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अपराधियों ने संसदीय प्रजातांत्रिक मूल्यों को किया चौपट - संसद में अपराधी

1954 में 'द गार्डियन' ने भारतीय संसद के कार्य करने के तरीके की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यह पूरे एशिया के लिए एक स्कूल साबित हो सकता है. विडंबना देखिए, आज संसद द्वारा पारित संकल्पों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रहीं हैं. विधानमंडल के इस नैतिक पतन की क्या वजहें हैं. वर्तमान संसद में 43 फीसदी सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.

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Published : May 13, 2021, 9:19 PM IST

हैदराबाद : भारत में सबसे अधिक संख्या में जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं, जो कानून बनाने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं. जब देश आजाद हुआ था, तब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि इन जन प्रतनिधियों के प्रयास की बदौलत लोगों को सबसे अधिक लाभ पहुंचेगा और मुझे उम्मीद है कि इस मामले में यह संसद बेहतरीन मिसाल पेश करेगा.

पं. जवाहर लाल नेहरू ने संसद को महान संस्थान बताते हुए कहा था कि यह दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी आबादी का इतिहास लिख रहा है. लोकसभा के पहले अध्यक्ष जीवी मावलंकर ने संसद की उत्कृष्ट परंपरा और मूल्यों को स्थापित करने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी. 1954 में 'द गार्डियन' ने भारतीय संसद के काम करने के तरीके की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यह पूरे एशिया के लिए एक स्कूल साबित हो सकता है. आप कह सकते हैं कि उन दिनों सांसद जनसेवा के प्रति पूरी तरह से जिम्मेवार होते थे.

उस समय के सांसदों ने दूरदर्शिता दिखाई, उन्हें पता था कि विधानमंडल की प्रतिष्ठा धूमिल हुई तो प्रजातंत्र खतरे में पड़ जाएगा. अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को अलग रखते हुए उन दिनों सभी सांसद मिलकर गलत करने वालों को हटा दिया करते थे. कांग्रेस सासंद फिरोज गांधी ने मुदगल नाम के एक सांसद के मामले को उजागर किया था. उनके अनुसार मुदगल ने सवाल उठाने के लिए दो हजार रुपये लिए थे. मुदगल कांग्रेस पार्टी के सांसद थे. नेहरू ने सितंबर 1951 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया था. नेहरू ने दिखाया कि संसद की पवित्रता कायम रखने के लिए प्रतिबद्धता जरूरी है.

लेकिन आज का परिदृश्य कुछ और है. उन महान नेताओं के संकल्प और उन्होंने जो सपने देखे थे, वह कहीं नजर नहीं आ रहा है. विधानमंडल के इस नैतिक पतन की क्या वजहें हैं. आज संसद से लेकर विधानसभा में आपराधिक छवि वालों की भरमार है.

सरकार की आमदनी पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश साल में एक बार संसद की बैठक करते थे. भारत का संविधान जब से लागू हुआ, तब सुनिश्चित किया गया कि सदन के दो सत्रों की बैठकों के बीच छह महीने से अधिक का गैप नहीं होनी चाहिए.

संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि सरकार सदन के प्रति पूरी तरह से जवाबदेह है. आज की स्थिति देखिए, संसद द्वारा पारित संकल्प को भी लागू नहीं किया जा रहा है.

आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर संसद ने 14 सूत्री एजेंडा का एक संकल्प पारित किया था. जवाबदेही और जिम्मेदारी की सभ्य संस्कृति में उभरने के बजाय भारतीय लोकतंत्र में आपराधिक तत्वों, नकदी संस्कृति, जाति और पंथ का बोलबाला बढ़ा है.

14वीं लोकसभा में 24 फीसदी सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी. पिछले लोकसभा में यह प्रतिशत 34 तक आ गया था. वर्तमान लोकसभा में 43 फीसदी सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है. मनमनोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने शपथ पत्र में कहा था कि किसी पर आपराधिक आरोप है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि उस मंत्री नहीं बनाया जा सकता है.

यह अपने आप में बहुत बड़ा विरोधाभास है कि किसी अधिकारी को आपराधिक मामले में दोषी ठहराया जाता है तो उन्हें सेवा से हटाया जाता है, लेकिन जनप्रतिनिधियों को लेकर कानून की आड़ ली जा रही है. यह तो संविधान प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट में इस बाबत एक याचिका लंबित भी है. केंद्र सरकार का कहना है कि जनसेवक शपथ से बंधे होते हैं, वे किसी सेवा से बंधे नहीं होते हैं. किसी की भी सरकार हो, इस मामले पर एक जैसा स्टैंड है. एक तरीके से इनकी वजह से संसद की गरिमा लगातार गिर रही है.

हैदराबाद : भारत में सबसे अधिक संख्या में जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं, जो कानून बनाने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं. जब देश आजाद हुआ था, तब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि इन जन प्रतनिधियों के प्रयास की बदौलत लोगों को सबसे अधिक लाभ पहुंचेगा और मुझे उम्मीद है कि इस मामले में यह संसद बेहतरीन मिसाल पेश करेगा.

पं. जवाहर लाल नेहरू ने संसद को महान संस्थान बताते हुए कहा था कि यह दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी आबादी का इतिहास लिख रहा है. लोकसभा के पहले अध्यक्ष जीवी मावलंकर ने संसद की उत्कृष्ट परंपरा और मूल्यों को स्थापित करने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी. 1954 में 'द गार्डियन' ने भारतीय संसद के काम करने के तरीके की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यह पूरे एशिया के लिए एक स्कूल साबित हो सकता है. आप कह सकते हैं कि उन दिनों सांसद जनसेवा के प्रति पूरी तरह से जिम्मेवार होते थे.

उस समय के सांसदों ने दूरदर्शिता दिखाई, उन्हें पता था कि विधानमंडल की प्रतिष्ठा धूमिल हुई तो प्रजातंत्र खतरे में पड़ जाएगा. अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को अलग रखते हुए उन दिनों सभी सांसद मिलकर गलत करने वालों को हटा दिया करते थे. कांग्रेस सासंद फिरोज गांधी ने मुदगल नाम के एक सांसद के मामले को उजागर किया था. उनके अनुसार मुदगल ने सवाल उठाने के लिए दो हजार रुपये लिए थे. मुदगल कांग्रेस पार्टी के सांसद थे. नेहरू ने सितंबर 1951 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया था. नेहरू ने दिखाया कि संसद की पवित्रता कायम रखने के लिए प्रतिबद्धता जरूरी है.

लेकिन आज का परिदृश्य कुछ और है. उन महान नेताओं के संकल्प और उन्होंने जो सपने देखे थे, वह कहीं नजर नहीं आ रहा है. विधानमंडल के इस नैतिक पतन की क्या वजहें हैं. आज संसद से लेकर विधानसभा में आपराधिक छवि वालों की भरमार है.

सरकार की आमदनी पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश साल में एक बार संसद की बैठक करते थे. भारत का संविधान जब से लागू हुआ, तब सुनिश्चित किया गया कि सदन के दो सत्रों की बैठकों के बीच छह महीने से अधिक का गैप नहीं होनी चाहिए.

संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि सरकार सदन के प्रति पूरी तरह से जवाबदेह है. आज की स्थिति देखिए, संसद द्वारा पारित संकल्प को भी लागू नहीं किया जा रहा है.

आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर संसद ने 14 सूत्री एजेंडा का एक संकल्प पारित किया था. जवाबदेही और जिम्मेदारी की सभ्य संस्कृति में उभरने के बजाय भारतीय लोकतंत्र में आपराधिक तत्वों, नकदी संस्कृति, जाति और पंथ का बोलबाला बढ़ा है.

14वीं लोकसभा में 24 फीसदी सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी. पिछले लोकसभा में यह प्रतिशत 34 तक आ गया था. वर्तमान लोकसभा में 43 फीसदी सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है. मनमनोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने शपथ पत्र में कहा था कि किसी पर आपराधिक आरोप है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि उस मंत्री नहीं बनाया जा सकता है.

यह अपने आप में बहुत बड़ा विरोधाभास है कि किसी अधिकारी को आपराधिक मामले में दोषी ठहराया जाता है तो उन्हें सेवा से हटाया जाता है, लेकिन जनप्रतिनिधियों को लेकर कानून की आड़ ली जा रही है. यह तो संविधान प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट में इस बाबत एक याचिका लंबित भी है. केंद्र सरकार का कहना है कि जनसेवक शपथ से बंधे होते हैं, वे किसी सेवा से बंधे नहीं होते हैं. किसी की भी सरकार हो, इस मामले पर एक जैसा स्टैंड है. एक तरीके से इनकी वजह से संसद की गरिमा लगातार गिर रही है.

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