नई दिल्ली : भारत के संविधान में राज्यपाल को कुछ शक्तियां प्रदान की गई हैं. लेकिन कई बार इन शक्तियों के प्रयोग पर सवाल भी उठे हैं. उनका किन-किन परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है, इस पर लंबी कानूनी बहस होती रही है. सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले पर कई बार कड़ी टिप्पणी कर चुका है. दरअसल, विवाद की मुख्य वजह है राज्यपाल को मिले कुछ विशेष विशेषाधिकार.
इसके परिप्रेक्ष्य में ही प्रभावित पक्ष बार-बार कोर्ट की शरण में जाते हैं और वहां से उन्हें नई दिशा मिलती रही है. आइए, एक नजर डालते हैं ऐसे ही कुछ मामलों पर जहां राज्यपालों की भूमिका पर प्रभावित पक्षों ने कोर्ट की शरण ली.
आंध्र प्रदेश
1983 में पहली बार आंध्र प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट को उस समय दखल देना पड़ा, जब राज्यपाल ठाकुर राम लाल ने बहुमत हासिल कर चुकी एन.टी. रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. रामाराव हार्ट सर्जरी के लिए अमेरिका गये हुए थे. राज्यपाल ने सरकार के वित्त मंत्री एन. भास्कर राव को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया.
अमेरिका से लौटने के बाद एन.टी. रामराव ने राज्यपाल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इसके बाद केंद्र सरकार को बाध्य होकर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाना पड़ा. सत्ता संभालने के बाद नये राज्यपाल ने एक बार फिर आंध्र प्रदेश की सत्ता एन.टी. रामाराव के हाथों में सौंप दी.
कर्नाटक
कर्नाटक में 1988 में जनता पार्टी की सरकार बनी और रामकृष्ण हेगड़े सीएम बने, लेकिन टेलीफोन टैपिंग मामले में नाम आने के बाद हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा और उनके बाद एसआर बोम्मई राज्य के मुख्यमंत्री बने.
लेकिन कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी. वेंकटसुबैया ने बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. राज्यपाल ने कहा कि सरकार विधानसभा में बहुमत खो चुकी है. राज्यपाल के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी. फैसला बोम्मई के हक में आया और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनायी.
उत्तर प्रदेश
सन् 1998 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार थी. 21 फरवरी को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने सरकार को बर्खास्त कर दिया. नाटकीय घटनाक्रम के बीच जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी. इस फैसले को कल्याण सिंह ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दिया. जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने.
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बिहार
इसी प्रकार 2005 में बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल थे. उन्होंने 22 मई 2005 की मध्यरात्रि को बिहार विधानसभा भंग कर दी. उस साल फरवरी में हुए चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ था. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ में था. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.
बूटा सिंह ने तब राज्य में लोकतंत्र की रक्षा करने और विधायकों की खरीद-फरोख्त रोकने की बात कह कर विधानसभा भंग करने का फैसला किया. इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी, जिस पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक करार दिया था.
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में 9 दिसम्बर 2016 को कांग्रेस के बागी विधायकों का एक समूह अरुणाचल के राज्यपाल जेपी राजखोवा से स्पीकर के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए मिलने गया. इसका कांग्रेस ने राज्यसभा में विरोध प्रदर्शन किया. लेकिन मोदी सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया. बाद में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के साथ राष्ट्रपति शासन हटा दिया गया और कोर्ट ने बागी कांग्रेस विधायकों की दलीलों को खारिज कर दिया.
उत्तराखंड
मार्च 2016 में 9 कांग्रेस विधायकों ने 26 बीजेपी विधायकों सहित उत्तराखंड में हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांगेस सरकार के खिलाफ विद्रोह किया, जिन्हें बाद में अयोग्य घोषित कर दिया गया. इसके बाद राज्यपाल के.के. पॉल ने पीएम मोदी से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए कहा. लेकिन उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एम. जोसेफ ने राष्ट्रपति शासन को खारिज कर दिया और रावत ने अपना बहुमत साबित कर दिया.
कर्नाटक
सितम्बर 2010 में बी.एस. येदियुरप्पा सरकार के 16 बागी विधायकों को स्पीकर के.जी. बोपिहा ने फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाया और बागी विधायकों को सस्पेंड कर दिया. लेकिन येदियुरप्पा ने वॉइस वोट के माध्यम से बहुमत हासिल कर लिया. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर की निंदा की.
झारखंड
झारखंड में एनडीए के समर्थन में 41 विधायकों के समर्थन के बावजूद राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना करने वाले शिबू सोरेन को नया सीएम बनाया. यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. सोरेन सदन में बहुमत साबित करने में नाकाम रहे और भाजपा के अर्जुन मुंडा को शपथ दिलायी गयी.
महाराष्ट्र
23 नवम्बर 2019 को महाराष्ट्र में राज्यपाल ने भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को सरकार बनाने का न्योता दिया. इसके बाद देवेंद्र और अजित पवार ने सीएम और डिप्टी सीएम पद की शपथ ली. विपक्षी पार्टियों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.