नई दिल्ली: केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि राष्ट्रीय चरित्र को देखते हुए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता. केंद्र की लिखित दलीलें सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष आईं, जिसने पांच न्यायाधीशों की पीठ की ओर से 1968 के फैसले की वैधता की जांच करने के लिए याचिकाओं की सुनवाई शुरू की. बता दें कि 1968 के फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की अल्पसंख्यक स्थिति को छीन लिया था.
मेहता के लिखित निवेदन में कहा गया कि एएमयू किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय का विश्वविद्यालय नहीं है और न ही हो सकता है क्योंकि कोई भी विश्वविद्यालय जिसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया है वह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है. मंगलवार को याचिकाकर्ता पक्ष ने अपनी दलीलें शुरू कीं. केंद्र को अभी भी अदालत में अपने बिंदुओं पर बहस करनी है.
केंद्र सरकार ने अपने सबमिशन में कहा है कि एएमयू हमेशा से राष्ट्रीय महत्व की संस्था रही है, यहां तक कि स्वतंत्रता-पूर्व युग में भी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना से जुड़े दस्तावेजों और यहां तक कि तत्कालीन मौजूदा विधायी स्थिति के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि एएमयू हमेशा से एक राष्ट्रीय महत्व की संस्था थी. इसका एक राष्ट्रीय चरित्र है.
मेहता ने अपनी लिखित प्रस्तुति में कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय का विश्वविद्यालय नहीं है और न ही हो सकता है क्योंकि भारत के संविधान द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित कोई भी विश्वविद्यालय, परिभाषा के अनुसार, अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है.
केंद्र की तरफ से कहा गया है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे बड़े राष्ट्रीय संस्थान को अपनी धर्मनिरपेक्ष उत्पत्ति को बनाए रखना चाहिए. पहले राष्ट्र के बड़े हित की सेवा करनी चाहिए. राष्ट्रीय महत्व के अन्य संस्थानों के साथ राष्ट्रीय महत्व की संस्था होने के बावजूद, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक अलग प्रवेश प्रक्रिया होगी.
शीर्ष अदालत अनुच्छेद 30 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मापदंडों से संबंधित कानून के सवालों पर निर्णय ले रही है. क्या संसदीय कानून की ओर से स्थापित केंद्रीय वित्त पोषित विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में नामित किया जा सकता है.