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महात्मा गांधी, कांग्रेस और आजादी

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 27वीं कड़ी.

गांधी की फाइल फोटो
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Published : Sep 11, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Sep 30, 2019, 4:47 AM IST

महात्मा गांधी के कुशल नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन ने साम्राज्यवादी आधिपत्य को खत्म कर दिया था. औपनिवेशिक ढांचे के स्तंभों को तोड़ दिया गया और ब्रिटिश राजनीतिक रणनीति विरोधाभासों में उलझकर रह गया. हालांकि, दूसरी ओर कई दुष्परिणाम भी देखने को मिले. भिन्न-भिन्न समुदायों के बीच अत्यधिक दुश्मनी के कारण खूब खून बहे. दहशत जैसी स्थिति के बीच एक अनुमान के मुताबिक 10 लाख से अधिक लोग मारे गए, जबकि 14 लाख से अधिक लोग विस्थापित हो गए.

हालांकि गांधी ने साफ शब्दों में सांप्रदायिक हिंसा का विरोध किया था. फिर भी आज के समय में जबकि इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की जा रही है, विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराना फैशन बन गया है.

इसके अलावा, राजनीति के इस गहन वल्गराइजेशन के युग में उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया जा रहा है. गांधी की हत्या को एक 'सच्चे राष्ट्रवादी' द्वारा किए गए प्रतिशोध की कार्रवाई के रूप में दिखाने की कोशिश की जा रही है.

इससे संबंधित दो आवश्यक प्रश्न हैं. क्या गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए कुछ कर सकते थे ? वह 1947 में भयानक नरसंहार और अल्पसंख्यकों के सामूहिक प्रवास को क्यों नहीं रोक सके ? यह सवाल हमेशा से ही प्रत्येक भारतीय की राजनीतिक चेतना का एक अविभाज्य हिस्सा रहा है.

ये भी पढ़ें: ज्यादा से ज्यादा लोगों को देना है रोजगार, तो गांधी का रास्ता है बेहतर विकल्प

इतिहासकार तब से इन सवालों से जूझ रहे हैं. यद्यपि इनके उत्तरों के बारे में कोई अंतिमता नहीं हो सकती है. फिर भी, हम इस संबंध में यथोचित स्पष्ट चित्र बनाने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर सकते हैं. इन सवालों के एक उचित मूल्यांकन के लिए उन्हें अपने वास्तविक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना और उनके ऐतिहासिक संदर्भों का संदर्भ देना आवश्यक है.

उपरोक्त दो प्रश्नों का उत्तर देने के लिए - यदि गांधी विभाजन को रोक सकते थे, या कम से कम कुछ किया होगा, उस मामले के लिए कुछ भी, खून खराबा रोकने के लिए - हमें दो चीजों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. पहला, इस सांप्रदायिक हिंसा की जड़ कहां थी. दूसरा हमें यह समझने की जरूरत है कि पाकिस्तान की मांग क्यों अपरिहार्य हो गई. खासकर जिन्ना के लिए इस पर अडिग रहने की क्या वजह थी.

1946 की शुरुआत तक साम्राज्यवाद-राष्ट्रवाद संघर्ष, जिसे सिद्धान्ततः हल किया जा रहा था, कमोबेश सुर्खियों से हट गया था. इसके बाद साम्राज्यवादी व्यवस्था से उपजी परिस्थितियां सामने आ गईं. मुस्लिम लीग, कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच नई राजनीतिक स्थिति बन गई. यह एक तरह से त्रिपक्षीय संघर्ष जैसी स्थिति थी और स्वराज का लक्ष्य और दूर होता गया.

ये भी पढ़ें: जयपुर फुट गांधीवादी इंजीनियरिंग का बेहतरीन उदाहरण

कांग्रेस और लीग ने दो विरोधाभासी मांगों का प्रतिनिधित्व किया. कांग्रेस लोकतंत्र, समाजवाद और एक आम भारतीय राष्ट्रीयता के लिए खड़ी थी. लीग का तर्क भारत में मुसलमानों के हितों को एक अलग राजनीतिक इकाई और राष्ट्र के रूप में बढ़ावा देना था. एक अलग राष्ट्र चाहते थे.

हालांकि, कई बार जिन्ना ने कांग्रेस के साथ समझौता करने की अपनी इच्छा की बात कही. लेकिन अपनी शर्तों पर. एक कमजोर केंद्र, प्रांतों के लिए पूर्ण स्वायत्तता, सेवाओं में मुस्लिमों के शेयर, निर्वाचित निकाय और कानून के अनुसार कैबिनेट का बनाना, वगैरह.

सैयद अहमद खान ने जो सवाल तब 60 साल पहले उठाया था, जिन्ना उसे आगे बढ़ा रहे थे. वो पूछते थे, क्या स्वतंत्र भारत में मुस्लिम समुदाय की स्थिति कैसी होगी. स्वतंत्र भारत में मुसलमान कैसे किराया देंगे ? इसका जवाब गांधी दे सकते थे. किसी भी अन्य समुदायों की तुलना में ना बेहतर और ना ही खराब.

ये भी पढ़ें: आज की असहिष्णुता पर क्या करते गांधी, तुषार गांधी ने साझा की अपनी राय

गांधी या किसी भी अन्य राष्ट्रीय नेता के लिए संदेह करने का कोई कारण ही नहीं था. स्वतंत्र भारत में सभी राजनीतिक दल सांप्रदायिक संबद्धता का पालन करेंगे. यह विश्वास सभी को था. इसमें भी किसी को कोई शक नहीं था कि सामाजिक या आर्थिक मुद्दे धार्मिक विभाजनों में कटौती नहीं करेंगे. लेकिन यह भी तय था कि ये सब जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं कर सकता था. इसलिए उन्होंने द्विराष्ट्र के सिद्धान्त को जारी रखा. उन्होंने विभाजन पर जोर दिया.

दूसरी ओर, महात्मा गांधी ने जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत को पूरी तरह से नकार दिया था. इसे असत्य करार दिया. दो-राष्ट्र सिद्धांत और पाकिस्तान की मांग के बारे में गांधी की पहली प्रतिक्रिया लगभग एकतरफा थी. उनके लिए ऐसी मांग अच्छी समझ के बिलकुल विपरीत था.

कांग्रेस विभाजन के लिए कितनी दोषी थी. महात्मा गांधी के विचार में स्वतंत्रता-विभाजन के द्वंद्व ने कांग्रेस के नेतृत्व में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन की सफलता-विफलता द्वंद्ववाद को प्रतिबिंबित किया. अपने अनुमान में, कांग्रेस के पास दो गुना ऐतिहासिक कार्य था - विभिन्न वर्गों, समुदायों, समूहों और क्षेत्रों को एक राष्ट्र में बदलना और इस उभरते हुए राष्ट्र के लिए ब्रिटिश शासकों से स्वतंत्रता हासिल करना.

ये भी पढ़ें: कहां गयी वो विरासत, जहां से बापू ने बदला था हवाओं का रुख?

उनके लिए कांग्रेस इस जुड़वां कार्य को साकार करने में एक ही समय में सफल रही और विफल रही. अपने दृष्टिकोण से, जबकि कांग्रेस अंग्रेजों पर भारत छोड़ने के लिए दबाव डालने के लिए पर्याप्त रूप से राष्ट्रवादी चेतना का निर्माण करने में सफल रही, यह राष्ट्र को एक सूत्र बांधने के काम में पूरा नहीं कर सकी. विशेष रूप से मुसलमानों को एकीकृत करने में.

महात्मा गांधी के लिए, यह विरोधाभास था - आम तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता और विफलता, और विशेष रूप से कांग्रेस की - जो अन्य विरोधाभास - स्वतंत्रता में परिलक्षित होती थी, लेकिन इसके साथ विभाजन भी आया.

वास्तव में महात्मा गांधी आश्वस्त थे कि विभाजन के समय जो सांप्रदायिक दंगा फैला था, वह अस्थायी था. इसलिए ब्रिटिश को कोई हक नहीं है कि इस वजह से वह भारत पर विभाजन की शर्त थोपे.

गांधी चाहते थे कि पाकिस्तान में भी शांति रहे. वह भी अमन कायम रहे. पर, उनकी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. लिहाजा विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा. वह भी उनके हत्यारे के महिमामंडन के लिए ऐसा किया जा रहा है, तो यह और भी दुख का कारण होगा.

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1946-47 में भारत एक अघोषित गृह युद्ध में चला गया था. गांधी के लिए इसका मतलब था कि सालों से हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर जो काम किया, वह सब धुल गया. गांधी की आत्मा कचोट जाती थी, जब लोग यह कहते थे कि हिंदू और मुस्लिम अलग-अलग संस्कृतियों और सिद्धान्तों का पालन करते हैं.

गांधी की राय में, 'मुसलमानों के पास आत्मनिर्णय का वही अधिकार होना चाहिए जो शेष भारत के पास है. हम वर्तमान में एक संयुक्त परिवार की तरह हैं. कोई भी सदस्य विभाजन का दावा कर सकता है.'

इस कारण गांधी ने पाकिस्तान और विभाजन को लेकर सैद्धान्तिक हामी भरी थी. ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के जॉन विंसेंट जैसे लोग, न केवल विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराते हैं, बल्कि उन्हें निर्दोष की हत्या का भी जिम्मेदार ठहराते हैं.

ये भी पढ़ें: सुंदर लाल बहुगुणा को आज भी याद हैं गांधी की बातें, सपना था 'स्वावलंबी भारत'

दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय के साथ पाकिस्तान की परिकल्पना खूब बिकी. मुस्लिम मध्यम वर्ग, जो ऐतिहासिक कारणों से सरकारी सेवा, व्यापार और उद्योग की योजनाओं की दौड़ में पीछे रह गया था, एक संप्रभु मुस्लिम राज्य के विचार से आकर्षित हुआ था.

इस प्रकार, 'पाकिस्तान का विचार' - विश्वासियों के लिए एक प्रकार की मोरेन यूटोपिया के रूप में आयोजित किया गया - न केवल पवित्रता की नई भूमि में एक नए सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक युग की शुरुआत का वादा किया, बल्कि दोनों से स्वतंत्रता की गारंटी भी दी. उनके मन में यह आया कि उन्हें अंग्रेजों और हिंदुओं दोनों से मुक्ति मिल गई.

यह पाकिस्तान विचार, पहली बार, धार्मिक भावनाओं के साथ-साथ मुस्लिम मध्यम वर्ग की राजनीतिक प्रवृत्ति और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करता प्रतीत हुआ. भारत में एक संप्रभु मुस्लिम राज्य की दृष्टि मुस्लिम शासन की पिछली झलकियों की याद दिलाती थी.

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जिस समय दोनों पक्षों के बीच सांप्रदायिक तनाव की भावना बहुत ज्यादा थी, उस समय गांधी की आवाज सुनने को कोई तैयार नहीं था. दोनों पक्ष एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए. 30 जनवरी 1948 को आखिरकार इन्हीं में से एक उन्मादी शख्श ने गांधी की हत्या कर दी. आज गांधी को गुजरे हुए कई साल हो गए, लोग उनके राजनीतिक अप्रासंगिकता की बात भी करने लगे हैं, लेकिन आज भी मानवता की बात करें, तो सबसे पहले हमें गाधी ही याद आते हैं.

(लेखक- समर धालीवाल, डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर हैं)

(आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी है. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.)

महात्मा गांधी के कुशल नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन ने साम्राज्यवादी आधिपत्य को खत्म कर दिया था. औपनिवेशिक ढांचे के स्तंभों को तोड़ दिया गया और ब्रिटिश राजनीतिक रणनीति विरोधाभासों में उलझकर रह गया. हालांकि, दूसरी ओर कई दुष्परिणाम भी देखने को मिले. भिन्न-भिन्न समुदायों के बीच अत्यधिक दुश्मनी के कारण खूब खून बहे. दहशत जैसी स्थिति के बीच एक अनुमान के मुताबिक 10 लाख से अधिक लोग मारे गए, जबकि 14 लाख से अधिक लोग विस्थापित हो गए.

हालांकि गांधी ने साफ शब्दों में सांप्रदायिक हिंसा का विरोध किया था. फिर भी आज के समय में जबकि इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की जा रही है, विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराना फैशन बन गया है.

इसके अलावा, राजनीति के इस गहन वल्गराइजेशन के युग में उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया जा रहा है. गांधी की हत्या को एक 'सच्चे राष्ट्रवादी' द्वारा किए गए प्रतिशोध की कार्रवाई के रूप में दिखाने की कोशिश की जा रही है.

इससे संबंधित दो आवश्यक प्रश्न हैं. क्या गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए कुछ कर सकते थे ? वह 1947 में भयानक नरसंहार और अल्पसंख्यकों के सामूहिक प्रवास को क्यों नहीं रोक सके ? यह सवाल हमेशा से ही प्रत्येक भारतीय की राजनीतिक चेतना का एक अविभाज्य हिस्सा रहा है.

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इतिहासकार तब से इन सवालों से जूझ रहे हैं. यद्यपि इनके उत्तरों के बारे में कोई अंतिमता नहीं हो सकती है. फिर भी, हम इस संबंध में यथोचित स्पष्ट चित्र बनाने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर सकते हैं. इन सवालों के एक उचित मूल्यांकन के लिए उन्हें अपने वास्तविक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना और उनके ऐतिहासिक संदर्भों का संदर्भ देना आवश्यक है.

उपरोक्त दो प्रश्नों का उत्तर देने के लिए - यदि गांधी विभाजन को रोक सकते थे, या कम से कम कुछ किया होगा, उस मामले के लिए कुछ भी, खून खराबा रोकने के लिए - हमें दो चीजों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. पहला, इस सांप्रदायिक हिंसा की जड़ कहां थी. दूसरा हमें यह समझने की जरूरत है कि पाकिस्तान की मांग क्यों अपरिहार्य हो गई. खासकर जिन्ना के लिए इस पर अडिग रहने की क्या वजह थी.

1946 की शुरुआत तक साम्राज्यवाद-राष्ट्रवाद संघर्ष, जिसे सिद्धान्ततः हल किया जा रहा था, कमोबेश सुर्खियों से हट गया था. इसके बाद साम्राज्यवादी व्यवस्था से उपजी परिस्थितियां सामने आ गईं. मुस्लिम लीग, कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच नई राजनीतिक स्थिति बन गई. यह एक तरह से त्रिपक्षीय संघर्ष जैसी स्थिति थी और स्वराज का लक्ष्य और दूर होता गया.

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कांग्रेस और लीग ने दो विरोधाभासी मांगों का प्रतिनिधित्व किया. कांग्रेस लोकतंत्र, समाजवाद और एक आम भारतीय राष्ट्रीयता के लिए खड़ी थी. लीग का तर्क भारत में मुसलमानों के हितों को एक अलग राजनीतिक इकाई और राष्ट्र के रूप में बढ़ावा देना था. एक अलग राष्ट्र चाहते थे.

हालांकि, कई बार जिन्ना ने कांग्रेस के साथ समझौता करने की अपनी इच्छा की बात कही. लेकिन अपनी शर्तों पर. एक कमजोर केंद्र, प्रांतों के लिए पूर्ण स्वायत्तता, सेवाओं में मुस्लिमों के शेयर, निर्वाचित निकाय और कानून के अनुसार कैबिनेट का बनाना, वगैरह.

सैयद अहमद खान ने जो सवाल तब 60 साल पहले उठाया था, जिन्ना उसे आगे बढ़ा रहे थे. वो पूछते थे, क्या स्वतंत्र भारत में मुस्लिम समुदाय की स्थिति कैसी होगी. स्वतंत्र भारत में मुसलमान कैसे किराया देंगे ? इसका जवाब गांधी दे सकते थे. किसी भी अन्य समुदायों की तुलना में ना बेहतर और ना ही खराब.

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गांधी या किसी भी अन्य राष्ट्रीय नेता के लिए संदेह करने का कोई कारण ही नहीं था. स्वतंत्र भारत में सभी राजनीतिक दल सांप्रदायिक संबद्धता का पालन करेंगे. यह विश्वास सभी को था. इसमें भी किसी को कोई शक नहीं था कि सामाजिक या आर्थिक मुद्दे धार्मिक विभाजनों में कटौती नहीं करेंगे. लेकिन यह भी तय था कि ये सब जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं कर सकता था. इसलिए उन्होंने द्विराष्ट्र के सिद्धान्त को जारी रखा. उन्होंने विभाजन पर जोर दिया.

दूसरी ओर, महात्मा गांधी ने जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत को पूरी तरह से नकार दिया था. इसे असत्य करार दिया. दो-राष्ट्र सिद्धांत और पाकिस्तान की मांग के बारे में गांधी की पहली प्रतिक्रिया लगभग एकतरफा थी. उनके लिए ऐसी मांग अच्छी समझ के बिलकुल विपरीत था.

कांग्रेस विभाजन के लिए कितनी दोषी थी. महात्मा गांधी के विचार में स्वतंत्रता-विभाजन के द्वंद्व ने कांग्रेस के नेतृत्व में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन की सफलता-विफलता द्वंद्ववाद को प्रतिबिंबित किया. अपने अनुमान में, कांग्रेस के पास दो गुना ऐतिहासिक कार्य था - विभिन्न वर्गों, समुदायों, समूहों और क्षेत्रों को एक राष्ट्र में बदलना और इस उभरते हुए राष्ट्र के लिए ब्रिटिश शासकों से स्वतंत्रता हासिल करना.

ये भी पढ़ें: कहां गयी वो विरासत, जहां से बापू ने बदला था हवाओं का रुख?

उनके लिए कांग्रेस इस जुड़वां कार्य को साकार करने में एक ही समय में सफल रही और विफल रही. अपने दृष्टिकोण से, जबकि कांग्रेस अंग्रेजों पर भारत छोड़ने के लिए दबाव डालने के लिए पर्याप्त रूप से राष्ट्रवादी चेतना का निर्माण करने में सफल रही, यह राष्ट्र को एक सूत्र बांधने के काम में पूरा नहीं कर सकी. विशेष रूप से मुसलमानों को एकीकृत करने में.

महात्मा गांधी के लिए, यह विरोधाभास था - आम तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता और विफलता, और विशेष रूप से कांग्रेस की - जो अन्य विरोधाभास - स्वतंत्रता में परिलक्षित होती थी, लेकिन इसके साथ विभाजन भी आया.

वास्तव में महात्मा गांधी आश्वस्त थे कि विभाजन के समय जो सांप्रदायिक दंगा फैला था, वह अस्थायी था. इसलिए ब्रिटिश को कोई हक नहीं है कि इस वजह से वह भारत पर विभाजन की शर्त थोपे.

गांधी चाहते थे कि पाकिस्तान में भी शांति रहे. वह भी अमन कायम रहे. पर, उनकी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. लिहाजा विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा. वह भी उनके हत्यारे के महिमामंडन के लिए ऐसा किया जा रहा है, तो यह और भी दुख का कारण होगा.

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1946-47 में भारत एक अघोषित गृह युद्ध में चला गया था. गांधी के लिए इसका मतलब था कि सालों से हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर जो काम किया, वह सब धुल गया. गांधी की आत्मा कचोट जाती थी, जब लोग यह कहते थे कि हिंदू और मुस्लिम अलग-अलग संस्कृतियों और सिद्धान्तों का पालन करते हैं.

गांधी की राय में, 'मुसलमानों के पास आत्मनिर्णय का वही अधिकार होना चाहिए जो शेष भारत के पास है. हम वर्तमान में एक संयुक्त परिवार की तरह हैं. कोई भी सदस्य विभाजन का दावा कर सकता है.'

इस कारण गांधी ने पाकिस्तान और विभाजन को लेकर सैद्धान्तिक हामी भरी थी. ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के जॉन विंसेंट जैसे लोग, न केवल विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराते हैं, बल्कि उन्हें निर्दोष की हत्या का भी जिम्मेदार ठहराते हैं.

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दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय के साथ पाकिस्तान की परिकल्पना खूब बिकी. मुस्लिम मध्यम वर्ग, जो ऐतिहासिक कारणों से सरकारी सेवा, व्यापार और उद्योग की योजनाओं की दौड़ में पीछे रह गया था, एक संप्रभु मुस्लिम राज्य के विचार से आकर्षित हुआ था.

इस प्रकार, 'पाकिस्तान का विचार' - विश्वासियों के लिए एक प्रकार की मोरेन यूटोपिया के रूप में आयोजित किया गया - न केवल पवित्रता की नई भूमि में एक नए सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक युग की शुरुआत का वादा किया, बल्कि दोनों से स्वतंत्रता की गारंटी भी दी. उनके मन में यह आया कि उन्हें अंग्रेजों और हिंदुओं दोनों से मुक्ति मिल गई.

यह पाकिस्तान विचार, पहली बार, धार्मिक भावनाओं के साथ-साथ मुस्लिम मध्यम वर्ग की राजनीतिक प्रवृत्ति और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करता प्रतीत हुआ. भारत में एक संप्रभु मुस्लिम राज्य की दृष्टि मुस्लिम शासन की पिछली झलकियों की याद दिलाती थी.

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जिस समय दोनों पक्षों के बीच सांप्रदायिक तनाव की भावना बहुत ज्यादा थी, उस समय गांधी की आवाज सुनने को कोई तैयार नहीं था. दोनों पक्ष एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए. 30 जनवरी 1948 को आखिरकार इन्हीं में से एक उन्मादी शख्श ने गांधी की हत्या कर दी. आज गांधी को गुजरे हुए कई साल हो गए, लोग उनके राजनीतिक अप्रासंगिकता की बात भी करने लगे हैं, लेकिन आज भी मानवता की बात करें, तो सबसे पहले हमें गाधी ही याद आते हैं.

(लेखक- समर धालीवाल, डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर हैं)

(आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी है. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.)

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Last Updated : Sep 30, 2019, 4:47 AM IST
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