कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी दुनिया के लिए बुरी खबर है. इसके कारण हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं. लाखों लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा है और इसने वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं पर काफी बुरा असर डाला है. भारत भी इन विनाशकारी घटनाओं से अछूता नहीं है.
हालांकि, इस उथल-पुथल में भी उम्मीद की किरण नजर आती है. कम से कम, भारतीय मीडिया ने पहली बार, सबका ध्यान स्वास्थ्य के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है. भारतीय मीडिया के बड़े-बड़े दिग्गज किसी भी श्रेणी के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रकाश में लाने की कोशिश में जुट गए हैं, चाहे वह डॉक्टर हों, पैरा मेडिकल स्टाफ हों, या फिर तकनीज्ञ या सेनेटरी कर्मचारी.
हर बार, जब कोई समाचार पत्र स्वास्थ्यकर्मियों के लिए एक कॉलम समर्पित करता है, रेडियो उन पर एक कार्यक्रम प्रसारित करता है या टेलीविजन चैनल स्वास्थ्य कर्मचारियों की प्रशंसा करते हुए जीत के गीत गाते हैं, तब कुछ आशा नजर आती है. आशा इसलिए, क्योंकि भारत में स्वास्थ्य के मुद्दे को कभी प्राथमिकता मिली ही नहीं. मीडिया द्वारा तो कभी भी नहीं. स्वास्थ्य पर कवरेज ज्यादातर घटना आधारित रहा है.
एक मीडियाकर्मी के रूप में, एक दशक से अधिक समय तक सार्वजनिक स्वास्थ्य को कवर करने के बाद, कोई भी कह सकता है कि स्वास्थ्य से जुड़ी कहानियों को आगे बढ़ाने में सबसे ज्यादा मुश्किल का सामना करना पड़ा है. विज्ञापनों की प्रतिस्पर्धा में ये कहानियां कभी अपनी जगह नहीं पा सकीं और राजनीतिक खबरों और शहर में होने वाले जुर्मों की खबरों की जगह बनाने के लिए सबसे पहले दरकिनार कर दी गईं. मीडिया में प्रमुख रूप से स्वास्थ्य सुविधाओं को जगह सिर्फ संकट के समय मिलती है. संकट से मतलब है या तो मृत्यु या सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का कुल पतन.
2003 में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) और 2005 में एच1एन1, डेंगू और चिकनगुनिया का प्रकोप स्वास्थ्य से जुड़ी कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जो कोविड-19 से पहले सुर्खियों में छा चुकी हैं. तब भी, स्वास्थ्यकर्मियों की भूमिका पर शायद ही ध्यान केंद्रित किया गया था. कहानियां नश्वरता, रुग्णता और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के बारे में थीं जिन्होंने लोगों को बेहद निराश किया था.
जब समाचार पत्रों ने स्वास्थ्य पर लिखना शुरू किया, तो ज्यादातर जीवन शैली को विषय बनाया जो मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी जीवन शैली की बीमारियों पर आधारित थे. बाद में, कुछ लोगों द्वारा अनुसंधान का तड़का लगाया गया. टीवी पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम ज्यादातर निजी अस्पतालों और दवा कंपनियों द्वारा प्रायोजित किए जाते थे.
भारत में मीडिया के लिए स्वास्थ्य की वकालत एक समान रूप से कठिन प्रस्ताव है. केवल कुछ प्रमुख समाचार पत्रों के पास स्थान या स्वास्थ्य रिपोर्टर हैं जो स्वास्थ्य के मुद्दों पर संवेदनशील हैं, फिर वही बात सामने आती है कि स्वास्थ्य का मुद्दा मीडिया के लिए प्राथमिकता है ही नहीं. ये सच है कि लोगों को ऐसी कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं है. मीडिया कर्मियों के साथ हुई निजी बातचीत से यह स्पष्ट है कि संपादक को स्वास्थ्य से जुड़ी कहानी बेचना मुश्किल होता है क्योंकि उसी स्थान पर अखबार में एक विज्ञापन लगाकर कर्मचारियों के वेतन के लिए पैसे मिल जाते हैं!
स्वास्थ्य कर्मियों की प्रतिबद्धता के बारे में चर्चा- उनमें से ज्यादातर- को 'अप्रासंगिक' माना जाता है क्योंकि सभी का मानना है कि यह उनका काम है और इसके लिए उन्हें तनख्वाह मिलती है.' तकनीशियन तो मीडिया के लिए कभी भी मौजूद नहीं थे जब तक कि वे अपनी मांगों को पूरा करने के लिए हड़ताल पर जा जायें.
स्वास्थ्य कर्मियों की अपनी ड्यूटी से आगे बढ़कर काम करने की कहानियों को अक्सर समाचार पत्र के संपादक द्वारा खानापूर्ति के रूप में या 'एहसान' के रूप में प्रकाशित किया जाता रहा है. तो, इस बार ऐसा क्या हुआ कि स्वास्थ्य कर्मियों की तुलना भगवान से की गई! क्या ये वही लोग नहीं हैं जो 'सिर्फ अपना काम कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें तनख्वाह मिलती रही है? यह स्वास्थ्य कर्मी है जो एचआईवी / एड्स, सार्स, एच1एन1 यहां तक कि तपेदिक से भी निपटते रहे हैं. लेकिन उनके प्रति प्रतिक्रिया कभी भी ऐसी नहीं थी जैसा कि अब है.
भारत में किसी भी अन्य बीमारी की तुलना में सालाना सबसे अधिक मौतें तपेदिक से होती हैं. कई महिलाएं गर्भावस्था और बच्चे को जन्म देने के दौरान मर जाती हैं और सड़क दुर्घटनाओं में बहुत अधिक मृत्यु होती हैं. मगर इस बात से किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है. इसे एक आम बात के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है.
तपेदिक विश्व टीबी दिवस पर मीडिया में जगह पाता है जब वार्षिक रिपोर्ट जारी की जाती है. यह वही स्वास्थ्य कर्मचारी हैं जो टीबी रोगियों का इलाज करते हैं और उनसे निपटते हैं, जिनमें से कई जिद्दी होते हैं और नियमित रूप से दवा लेने से मना कर देते हैं. उनमें से कुछ लोग इतने कुपोषित हैं कि वे दवाओं के दुष्प्रभाव को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. अशिक्षा और अज्ञानता एक और युद्ध है, जो ये स्वास्थ्यकर्मी हर दिन ड्यूटी पर रहते हुए लड़ते हैं. शायद ज्यादातर भारतीयों ने अस्वच्छ माहौल में जीना अपनी नियति मान लिया है या आजतक कोई भी चुनाव स्वास्थ्य के मुद्दे पर नहीं लड़ा गया और किसी भी सरकार को स्वास्थ्य गंभीर विषय नहीं लगा, जिसे विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सके. कुछ बेतरतीब कदम उठाए गए, लेकिन इनका उद्देश्य कभी भी जागरूकता पैदा करना नहीं था. अगर ऐसा होता तो लोग आज भी यहां–वहा थूक नहीं रहे होते जो संक्रमण फैलने का मुख्य कारण हैं.
लेकिन हम फिर उसी सवाल पर वापस आते हैं. अगर स्वास्थ्यकर्मी अब भगवान की तरह जीवन की रक्षा कर रहे हैं, तो क्या वे इस समय से पहले ऐसा नहीं कर रहे हैं? मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) वर्षों से, समुदाय में सालों से बेहतर स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के कार्यों में शामिल रही हैं – वही कार्य, जिन्हें अब जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है - जैसे कि स्वच्छता, व्यक्तिगत स्वच्छता और हाथ धोना.
अलग-अलग लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं. यह ज्यादातर राजनीतिक नेतृत्व, इस भयावह बीमारी से संक्रमित होने का डर और यहां तक कि चौबीस घंटे मीडिया द्वारा दिखाई जानने वाली खबरें लोगों के दिमाग पर हावी हैं. अभूतपूर्व परिस्थितियां, अभूतपूर्व प्रतिक्रियाओं की मांग करती हैं, और इसलिए स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छता और सुरक्षाकर्मियों के लिए यह अभूतपूर्व आभार दर्शाया जा रहा है. किसी भी दवा के अभाव में, और दुनिया की सबसे अच्छी स्वास्थ्य प्रणालियों को ढहते हुए देखकर, हर कोई जीवन को बचाने के लिए उन पर निर्भर है.
कारण चाहे जो भी हो, दुनिया कोविड-19 के खिलाफ युद्ध जीतने के लिए एक साथ आई है, और किसी को भी यह संदेह नहीं है कि इस लड़ाई में जिस तरह के संसाधन और राजनीतिक प्रतिबद्धताएं नजर आ रही हैं, जीत निश्चित होगी.
हम आशा करते हैं कि इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट के, जिसने समुदाय को स्वास्थ्य के महत्व का एहसास कराया है, बाद इस मुद्दे को उठाना भारतीय मीडिया के लिए प्राथमिकता होगी.
आलेख- आरती धर