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हिमाचल प्रदेश के हाटकोटी में है चमत्कारी मंदिर, 700-800 वर्ष पहले हुआ निर्माण

ईटीवी भारत की खास सीरीज 'अद्भुत हिमाचल' में हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताएंगे जहां एक कलश की अद्भुत कहानी यहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचती है.

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प्राचीन मंदि
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Published : Jan 10, 2020, 11:49 PM IST

शिमला: जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी का प्राचीन मंदिर है. यह शिमला से लगभग 110 किमी. की दूरी पर स्थित है. मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था.

माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है. मूलरूप से यह मंदिर शिखर आकार नागर शैली में बना हुआ था, लेकिन बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया.

मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमें मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है. यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है. इतनी विशाल प्रतिमा हिमाचल में ही नहीं बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती. प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

क्या है मान्यता
यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं. मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाईं ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है. चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है. कहा जाता है कि इस जंजीर का दूसरा सिरा मां के पैरों से बंधा है.

हिमाचल

मान्यता है कि सावन भादों में जब पब्बर नदी में अत्यधिक बाढ़ आती है तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियों की आवाज निकालता है और भागने का प्रयास करता है. इसलिए चरू को मां के चरणों के साथ बांधा गया है. लोककथाओं के मुताबिक मंदिर के बाहर दो चरू थे, लेकिन दूसरी ओर बंधा चरू नदी की ओर भाग गया था.पहले चरू को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था.

बता दें कि चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं. इनमें यज्ञ के दौरान ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है. कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, शादी का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरू लाकर उसमें भोजन रखा जाता था. कितना भी बांटने के बाद चरू से भोजन खत्म नहीं होता था.

यह है लोक गाथा
एक लोकगाथा के अनुसार देवी के संबंध में मान्यता है कि कई दशक पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं. उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी. उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी. दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है. उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई.

ये भी पढ़ें: अद्भुत हिमाचल: जटोली में जटाधारी शंकर की छटा, द्रविड़ शैली में बना है एशिया का ये सबसे ऊंचा शिव मंदिर

जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी. इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी. राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचे और इच्छा प्रकट करते हुए कहा कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया. उसके बाद से राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निर्णय किया और लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा.

शिमला: जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी का प्राचीन मंदिर है. यह शिमला से लगभग 110 किमी. की दूरी पर स्थित है. मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था.

माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है. मूलरूप से यह मंदिर शिखर आकार नागर शैली में बना हुआ था, लेकिन बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया.

मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमें मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है. यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है. इतनी विशाल प्रतिमा हिमाचल में ही नहीं बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती. प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

क्या है मान्यता
यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं. मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाईं ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है. चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है. कहा जाता है कि इस जंजीर का दूसरा सिरा मां के पैरों से बंधा है.

हिमाचल

मान्यता है कि सावन भादों में जब पब्बर नदी में अत्यधिक बाढ़ आती है तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियों की आवाज निकालता है और भागने का प्रयास करता है. इसलिए चरू को मां के चरणों के साथ बांधा गया है. लोककथाओं के मुताबिक मंदिर के बाहर दो चरू थे, लेकिन दूसरी ओर बंधा चरू नदी की ओर भाग गया था.पहले चरू को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था.

बता दें कि चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं. इनमें यज्ञ के दौरान ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है. कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, शादी का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरू लाकर उसमें भोजन रखा जाता था. कितना भी बांटने के बाद चरू से भोजन खत्म नहीं होता था.

यह है लोक गाथा
एक लोकगाथा के अनुसार देवी के संबंध में मान्यता है कि कई दशक पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं. उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी. उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी. दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है. उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई.

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जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी. इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी. राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचे और इच्छा प्रकट करते हुए कहा कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया. उसके बाद से राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निर्णय किया और लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा.

Intro:प्रदीप कुमार राही रोहड़ू 20-12-2019Body:वीओः-शिमला से लगभग 100 किलोमीटर की दुरी पर पूर्व में समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विष्णोई राईं नाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुर पहाड़ी के शिखर छोर पर प्राचीन हाटकोटी मंदिर समूह स्थित है जिसे हाटेश्वरी और हाटकेश्वरी मंदिर से भी जाना जाता है | तहसील जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी का प्राचीन मंदिर है। यह शिमला से लगभग 110 किमी की दूरी पर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर है। मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था। मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है मूलरूप से यह मंदिर शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। हाटकोटी मंदिर समूह में मुख्य मंदिर हाटेश्वरी माता के नाम से प्रसिद्ध है जिसमे महिषासुरमर्दिनी कि विशाल कांस्य मूर्ति स्थापित है | अष्टभुजा दुर्गा की मूर्ति शेर पर सवार तोरण से सुसज्जित है |
वीओः- मुख्य दरवाजे के बाहर एक झरोखे में बटुकनाथ गणपति प्रतिष्ठित है | नीचे सप्त्मात्रिकाएं उत्कीर्ण है | इनके नीचे खुर्दरे तीन पत्थर जिन पर ताम्बे का चरु रखा हुआ है जिसे लोहे कि जंजीर से बंधा गया जिसका एक मुख्य आर्कषण है । मंदिर के पुजारी को रात्री में स्वप्न हुआ कि पब्बर नदी में दो बड़े-बड़े ताम्र पात्र जिन्हें चरु कहते है,कि चिड़गांब तहसील के खरशाली जहाँ ये चरू बहते हुए हटकोटी की ओर आ रहे है | वह उठा और कुछ व्यक्तियों को लेकर नदी के किनारे चला गया | पहुँचते ही उसने देखा कि नदी में दो बड़े पात्र बहते उसकी ओर आ रहे है | उसने अपने साथियों के साथ उन्हें पकड़ा और दोनों को मंदिर के बाहर रख दिया | वे कई दिनों तक वहां रखे रहे | काफी समय बाद उसी तरह की भारी वर्ष हो रही थी तो दोनों कलश लुढक कर बाहर गिर गये | पुजारी ने एक को तो पकड लिया लेकिन दूसरा नदी कि ओर सरकता हुआ आँखों से ओझल हो गया जो कभी नही मिल पाया। जन श्रतियो के मुताबिक पुजारी ने पकडे हुए ताम्र पात्र को लोहे की जंजीर से मंदिर के साथ बाँध दिया। कहा जता की य़े चरू माँ के पैरो से बंदा है । किंदंतियो के अनुसार कि बरसात में जब भारी वर्षा होती है तो रात को इस कलश से सीटी की सी आवाजे आती है व ये चरू अपने स्थान को त्यागने का प्रयास करता है। पर माँ के तरणो के साथ बंदा होने के कारण भाग नही सकेते । ये बाते लोगो को आश्चर्य में डाले हुए है ।
वीओः-जहाँ देश प्रदेश के लोगों को माँ हाटकोटी पूर्ण आस्था है वही लोगों को माँ हाटकोटी मंदिर के मुख्य दरवाजे के लैफ्ट साईट रखे चरू ( तांबे से बने बड़ा पतिला व गोलिया) पर बहुत आस्था जब लोग मंदिर आते है तब श्रदालु माँ के दर्शनो के साथ इस चरू का भी दर्शन करते व कुछ न कुछ भेट इसमे डालते । कहा जाता है कि लोग जो मंन्नत चरू ( तांबे से बने बड़ा पतिला व गोलिया) के पास ऱखते है वे पुरी हो जाती है । ये चरू आने वाले श्रदालुओ के लिए का हमेशा आर्कषण का केन्द्र रहता है ।यहाँ के मुख्य पुजारी व माँ हाटकोटी के गुर ओमप्रकाश शर्मा इस बात से सहमत है ।
1वीओ बाईटः- माँ हाटकोटी मंदिर के पुजारी एंव गुर का कहना हे कि अपने पिता जी से कई बार कहते सुना है कि में दो बड़े पात्र बहते पब्बर नदी हाटकोटी की आ आए। उस वक्त के पुजारी व साथियो उन्हें पकड़ा और दोनों को मंदिर के बाहर रख दियाव कई दिनों तक वहां रखे रहे । काफी समय बाद उसी तरह की भारी वर्ष हो रही थी तो दोनों कलश लुढक कर बाहर गिर गये । पुजारी ने एक को तो पकड लिया लेकिन दूसरा नदी कि ओर सरकता हुआ आँखों से ओझल हो । आज भी जब बारी बारिश या कोई बड़ी आपदा आने वाली हो तो इस चरू मे भारी कंपन्न हो जाता कई बार सिटिया बी बजती है ।
बाईटः- ओमप्रकाश शर्मा
2 वीओ बाईटः- ओम प्रकाश ने कहा मंदिर मे पुजा के साथ -2 चरू की भी पुजा होती लोग इस पर काफी विश्वास करते है वइसकी भी मंन्नत करते है
बाईटः- ओमप्रकाश शर्मा
कुल 4 फाईल—
3 वीओ बाईटः- बाईच श्रदालू रमेश
4 वीओ बाईटः- श्रदालु पुरन चंद
वीओः- हाटकोटी प्राचीन समय में एक राजनैतिक और सांस्कृतिक नगरी के रूप में विकसित था इसका विकास पूर्व मध्यकाल में हुआ बताया जाता है । देवी की प्रतिमा इसी काल में निर्मित मानी जाती है। हिमाचल क्षेत्र के अधिकतर देवता माँ के भक्त है । महासू देवता जब भी यहाँ से गुजरता है तो वह माता के दरबार में अवश्य हाजरी लगाता है । किन्नौर के सांगला गाँव का बेरिंग नाग भी माता का भक्त है । शिरगुल देवता भी माँ का अनन्य भक्त माना जाता है जो समय-समय पर माता की शरण में आता है। देवता कोटेश्वर तो देवी को अपनी बहिन का दर्जा देता रहा है। माँ महिमा प्रदेश देश के ईलावा विदेशों मे ये स्थान प्रर्यटन के दृष्टी से भी महत्पूर्ण है
प्रदीप राही.......


Conclusion:माँ हटकोटी मंदिर के बहार लोहे कि जंजीर से बंधे चरू ( तांबे से बने बड़ा पतिला व गोलिया) का है अलग ही इतिहास दो चरू आए एक पकड़ा दुसरा छुटने मे कामयाब
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