हैदराबाद : उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम बनाने का उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना था. मगर यह अधिनियम उत्पादों की गुणवत्ता में समझौता, अनैतिक व्यापार प्रथाओं और भ्रामक विज्ञापनों के उन्मूलन के अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल हो रहा है.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भारत में पहली बार साल 1986 में लागू किया गया था. पिछले साल जुलाई में, इसकी जगह नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ. उम्मीद की गई थी कि नया कानून लागू होने के बाद उपभोक्ता विवाद समाधान फोरम विभिन्न स्तरों पर अस्तित्व में आएंगे और मिलावटी व नकली सामान बेचने पर छह महीने तक के कारावास के साथ एक लाख रुपये का जुर्माना लगेगा.
सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में कहा गया है कि कानून के कार्यान्वयन की जमीनी हकीकत इसके स्पष्ट उद्देश्यों से उलट है. याचिका में यह भी कहा गया है कि राज्य और जिला उपभोक्ता फोरम्स में कई पद रिक्त हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य सरकारों से उपभोक्ता फोरम में खाली पड़े पदों पर भर्ती प्रक्रिया को तुरंत शुरू करने का आह्वान किया है.
पुराने उपभोक्ता कानून में प्रावधान था कि फोरम के संज्ञान में मामला आने के बाद उपभोक्ता शिकायतों को तीन महीने के भीतर सुलझा लिया जाना चाहिए. लेकिन, व्यवहार में मामलों को सुलझाने में दो से तीन साल लग जाते थे.
याचिकाकर्ता ने अपनी पीआईएल में जिला और राज्य फोरम्स में रिक्तियों के सभी विवरणों का खुलासा किया है. जिसके मुताबिक, कर्नाटक में उपभोक्ता मामलों के विवाद को सुलझाने में सात साल तक लगे.
नवंबर, 2020 तक इकट्ठा की गई जानकारी के अनुसार, अकेले राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम में 21,000 से अधिक मामले लंबित हैं. रिक्त पदों पर भर्तियां नहीं होने के कारण राज्य स्तर के फोरम में 1.25 लाख मामले लंबित हैं. वहीं, जिला स्तर के फोरम में इसका तीन गुना मामले लंबित हैं. इससे पता चलता है कि उपभोक्ता विवादों को सुलझाने में हमारी सरकारें कितनी गंभीर हैं.
औद्योगिक देशों में छह से सात दशक पहले उपभोक्ता अधिकारों के प्रति जागरूकता विकसित हुई थी. दुनिया भर में उपभोक्ता जागरूकता के प्रसार के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1985 में एक विशेष प्रस्ताव पारित किया था. इसके अगले वर्ष 1986 में, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भारत में अस्तित्व में आया. हालांकि, यह कानून उपभोक्ता अधिकारों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एक प्रणाली बनाने में विफल रहा.
साल 2019 में संसद से पारित हुआ नया कानून उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के निर्माण का आह्वान करता है. हालांकि, उपभोक्ता फोरम में रिक्त पदों के कारण यह कानून अप्रभावी साबित हो रहा है.
लगभग चार साल पहले, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में जिला उपभोक्ता फोरम में की गई राजनीतिक नियुक्तियों की कड़ी निंदा की थी. अदालत ने देशभर में उपभोक्ता फोरम की मौजूदा स्थिति का पता लगाने के लिए न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत (Arijit Pasayat) के नेतृत्व में एक समिति भी नियुक्त की थी.
सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता फोरम में राजनीतिक नियुक्तियों पर सख्त नाराजगी जाहिर की और हरियाणा जैसे राज्यों में फोरम में समूहवाद की ओर भी इंगित किया. अदालत ने सभी राज्यों में सुविधाओं की कमी पर अफसोस जताया.
कई जगहों पर उपभोक्ता शिकायतों से संबंधित फाइलें दीमक का भोजन बन रही हैं. यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि भारत में उपभोक्ता संरक्षण आंदोलन कितना भटक गया है.
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नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी फोरम में रिक्त पद होने से कम से कम छह महीने पहले भर्ती प्रक्रिया शुरू करने को कहता है. साथ ही इसने चयन पैनल नियुक्त करने की प्रक्रिया को निर्धारित किया है.
तेलंगाना, ओडिशा और दिल्ली के उच्च न्यायालयों ने संबंधित राज्य सरकारों को जिला उपभोक्ता फोरम में रिक्त पदों को भरने के लिए नोटिस जारी किया है, लेकिन संबंधित सरकारों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.
दुनियाभर में, कई देश उन सुधारों के लिए उत्सुक हैं, जो उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा करते हैं. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि भारत में, अदालती हस्तक्षेप के बाद भी उपभोक्ता फोरम में रिक्त पदों पर भर्तियां नहीं हो रही हैं.