रहा था जिसमें साफ झलक रहा था कि कई वर्जनाएं टूटी, कई नियम बदले, कई मर्यादाएं लांघी गई. युद्ध जीतने के लिए नैतिक, अनुशासनिक और संवैधानिक बाध्यताएं भुला दी गईं.

आप सोच रहे होंगे कि अचानक महाभारत के युद्ध का जिक्र क्यों, दरअसल, मुद्दा दिल्ली, पंजाब और हरियाणा सरकारों के बीच के घटनाक्रम का है. जिसमें कुरुक्षेत्र फिर प्रासंगिक है. काल बदल गया लेकिन कुरुक्षेत्र का मैदान नहीं बदला. उलटे मैदान में तीसरे पक्ष के रूप में हरियाणा सरकार भी दिल्ली और पंजाब सरकार के बीच उतर आई और कुरुक्षेत्र के रास्ते वापस लौट रहे पंजाब पुलिस के रथों को रोक दिया गया. पंजाब पुलिस के जवानों की हालत ये हो गई कि कहां तो गिरफ्तार कर भाजपा के प्रवक्ता को ले जा रहे थे और कहां खुद की गिरफ्तारी की नौबत आ गई. दिल्ली पुलिस को अपने यहां होती कार्रवाई की भनक नहीं लग पाई. दरअसल, ये पूरी घटनाएं बता रही हैं कि अगर लोकतंत्र में सियासत सिस्टम पर हावी हो जाए तो क्या-क्या नतीजे हो सकते हैं. दिल्ली में छापों की राजनीति से लेकर पंजाब की पुलिसिया रुबाब की राजनीति, दोनों को लोकतंत्र की बेहबूदी के लिहाज से जायज नहीं ठहराया जा सकता. देश के संघीय ढांचे में राज्यों को बर्तनों की मानिंद टकराने की ऐसी आजादी नहीं दी जा सकती. जिसमें पुलिस, प्रशासन कठपुतलियों के मानिंद नजर आएं. आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी लगे लेकिन इतना तो तय है कि किसी दुर्दांत अपराधी या आतंकी षडयंत्र की नहीं बल्कि मसला राजनीतिक विचारों के टकराव में आपत्तिजनक टिप्पणियों का है. इसे इसी रूप में लेना चाहिए. पंजाब पुलिस का छापामार तरीका समझ से परे है और दिल्ली पुलिस अतिसक्रियता का भी कोई तुक नहीं दिखता. राजनीतिक मामलों में मानहानि के दावों से देश और दिल्ली की राजनीति भरी पड़ी है. इसे वहीं तक रहने दें. क्योंकि आती-जाती सत्ताओं में अगर इस तरह का चलन बढ़ गया तो वो किसी के भी हक़ में नहीं है. नेता तो आएंगे और चले जाएंगे लेकिन लोकतंत्र की साख पर जो बट्टा लग रहा है वो दशकों तक नजीर बनकर सत्ता के गलियारों में घुमता रहेगा. केन्द्र सरकार दिल्ली पुलिस को नियंत्रित करे और पंजाब और हरियाणा सरकारें अतिरेक से बचें. अन्यथा ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा, ये कल्पना करना भी मुश्किल है. इस दौर के कुरुक्षेत्र में न हमें धृतराष्ट्र चाहिए, न कुछ भी कर गुजरने वाले योद्धा चाहिए, न ही सिर्फ व्याख्या करते रहने वाले दिव्य चक्षुधारी संजयों की जरूरत है. आने वाले भविष्य की पीढ़ियों के लिए राजनीति को लेकर कुछ अच्छी नजीर दी जा सके. इसके लिए जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल, नेता, पुलिस-प्रशासन के जिम्मेदारान लोग, भीष्म रूपी मर्यादाओं की शपथ दोहराएं और खुद को सत्ता और सियासत का खिलौना बनने से बचाएं. इतिहास गवाह है कि सत्ताएं जैसा बर्ताव करती हैं, जनता भी वैसी ही हो जाया करती है. सोचिए ऐसी सरकार और सिस्टम में बढ़ती ये अराजकताएं सड़कों पर आने लगें तो क्या हो...

ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.