20 अगस्त, 2019 को इंडियन एक्सप्रेस ई-पेपर ने नॉर्दर्न इंडिया टेक्सटाइल्स मिल्स एसोसिएशन द्वारा भारतीय स्पिनिंग इंडस्ट्री के बारे में एक विज्ञापन छापा. इसमें कपड़ा मिल की खराब आर्थिक व्यवस्था का जिक्र किया गया था. यह कहा गया था कि यहां की मिलें इंडियन कॉटन को खरीदने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि यह काफी महंगा पड़ रहा है. 10 करोड़ से भी ज्यादा लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से इस क्षेत्र से जुड़े हैं. उनकी रोजी-रोजी का सवाल है. कपास पैदा करने वाले किसानों की स्थिति बहुत ही खराब है.
इससे कुछ दिनों पहले ऐसा ही एक विज्ञापन एक अगस्त को द इकोनोमिक टाइम्स में प्रकाशित हुआ था. इसमें चाय उद्योग को लेकर बात कही गई थी. टी गार्डन के बढ़ते नुकसान के कारण 10 लाख से अधिक श्रमिकों की आजीविका पर संकट गहराता जा रहा है.
21 अगस्त को आउटलुक मैगजीन ने पार्ले प्रोड्क्ट प्रालि से संबंधित खबरें लिखी. खबरों के मुताबिक 10 हजार से ज्यादा लोगों की नौकरी खतरे में है. उनके मुताबिक जीएसटी की दर अधिक होने की वजह से कंपनी को लगातार घाटा हो रहा है. बिस्कुट उद्योग में पार्ले देश की सबसे बड़ी कंपनी है.
दूसरी ओर मोदी 2.0 सरकार ने आर्थिक सुधार के क्षेत्र में कई बड़ी घोषणाएं की हैं. सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से संबंधित सार्वजनिक संपत्ति या यहां तक कि सरकारी विभागों जैसे ऑर्डनेंस फैक्ट्रीज़ की भी बिक्री हो सकती है या फिर इसका निगमीकरण संभव है. इसे सरकार ने एसेट मॉनेटाइजेशन का नाम दिया है. इससे करीब 90 हजार करोड़ की राशि सरकार को मिल सकती है. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकार अपने वित्तीय घाटे को कम करने के लिए कितनी तत्पर है. और कितनी आक्रामकता के साथ सार्वजनिक संपत्ति बेचने की रणनीति पर काम कर रही है.
क्या ये किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत माने जा सकते हैं ? संकट बहुत गहरा है. लेकिन यह कहा जा रहा है कि सबकुछ ठीक-ठाक है. सरकार के पास 2025 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की दृष्टि है.
सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में बहुत उम्मीदों के साथ कौशल विकास कार्यक्रम की शुरुआत की थी. लेकिन नतीजा क्या निकला. सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला कर लिया.
अर्थव्यवस्था को लेकर गांधी का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग था. उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह मशीन के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन मजदूरों को नौकरी से निकालने के लिए अगर मशीन का उपयोग किया जाता है, तो वे उसका विरोध करते हैं.
गांधी कहा करते थे कि वह पूरे मानव समुदाय के लिए समय और श्रम की बचत करना चाहते हैं. सिर्फ मुट्ठी भर लोगों के लिए अगर ऐसा किया जाता है, तो वह उसका कभी भी समर्थन नहीं कर सकते हैं. वह चाहते थे कि धनों का संकेन्द्रण ना हो.
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वह यह मानते थे कि मजदूरों की छंटनी के पीछे मुख्य कारण अधिक लाभ का लालच है. उनकी आर्थिक सोच के केन्द्र में मुख्य रूप से मानवता थी. उनका मानना था कि मशीनों को मनुष्य के अंगों को शोभा नहीं देना चाहिए. हालांकि, वह यह भी मानते थे कि जहां मशीन की जरूरत है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए. जैसे सिलाई मशीन से कपड़ा सिलने में सहूलियत होती है. धागा बनाने के लिए तकली का प्रयोग करना. लेकिन लोगों को मोटर गाड़ी की आवश्यकता नहीं है, वह ऐसा मानते थे. उनका कहना था कि यह मानव की प्राथमिक जरूरत नहीं है.
महात्मा गांधी ने मशीन की तुलना मानव शरीर से की. उन्होंने कहा कि यह आत्मा के विकास के लिए मददगार होने तक केवल अपने उद्देश्य की पूर्ति करता है. उनका मानना था कि मानव शरीर की तरह मशीनें भी अपरिहार्य थीं. लेकिन मानव शरीर, उनके अनुसार, तंत्र का एक शानदार टुकड़ा फिर भी आत्मा की मुक्ति में बाधा है.
गांधी की सोच थी कि मशीनरी ने भारत की आर्थिक विपन्नता बढ़ाई है. यह पाप का प्रतीक था. क्योंकि इसने श्रमिकों को दास बना दिया और मिल मालिक अनैतिकता के रास्ते धनी हो गए. उनका दृढ़ विश्वास था कि गरीब अंग्रेजों से लड़ सकता है, लेकिन अमीर हमेशा उनका समर्थन करेंगे.
यह पूछे जाने पर कि क्या मिलों को बंद कर दिया जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि यह एक कठिन निर्णय होगा लेकिन उन्हें निश्चित रूप से विस्तार नहीं करना चाहिए. यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि भारतीय चाय एसोसिएशन ने सरकार से चाय के क्षेत्रों के विस्तार पर रोक लगाने की मांग की थी. क्योंकि वे चाहते थे कि अगले पांच सालों तक ओवरसप्लाई को रोका जा सके.
अपने आसपास औद्योगिक उत्पादों के मद्देनजर जब उनसे पूछा गया कि हमें क्या करना चाहिए, उन्होंने कहा कि आप स्वदेशी पर जोर दें. और बाजार में आधुनिक उत्पादों के आने से पहले जो वस्तुएं प्रयुक्त होती थीं, उनका उपयोग कर सकते हैं.
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वैसे, गांधी ने खुलकर स्वीकार किया कि अचानक ही मशीन से बनी वस्तुओं को छोड़ देना संभव नहीं है. लेकिन उनमें से कई वस्तुएं ऐसी हैं, जिनका धीरे-धीरे प्रयोग कम कर सकते हैं और बाद में बंद कर दें. उन्होंने यह भी वकालत की कि हमें दूसरों का इंतजार नहीं करना चाहिए और इसमें खुद पहल करनी चाहिए. इस संबंध में उन्होंने ग्रेटा थुनबर्ग का उदाहरण दिया.
थुनबर्ग स्वीडन के जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता थे. उनकी मां मैलने एर्मन ओपेरा गायिका थीं. उन्होंने फ्लाइट शेम और ट्रेन ब्रागिंग का आह्वान किया. इसमें उन्होंने लोगों से विमान के बजाए ट्रेन से चलने की सलाह दी. वह कहते थे कि विमान ईंधन से प्रदूषण बढ़ता है, लिहाजा इसका प्रयोग कम के कम करें. इस आंदोलन की वजह से स्वीडन में रेल यात्रा बढ़ी और हवाई यात्रा में गिरावट आई थी.
इसी तरह, लखनऊ स्थित एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता बॉबी रमाकांत ने कार के बजाए पैदल चलना, साइकिल का प्रयोग करना और सार्वजनिक परिवहनों का उपयोग करना शुरू कर दिया.
बेंगलुरु स्थित एक्टिविस्ट गुरुमूर्ति मथुब्रूटम ने घरेलू उड़ान को छोड़ दिया है और इसके बजाय ट्रेनों का उपयोग करते हैं. हम अपने आसपास ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण पा सकते हैं, जिन्होंने मशीनों पर अपनी निर्भरता को कम करने की पहल की है.
ऐसा प्रतीत होता है कि औद्योगिकीकरण पर आधारित विकास के आधुनिक प्रतिमान की अंतिम चुनौती जलवायु परिवर्तन संकट से आएगी, लेकिन गांधीवादी सोच का सबसे आश्चर्यजनक सत्यापन तब हुआ, जब 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून पेश किया गया. बाद में इसे मनरेगा के रूप में जाना जाने लगा.
मनरेगा के तहत मजदूरों को काम मिला. मशीनों का उपयोग नहीं किया गया. ठेकेदारी व्यवस्था पर रोक लग गई. यही गांधी की असल सोच थी. मनरेगा की परिकल्पना बेल्जियम मूल के भारतीय अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की थी. उनका मानना था कि अगर आपको लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार देना है, तो मशीनों को बाहर रखना होगा और तभी मनरेगा का असली उद्देश्य पूरा होगा.
लेखक- संदीप पांडे
(आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी है. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.)