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विशेष लेख : क्या एनसीआरबी के आंकड़े सच को छिपा रहे? - राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो

पिछले कुछ वर्षों से, हिंसक आपराधिक कृत्यों की मीडिया की सुर्खियों को राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में जगह नहीं मिली है. सत्ता में पार्टी की विचारधारा यह तय करती है कि रिपोर्ट किस तरह की चाहिए और अपराध की किस श्रेणी को कितना महत्व मिलना चाहिए.

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Published : Jan 21, 2020, 10:51 PM IST

Updated : Feb 17, 2020, 10:23 PM IST

आदर्श रूप से, अपराध की प्रकृति जिसे एनसीआरबी की नवीनतम (2019) रिपोर्ट 'क्राइम इन इंडिया' में प्रमुख स्थान मिलना चाहिए था, वह है भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या यानी लिंचिंग. यह 2018 की सबसे बड़ी आपराधिक घटना रही है. लिंचिंग में मुख्यतः मुस्लिमों को निशाना बनाया गया. कथित रूप से इस मामले को गो हत्या या गो मांस के व्यापार से जोड़ते हैं. वाट्सएप जैसी नई पीढ़ी के मैसेजिंग प्लेटफॉर्म इस तरह की नफरत की खबरों के वाहक हैं.

उत्तर भारत के गांवों में जिस तरह से गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है, उससे उपजे तनाव और हिंसा पर एनसीआरबी की रिपोर्ट कुछ नहीं कहती है. आवारा मवेशी, जो पहले बूचड़खानों में भेजे जाते थे, अब खेतों और घरों पर हमला करते हैं. रिपोर्ट में इस पर भी कुछ नहीं कहा गया है. धर्म के आधार पर प्रतिक्रिया ना हो जाए, लिहाजा ऐसे आवारा जानवरों पर कार्रवाई को लेकर असमंजस की स्थिति है. इससे खेती की जमीन पर समस्या आ गई है.

आक्रोशित ग्रामीणों के बीच आदर्श रूप से टकराव को ग्रामीण दंगों की श्रेणी में डाल दिया जाना चाहिए था, लेकिन इस रिपोर्ट के फ्रेमरों द्वारा इसे असुविधाजनक पाया गया. एनसीआरबी में 2016 तक 'कृषि दंगों' की एक उप-श्रेणी थी. इसमें 2014 में 628 मामलों की शिकायत की गई थी. लेकिन 2015 में इसकी संख्या बढ़कर 2683 हो गई. 327 फीसदी की वृद्धि देखी गई. इसके बाद इस श्रेणी को एनसीआरबी ने हटा दिया. माना जाता है कि ग्रामीण रोजगार घटने और जमीन विवाद बढ़ने की वजह से इस तरह के दंगों में वृद्धि हुई.

वैसे, एनसीआरबी से किसी भी श्रेणी के लापता होने की सामान्य व्याख्या यह है कि घटनाएं महत्वपूर्ण संख्या में नहीं थीं और इसलिए उन्होंने विशेष जोर नहीं दिया. कृषि संकट बढ़ने और किसानों द्वारा अपनी खेदजनक दुर्दशा का नोटिस लेने के लिए आंदोलन करने के लिए सामने आने के बावजूद आश्चर्यजनक है कि रिपोर्ट ने इसे कैसे खत्म कर दिया.

कृषि क्षेत्र एक संवेदनशील क्षेत्र है. सरकारों ने यह समझाने के लिए संघर्ष किया है कि किसानों को आत्महत्या करने के लिए क्या प्रेरित करता है. 1991 में आर्थिक सुधार और नकद खेती को प्रोत्साहित करने के बाद इस घटना में बढ़ोतरी हुई. किसान उच्च लाभ के मोह में साहूकारों से कर्ज लेते हैं और फिर सिंचाई के अभाव में या पेस्टसाइड या फिर मॉनसून की कमी की वजह से जब उनकी खेती चौपट हो जाती है, तो किसान को आत्महत्या करने की ओर धकेल दिया जाता है.

2018 के आंकड़े बताते हैं कि कृषि आत्महत्याओं की संख्या में गिरावट आई है. इसके विपरीत बेरोजगार युवाओं द्वारा आत्महत्याएं 12,936 तक बढ़ गई हैं, भले ही हम इसकी तुलना पूर्ववर्ती वर्ष 2017 से करें. यह आंकड़ा अधिकांश सरकारों के लिए अप्राप्य है, लेकिन पिछले 42 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी की रिपोर्ट तो सबको झकझोर देती है. क्या सरकार इसे अगली एनसीआरबी रिपोर्ट में दिखाएगी.

महिलाओं के खिलाफ आंकड़ा भी सरकार को डराता है. 2018 में भारत में हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार किया गया. 94 प्रतिशत अपराधी पीड़िता के जान पहचान के थे. पंजीकृत मामलों की कुल संख्या 33, 356 थी. यह संख्या काफी कम है. यह हमारे लिए शर्म की बात है. दुख की बात ये है कि कई मामलों की रिपोर्टिंग होती ही नहीं है. पीड़िता को लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं होगा, उलटे बदनामी होगी. ग्रामीण इलाकों में होने वाली ऐसी घटनाओं पर पुलिस का अलग नजरिया होता है.

कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के कुछ लोगों के खिलाफ बलात्कार के आरोपों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था. तब उन्होंने कहा था कि लड़के तो लड़के होते हैं. 2012 में राष्ट्रव्यापी आंदोलन के बाद भी सामंती भारत में राजनीतिक वर्गों का रवैया अपरिवर्तित रहा है. देखिए उन्नाव बलात्कार पीड़िता के साथ क्या हुआ. उसने सत्ताधारी दल के एक नेता का नाम लिया. संयोग ये है कि वह यूपी से हैं, जहां महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक हिंसा होती है.

तहजीब के शहर लखनऊ में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. वैसे बलात्कार के मामलों में यूपी का तीसरा स्थान है. 5,433 पीड़ितों के साथ बदनामी की सूची में एमपी सबसे ऊपर है.

राजनीतिक स्थिरता और माफिया की कोई उपस्थिति नहीं होने के बावजूद, पटना में हत्या की दर 19 महानगरों में सबसे ज्यादा है. एक लाख की आबादी पर 4.4 हत्या. वैसे, बिहार पुलिस दावा करती है कि राज्य में अपराध दर कम हुआ है. इसमें बलात्कार भी शामिल है.

एनसीआरबी के अनुसार नकली मुद्रा की समस्या से निबटने में भी कामयाबी नहीं मिली. शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि संदिग्ध लेनदेन में 480 प्रतिशत की उछाल हुई. 2016 के बाद दो हजार के नोटों का चलन शुरू किया गया. लेकिन अब ऐसे नोट भी कम छापे जा रहे हैं. अभी जितनी भी नकली करेंसी छापी जा रही है, उसका 56 फीसदी दो हजार के नोट से जुड़ा है.

इन सभी विफलताओं के बावजूद, क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट 2016 के बाद से एक प्रवृत्ति को दोहराती है कि अपराध दर में एक नाटकीय गिरावट आई है. 2013 में अपराध लगभग 540 विषम दिखाया गया था, लेकिन 2016 में यह 35 प्रतिशत घटकर 379.3 प्रतिशत हो गया. 2018 में, यह 388 प्रतिशत पर है. सरकार से निकलने वाले अधिकतर आंकड़ों को करीब से पढ़ने की भी जरूरत है. अपराध दर में गिरावट ने बहुत कुछ बदल दिया है. यह निर्भर करता है हम अपराध को किस नजरिए और किस तरीके से देखते हैं. उसका अध्ययन कैसे करते हैं. आंकड़े दिखाने के लिए होने चाहिए, ना कि छिपाने के लिए. अफसोस ये है कि एनसीआरबी का उद्देश्य आंकड़ों की सच्चाई दिखाना कम, और अपराध की घटनाओं को छिपाना अधिक है.

(लेखक - संजय कपूर)

आदर्श रूप से, अपराध की प्रकृति जिसे एनसीआरबी की नवीनतम (2019) रिपोर्ट 'क्राइम इन इंडिया' में प्रमुख स्थान मिलना चाहिए था, वह है भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या यानी लिंचिंग. यह 2018 की सबसे बड़ी आपराधिक घटना रही है. लिंचिंग में मुख्यतः मुस्लिमों को निशाना बनाया गया. कथित रूप से इस मामले को गो हत्या या गो मांस के व्यापार से जोड़ते हैं. वाट्सएप जैसी नई पीढ़ी के मैसेजिंग प्लेटफॉर्म इस तरह की नफरत की खबरों के वाहक हैं.

उत्तर भारत के गांवों में जिस तरह से गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है, उससे उपजे तनाव और हिंसा पर एनसीआरबी की रिपोर्ट कुछ नहीं कहती है. आवारा मवेशी, जो पहले बूचड़खानों में भेजे जाते थे, अब खेतों और घरों पर हमला करते हैं. रिपोर्ट में इस पर भी कुछ नहीं कहा गया है. धर्म के आधार पर प्रतिक्रिया ना हो जाए, लिहाजा ऐसे आवारा जानवरों पर कार्रवाई को लेकर असमंजस की स्थिति है. इससे खेती की जमीन पर समस्या आ गई है.

आक्रोशित ग्रामीणों के बीच आदर्श रूप से टकराव को ग्रामीण दंगों की श्रेणी में डाल दिया जाना चाहिए था, लेकिन इस रिपोर्ट के फ्रेमरों द्वारा इसे असुविधाजनक पाया गया. एनसीआरबी में 2016 तक 'कृषि दंगों' की एक उप-श्रेणी थी. इसमें 2014 में 628 मामलों की शिकायत की गई थी. लेकिन 2015 में इसकी संख्या बढ़कर 2683 हो गई. 327 फीसदी की वृद्धि देखी गई. इसके बाद इस श्रेणी को एनसीआरबी ने हटा दिया. माना जाता है कि ग्रामीण रोजगार घटने और जमीन विवाद बढ़ने की वजह से इस तरह के दंगों में वृद्धि हुई.

वैसे, एनसीआरबी से किसी भी श्रेणी के लापता होने की सामान्य व्याख्या यह है कि घटनाएं महत्वपूर्ण संख्या में नहीं थीं और इसलिए उन्होंने विशेष जोर नहीं दिया. कृषि संकट बढ़ने और किसानों द्वारा अपनी खेदजनक दुर्दशा का नोटिस लेने के लिए आंदोलन करने के लिए सामने आने के बावजूद आश्चर्यजनक है कि रिपोर्ट ने इसे कैसे खत्म कर दिया.

कृषि क्षेत्र एक संवेदनशील क्षेत्र है. सरकारों ने यह समझाने के लिए संघर्ष किया है कि किसानों को आत्महत्या करने के लिए क्या प्रेरित करता है. 1991 में आर्थिक सुधार और नकद खेती को प्रोत्साहित करने के बाद इस घटना में बढ़ोतरी हुई. किसान उच्च लाभ के मोह में साहूकारों से कर्ज लेते हैं और फिर सिंचाई के अभाव में या पेस्टसाइड या फिर मॉनसून की कमी की वजह से जब उनकी खेती चौपट हो जाती है, तो किसान को आत्महत्या करने की ओर धकेल दिया जाता है.

2018 के आंकड़े बताते हैं कि कृषि आत्महत्याओं की संख्या में गिरावट आई है. इसके विपरीत बेरोजगार युवाओं द्वारा आत्महत्याएं 12,936 तक बढ़ गई हैं, भले ही हम इसकी तुलना पूर्ववर्ती वर्ष 2017 से करें. यह आंकड़ा अधिकांश सरकारों के लिए अप्राप्य है, लेकिन पिछले 42 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी की रिपोर्ट तो सबको झकझोर देती है. क्या सरकार इसे अगली एनसीआरबी रिपोर्ट में दिखाएगी.

महिलाओं के खिलाफ आंकड़ा भी सरकार को डराता है. 2018 में भारत में हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार किया गया. 94 प्रतिशत अपराधी पीड़िता के जान पहचान के थे. पंजीकृत मामलों की कुल संख्या 33, 356 थी. यह संख्या काफी कम है. यह हमारे लिए शर्म की बात है. दुख की बात ये है कि कई मामलों की रिपोर्टिंग होती ही नहीं है. पीड़िता को लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं होगा, उलटे बदनामी होगी. ग्रामीण इलाकों में होने वाली ऐसी घटनाओं पर पुलिस का अलग नजरिया होता है.

कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के कुछ लोगों के खिलाफ बलात्कार के आरोपों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था. तब उन्होंने कहा था कि लड़के तो लड़के होते हैं. 2012 में राष्ट्रव्यापी आंदोलन के बाद भी सामंती भारत में राजनीतिक वर्गों का रवैया अपरिवर्तित रहा है. देखिए उन्नाव बलात्कार पीड़िता के साथ क्या हुआ. उसने सत्ताधारी दल के एक नेता का नाम लिया. संयोग ये है कि वह यूपी से हैं, जहां महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक हिंसा होती है.

तहजीब के शहर लखनऊ में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. वैसे बलात्कार के मामलों में यूपी का तीसरा स्थान है. 5,433 पीड़ितों के साथ बदनामी की सूची में एमपी सबसे ऊपर है.

राजनीतिक स्थिरता और माफिया की कोई उपस्थिति नहीं होने के बावजूद, पटना में हत्या की दर 19 महानगरों में सबसे ज्यादा है. एक लाख की आबादी पर 4.4 हत्या. वैसे, बिहार पुलिस दावा करती है कि राज्य में अपराध दर कम हुआ है. इसमें बलात्कार भी शामिल है.

एनसीआरबी के अनुसार नकली मुद्रा की समस्या से निबटने में भी कामयाबी नहीं मिली. शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि संदिग्ध लेनदेन में 480 प्रतिशत की उछाल हुई. 2016 के बाद दो हजार के नोटों का चलन शुरू किया गया. लेकिन अब ऐसे नोट भी कम छापे जा रहे हैं. अभी जितनी भी नकली करेंसी छापी जा रही है, उसका 56 फीसदी दो हजार के नोट से जुड़ा है.

इन सभी विफलताओं के बावजूद, क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट 2016 के बाद से एक प्रवृत्ति को दोहराती है कि अपराध दर में एक नाटकीय गिरावट आई है. 2013 में अपराध लगभग 540 विषम दिखाया गया था, लेकिन 2016 में यह 35 प्रतिशत घटकर 379.3 प्रतिशत हो गया. 2018 में, यह 388 प्रतिशत पर है. सरकार से निकलने वाले अधिकतर आंकड़ों को करीब से पढ़ने की भी जरूरत है. अपराध दर में गिरावट ने बहुत कुछ बदल दिया है. यह निर्भर करता है हम अपराध को किस नजरिए और किस तरीके से देखते हैं. उसका अध्ययन कैसे करते हैं. आंकड़े दिखाने के लिए होने चाहिए, ना कि छिपाने के लिए. अफसोस ये है कि एनसीआरबी का उद्देश्य आंकड़ों की सच्चाई दिखाना कम, और अपराध की घटनाओं को छिपाना अधिक है.

(लेखक - संजय कपूर)

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विशेष लेख : क्या एनसीआरबी के आंकड़े सच को छिपा रहा है ?

पिछले कुछ वर्षों से, हिंसक आपराधिक कृत्यों की मीडिया की सुर्खियों को राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की रिपोर्ट में जगह नहीं मिली है. सत्ता में पार्टी की विचारधारा यह तय करती है कि रिपोर्ट किस तरह की चाहिए और अपराध की किस श्रेणी को कितना महत्व मिलना चाहिए.

आदर्श रूप से, अपराध की प्रकृति जिसे एनसीआरबी की नवीनतम (2019) रिपोर्ट 'क्राइम इन इंडिया'  में प्रमुख स्थान मिलना चाहिए था, वह है भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या यानि लिंचिंग. यह 2018 की सबसे बड़ी आपराधिक घटना रही है. लिंचिंग में मुख्यतः मुस्लिमों को निशाना बनाया गया. कथित रूप से इस मामले को गो हत्या या गो मांस के व्यापार से जोड़ते हैं. व्हाट्सएप जैसी नई पीढ़ी के मैसेजिंग प्लेटफॉर्म इस तरह की नफरत की खबरों के वाहक हैं.

उत्तर भारत के गांवों में जिस तरह से गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है, उससे उपजे तनाव और हिंसा पर एनसीआरबी की रिपोर्ट कुछ नहीं कहती है. आवारा मवेशी, जो पहले बूचड़खानों में भेजे जाते थे, अब खेतों और घरों पर हमला करते हैं. रिपोर्ट में इस पर भी कुछ नहीं कहा गया है. धर्म के आधार पर प्रतिक्रिया ना हो  जाए, लिहाजा ऐसे आवारा जानवरों पर कार्रवाई को लेकर असमंजस की स्थिति में है. इससे खेती की जमीन पर समस्या आ गई है.  

आक्रोशित ग्रामीणों के बीच आदर्श रूप से टकराव को ग्रामीण दंगों की श्रेणी में डाल दिया जाना चाहिए था, लेकिन इस रिपोर्ट के फ्रेमरों द्वारा इसे असुविधाजनक पाया गया. एनसीआरबी में 2016 तक 'कृषि दंगों' की एक उप-श्रेणी थी. इसमें 2014 में 628 मामलों की शिकायत की गई थी. लेकिन 2015 में इसकी संख्या बढ़कर 2683 हो गई. 327 फीसदी की वृद्धि देखी गई. इसके बाद इस श्रेणी को एनसीआरबी ने हटा दिया. माना जाता है कि ग्रामीण रोजगार घटने और जमीन विवाद बढ़ने की वजह से इस तरह के दंगों में वृद्धि हुई. 

वैसे, एनसीआरबी से किसी भी श्रेणी के लापता होने की सामान्य व्याख्या यह है कि घटनाएं महत्वपूर्ण संख्या में नहीं थीं और इसलिए उन्होंने विशेष जोर नहीं दिया. कृषि संकट बढ़ने और किसानों द्वारा अपनी खेदजनक दुर्दशा का नोटिस लेने के लिए आंदोलन करने के लिए सामने आने के बावजूद  आश्चर्यजनक है कि रिपोर्ट ने इसे कैसे खत्म कर दिया. 

कृषि क्षेत्र एक संवेदनशील क्षेत्र है. सरकारों ने यह समझाने के लिए संघर्ष किया है कि किसानों को आत्महत्या करने के लिए क्या प्रेरित करता है. 1991 में आर्थिक सुधार और नकद खेती को प्रोत्साहित करने के बाद इस घटना में बढ़ोतरी हुई. किसान उच्च लाभ के मोह में साहूकारों से कर्ज लेते हैं. और फिर सिंचाई के अभाव में या पेस्टसाइड या फिर मॉनसून की कमी की वजह से जब उनकी खेती चौपट हो जाती है, तो किसान को आत्महत्या करने की ओर धकेल दिया जाता है. 

2018 के आंकड़े बताते हैं कि कृषि आत्महत्याओं की संख्या में गिरावट आई है. इसके विपरीत बेरोजगार युवाओं द्वारा आत्महत्याएं 12,936 तक बढ़ गई हैं, भले ही हम इसकी तुलना पूर्ववर्ती वर्ष 2017 से करें. यह आंकड़ा अधिकांश सरकारों के लिए अप्राप्य है, लेकिन पिछले 42 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी की रिपोर्ट तो सबको झकझोर देता है. क्या सरकार इसे अगली एनसीआरबी रिपोर्ट में दिखाएगी. 

महिलाओं के खिलाफ आंकड़ा भी सरकार को डराता है. 2018 में भारत में हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार किया गया. 94 प्रतिशत अपराधी पीड़िता के जान पहचान के थे. पंजीकृत मामलों की कुल संख्या 33, 356 थी. यह संख्या काफी कम है. यह हमारे लिए शर्म की बात है. दुख की बात ये है कि कई मामलों की रिपोर्टिंग होती ही नहीं है. पीड़िता को लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं होगा, उलटे बदनामी होगी. ग्रामीण इलाकों में होने वाली ऐसी घटनाओं पर पुलिस का अलग नजरिया होता है. कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के कुछ लोगों के खिलाफ बलात्कार के आरोपों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था. तब उन्होंने कहा था कि लड़के तो लड़के होते हैं. 2012 में राष्ट्र व्यापी आंदोलन के बाद भी सामंती भारत में राजनीतिक वर्गों का रवैया अपरिवर्तित रहा है. देखिए उन्नाव बलात्कार पीड़िता के साथ क्या हुआ. उसने सत्ताधारी दल के एक नेता का नाम लिया. संयोग ये है कि वह यूपी से हैं, जहां महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक हिंसा होती है. 

तहजीब के शहर लखनऊ में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. वैसे बलात्कार के मामलों में यूपी का तीसरा स्थान है. 5,433 पीड़ितों के साथ बदनामी की सूची में एमपी सबसे ऊपर है.

राजनीतिक स्थिरता और माफिया की कोई उपस्थिति नहीं होने के बावजूद, पटना में हत्या की दर 19 महानगरों में सबसे ज्यादा है. एक लाख की आबादी पर 4.4 हत्या. वैसे, बिहार पुलिस दावा करती है कि राज्य में अपराध दर कम हुआ है. इसमें बलात्कार भी शामिल है. 

एनसीआरबी के अनुसार नकली मुद्रा की समस्या से निपटने में भी कामयाबी नहीं मिली. शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि संदिग्ध लेनदेन में 480 प्रतिशत का उछाल हुआ. 2016 के बाद दो हजार के नोटों का चलन शुरू किया गया. लेकिन अब ऐसे नोट भी कम छापे जा रहे हैं. अभी जितनी भी नकली करेंसी छापी जा रही है, उसका 56 फीसदी दो हजार के नोट से जुड़ा है. 

इन सभी विफलताओं के बावजूद, क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट 2016 के बाद से एक प्रवृत्ति को दोहराती है कि अपराध दर में एक नाटकीय गिरावट आई है. 2013 में अपराध लगभग 540 विषम दिखाया गया था, लेकिन 2016 में यह 35 प्रतिशत घटकर 379.3 प्रतिशत हो गया. 2018 में, यह 388 प्रतिशत पर है. सरकार से निकलने वाले अधिकांश आंकड़ों को करीब से पढ़ने की भी जरूरत है. अपराध दर में गिरावट ने बहुत कुछ बदल दिया है. यह निर्भर करता है हम अपराध को किस नजरिए और किस तरीके से देखते हैं. उसका अध्ययन कैसे करते हैं. आंकड़े दिखाने के लिए होने चाहिए, ना कि छिपाने के लिए. अफसोस ये है कि एनसीआरबी का उद्देश्य आंकड़ों की सच्चाई दिखाना कम, और अपराध की घटनाओं को छिपाना अधिक है. 

(लेखक - संजय कपूर)


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Last Updated : Feb 17, 2020, 10:23 PM IST
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