भरतपुर. केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान ने 38 वर्ष पूर्व विश्व पटल पर अपनी एक अलग पहचान बनाई और वर्ल्ड हेरिटेज साइट की लिस्ट में अपना नाम दर्ज कराया. 3 नदियों का भरपूर पानी, कई किलोमीटर तक फैली वेटलैंड और उसमें प्रवास करने वाले सैकड़ों प्रजातियों के हजारों पक्षियों को देखने के लिए सात समंदर पार से सैलानी खींचे चले आते थे. लेकिन अब घना के लिए विश्व विरासत का दर्जा बचाए रखना चुनौती बन गया है.
पिछले दो दशक से घना को जल राजनीति का सामना करना पड़ रहा है. इसके कारण घना को मिलने वाला प्राकृतिक जल स्रोतों का पानी बंद हो गया. पानी की कमी के चलते साइबेरियन सारस समेत कई प्रजाति के पक्षियों ने यहां से मुंह मोड़ लिया. कई वन्य जीवों की प्रजातियां लुप्त हो गईं. यहां के हालात की जानकारी इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) तक पहुंची, जिसके बाद तीन सदस्यीय टीम निरीक्षण के लिए भरतपुर पहुंची है.
पहले ऐसे मिलता था भरपूर पानी : पर्यावरणविद डॉ सत्यप्रकाश मेहरा ने बताया कि पहले घना को बाणगंगा नदी, पांचना बांध व गम्भीरी नदी और रूपारेल से भरपूर पानी मिलता था. प्राकृतिक जल स्रोतों से पानी मिलने की वजह से इसमें भरपूर मात्रा में फूड भी आता था. इसकी वजह से हजारों पक्षी यहां खींचे चले आते थे. दो दशक पूर्व से प्राकृतिक जलस्रोतों पर मानवीय हस्तक्षेप बढ़ना शुरू हुआ और फिर पानी को लेकर राजनीति होने लगी.
जल राजनीति और अतिक्रमण :
1. बाणगंगा नदी : वर्षों पहले तक मध्य अरावली से बरसात के मौसम में बाणगंगा नदी का पानी घना तक पहुंचता था. जयपुर में जमवारामगढ़ बनने और कम बरसात के चलते बाणगंगा का पानी घना तक पहुंचना बंद हो गया.
2. गम्भीरी नदी/पांचना बांध : करौली की तरफ से गम्भीरी नदी का पानी और पांचना बांध के ओवरफ्लो का पानी भी घना तक पहुंचता था. स्थानीय राजनीति के चलते पांचना बांध की दीवारें ऊंची कर दी गईं. ऐसे में यहां से भी बरसात के मौसम में घना को पानी मिलना बंद हो गया.
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3. रूपारेल नदी : घना में पहले अलवर, हरियाणा और मेवात की तरफ से आने वाली रूपारेल नदी से भी पानी पहुंचता था. अलवर में अरावली व अन्य बहाव क्षेत्रों में अतिक्रमण आदि के चलते रूपारेल नदी में पानी कम हो गया. अब रूपारेल का पानी भी घना तक नहीं पहुंच पाता है.
इन पक्षियों ने बनाई दूरी
- साइबेरियन सारस : केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान की विश्वस्तरीय पहचान साइबेरियन सारस की वजह से हुई थी, लेकिन वर्ष 2002 के बाद से केवलादेव घना में साइबेरियन सारस ने आना बंद कर दिया.
- लार्ज कॉरवेंट : पहले यह पक्षी अच्छी संख्या में घना आया करता था और घना में पेड़ों पर घोंसला बनाकर प्रजनन और प्रवास करता था. लेकिन यह पक्षी अब नहीं आता.
- पेंटेड स्टॉर्क: पहले करीब 10 हजार की संख्या में पेंटेड स्टॉर्क आते थे, लेकिन अब मुश्किल से 2 या ढाई हजार ही आ रहे हैं.
- मार्वल टेल : यह पक्षी भी पहले घना में दिखाई देते थे लेकिन बीते कुछ समय से इसने भी आना बंद कर दिया.
- रिंग टेल्ड फिशिंग ईगल : ये पक्षी तिब्बत से आता था, लेकिन अब बिल्कुल दिखाई नहीं देता.
- ब्लैक नेक स्टॉर्क: पहले अच्छी संख्या में ब्लैक नेक स्टॉर्क घना में आता था, लेकिन अब सिर्फ एक जोड़ा ही नजर आता है.
- कॉमन क्रेन : पहले घना में हजारों की संख्या में कॉमन क्रेन आते थे लेकिन अब मुश्किल से 8-10 नजर आते हैं. इसके अलावा ऑटर, फिशिंग कैट और काले हिरण यहां अच्छी संख्या में पाए जाते थे जो अब देखने को ही नहीं मिलते.
जल संकट का असर : डॉ सत्यप्रकाश मेहरा ने बताया कि जल संकट के चलते यहां का हेबिटेट प्रभावित हुआ है. इसके चलते केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान से अब कई प्रजाति के पक्षियों ने पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया है. पहले कई प्रजाति के पक्षी केवलादेव घना में अच्छी तादाद में देखने को मिलते थे, लेकिन अब वो कहीं नजर नहीं आते. घना में जल संकट के चलते यहां की मुख्य पहचान यानी वेटलैंड भी सिमट रहा है. 29 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले घना में 11 वर्ग किमी क्षेत्र वेटलैंड था, लेकिन जल संकट के चलते अब सिर्फ 8 वर्ग किमी क्षेत्र में रह गया है. इसका असर यहां की जैव विविधता पर भी पड़ रहा है.
सिमट रहा वेटलैंड: केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान रियासतकाल में शिकारगाह हुआ करता था. वर्ष 1956 तक यहां आखेट होता रहा. आखिर में सन 1981 में घना एक उच्च स्तरीय संरक्षण दर्जा प्राप्त कर राष्ट्रीय पार्क के रूप में स्थापित हुआ. सन 1985 में उद्यान को विश्व विरासत स्थल का दर्जा दिया गया. अभी भी समय रहते यदि घना के जल प्रबंधन को सुधार कर पर्याप्त पानी की उपलब्धता हो जाए तो विश्व विरासत को बचाया जा सकता है.