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विशेष लेख : नागरिक अधिकारों का बचाव

लोकतंत्र में नागरिकों के पास कानूनी दायरे में रहकर विरोध करने का मौलिक अधिकार होता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ द्वारा दिया गया आदेश, सरकारों द्वारा ऐसे मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की तरफ़ उम्मीद जगाता है. कोर्ट ने क़ानून बनाने वालों और संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों को याद दिलाया.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
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Published : Jan 22, 2020, 7:05 PM IST

Updated : Feb 18, 2020, 12:39 AM IST

कश्मीर टाइम्स के संपादक और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, गुलाम नबी आजाद ने केंद्र सरकार द्वारा आर्टिकल 370 हटाये जाने के बाद से लगाये गये प्रतिबंधों और टेलिफोन और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के खिलाफ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. इसके साथ ही नागरिक संशोधन क़ानून और एनआरसी ने भी देश के अलग-अलग हिस्सों में चिंताओं को जन्म दिया है.

सरकार देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों को भी कश्मीर की ही तर्ज़ पर रोकने की कोशिश कर रही है. इस सब के बीच जस्टिस वीपी रमन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी द्वारा दिये गये फैसले ने तीनों मुद्दों को छुआ है और सरकार को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, 16 अक्टूबर के उसके आदेश के बावजूद सरकार ने प्रतिबंध नहीं हटाये हैं. एक लोकतंत्र में जवाबदेही के लिये पारदर्शिता सबसे अहम होती है और ऐसे में सरकार को इन आदेशों का पालन करने की ज़रूरत थी. कोर्ट ने सरकार को याद दिलाया कि लोकतंत्र की रक्षा के लिये संविधान ने प्रेस की आजादी को अति महत्वपूर्ण माना है.

कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेस के सिर पर तलवार लटकाना गैरकानूनी है. कोर्ट ने यह भी कहा कि सीआरपीसी के अंतर्गत जारी प्रतिबंध से इंटरनेट सेवाओं पर रोक कानूनी रूप से सही नहीं है. यह आदेश लोकतंत्र को ताकत देने वाला है.

केवल अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने से काम नहीं चलेगा. दुर्भाग्य से लोकतंत्र की भावना उन राजनेताओं के दिलों से खत्म हो रही है, जो कानूनी रूप से वाजिब विरोधों को दबाने की कोशिश कर रहे हैं. निषेधात्मक आदेशों की शुरुआत 1861 में समाज मे अशांति फैलने से रोकने के लिये की गई थी और इसे, 1973 की भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता में भी जगह मिली थी.

आम नागरिकों के विरोध करने के हक और सरकार की समाज में शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी के बीच समन्वय स्थापित करने की जरूरत है. ऐसा न होने के कारण निषेधात्मक आदेश लागू होते हैं और सड़कों पर खून बहता है. लोगों के संवैधानिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन होता है.

सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में ही ऐसे निषेधात्मक आदेशों (धारा 144) की वैधता पर फैसला देते हुए यह साफ़ किया था कि इसका इस्तेमाल कब किया जा सकता है और किन हालातों के चलते किया जा सकता है. कोर्ट ने धारा 144 को लागू करते समय 'उचित संयम' बरतने को लेकर भी अनुच्छेद 19 में किये गये विस्तार के बारे में बात कही.

कोर्ट ने यह भी कहा कि, क्या धारा 144 लगाने से पहले स्थिति का पूरा अध्ययन किया गया और क्या इसे लागू करते समय 'उचित संयम' भी बरता गया. इस बारे में 2016-17 में कहा गया था, लेकिन इन दिशा-निर्देशों पर सरकारों द्वारा अमल किये जाने के कोई उदाहरण नहीं हैं.

नागरिक संशोधन क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों को लेकर उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ जनसंख्या को, महज़ एक ट्वीट से जानकारी देकर, धारा 144 के अंतर्गत ले आना सत्ता के दुरुपयोग जैसा था. कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह सवाल किया था कि, क्या सरकार हर विरोध को शांति के लिये खतरनाक बताकर धारा 144 का इस्तेमाल कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आंध्र प्रदेश की राजधानी के उन प्रदर्शनकारियों के लिये ज्यादा रंगत वाला नहीं है, जहां आज भी निषेधात्मक आदेश लागू हैं और अधिकारी, लाठियों से लैस होकर सड़कों पर देखे जा सकते हैं.

तीन जजों की बेंच ने यह साफ़ कर दिया कि धारा 144 सरकार के हाथ में ऐसा हथियार नहीं बनना चाहिये जिससे, विरोध करने के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को दबाने का काम किया जाये. यह साफ है कि निषेधात्मक आदेशों को कानून व्यवस्था पर खतरा होने की सूरत में ही लागू करना चाहिये. बेतरतीब तरह से दिये गये आदेश वैधता नहीं रखते हैं. यह सभी आदेश समीक्षा के दायरे में आते हैं और इन्हें सार्वजनिक रूप से बताने की ज़रूरत है ताकि पीड़ित क़ानून का दरावाजा खटखटा सकें.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश सराहनीय है. आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर रोक लगाने के मामले में भारत का, इराक़ और सुडान के बाद विश्व में तीसरा स्थान है और इसके कारण देश को 10,000 करोड़ का नुक़सान हो चुका है. कोर्ट ने इंटरनेट सेवाओं को भी नागरिकों के मौलिक अधिकार में शामिल किया है और इस पर रोक लगाने को लेकर भी फ़ैसला किया है.

कोर्ट ने कानून बनाने वालों से 2017 के नियमों में 'अस्थाई' की परिभाषा को ठीक करने को कहा है. तब तक कोर्ट ने सरकार को इंटरनेट सेवाएं बहाल करने को कहा है. गणतंत्र के 70 सालों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर गणराज्य के सही मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकी है. कोर्ट समय-समय पर दखल देकर नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते आ रहे हैं और यह देश के लोगों के लिये उम्मीद की किरण है.

कश्मीर टाइम्स के संपादक और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, गुलाम नबी आजाद ने केंद्र सरकार द्वारा आर्टिकल 370 हटाये जाने के बाद से लगाये गये प्रतिबंधों और टेलिफोन और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के खिलाफ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. इसके साथ ही नागरिक संशोधन क़ानून और एनआरसी ने भी देश के अलग-अलग हिस्सों में चिंताओं को जन्म दिया है.

सरकार देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों को भी कश्मीर की ही तर्ज़ पर रोकने की कोशिश कर रही है. इस सब के बीच जस्टिस वीपी रमन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी द्वारा दिये गये फैसले ने तीनों मुद्दों को छुआ है और सरकार को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, 16 अक्टूबर के उसके आदेश के बावजूद सरकार ने प्रतिबंध नहीं हटाये हैं. एक लोकतंत्र में जवाबदेही के लिये पारदर्शिता सबसे अहम होती है और ऐसे में सरकार को इन आदेशों का पालन करने की ज़रूरत थी. कोर्ट ने सरकार को याद दिलाया कि लोकतंत्र की रक्षा के लिये संविधान ने प्रेस की आजादी को अति महत्वपूर्ण माना है.

कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेस के सिर पर तलवार लटकाना गैरकानूनी है. कोर्ट ने यह भी कहा कि सीआरपीसी के अंतर्गत जारी प्रतिबंध से इंटरनेट सेवाओं पर रोक कानूनी रूप से सही नहीं है. यह आदेश लोकतंत्र को ताकत देने वाला है.

केवल अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने से काम नहीं चलेगा. दुर्भाग्य से लोकतंत्र की भावना उन राजनेताओं के दिलों से खत्म हो रही है, जो कानूनी रूप से वाजिब विरोधों को दबाने की कोशिश कर रहे हैं. निषेधात्मक आदेशों की शुरुआत 1861 में समाज मे अशांति फैलने से रोकने के लिये की गई थी और इसे, 1973 की भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता में भी जगह मिली थी.

आम नागरिकों के विरोध करने के हक और सरकार की समाज में शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी के बीच समन्वय स्थापित करने की जरूरत है. ऐसा न होने के कारण निषेधात्मक आदेश लागू होते हैं और सड़कों पर खून बहता है. लोगों के संवैधानिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन होता है.

सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में ही ऐसे निषेधात्मक आदेशों (धारा 144) की वैधता पर फैसला देते हुए यह साफ़ किया था कि इसका इस्तेमाल कब किया जा सकता है और किन हालातों के चलते किया जा सकता है. कोर्ट ने धारा 144 को लागू करते समय 'उचित संयम' बरतने को लेकर भी अनुच्छेद 19 में किये गये विस्तार के बारे में बात कही.

कोर्ट ने यह भी कहा कि, क्या धारा 144 लगाने से पहले स्थिति का पूरा अध्ययन किया गया और क्या इसे लागू करते समय 'उचित संयम' भी बरता गया. इस बारे में 2016-17 में कहा गया था, लेकिन इन दिशा-निर्देशों पर सरकारों द्वारा अमल किये जाने के कोई उदाहरण नहीं हैं.

नागरिक संशोधन क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों को लेकर उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ जनसंख्या को, महज़ एक ट्वीट से जानकारी देकर, धारा 144 के अंतर्गत ले आना सत्ता के दुरुपयोग जैसा था. कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह सवाल किया था कि, क्या सरकार हर विरोध को शांति के लिये खतरनाक बताकर धारा 144 का इस्तेमाल कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आंध्र प्रदेश की राजधानी के उन प्रदर्शनकारियों के लिये ज्यादा रंगत वाला नहीं है, जहां आज भी निषेधात्मक आदेश लागू हैं और अधिकारी, लाठियों से लैस होकर सड़कों पर देखे जा सकते हैं.

तीन जजों की बेंच ने यह साफ़ कर दिया कि धारा 144 सरकार के हाथ में ऐसा हथियार नहीं बनना चाहिये जिससे, विरोध करने के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को दबाने का काम किया जाये. यह साफ है कि निषेधात्मक आदेशों को कानून व्यवस्था पर खतरा होने की सूरत में ही लागू करना चाहिये. बेतरतीब तरह से दिये गये आदेश वैधता नहीं रखते हैं. यह सभी आदेश समीक्षा के दायरे में आते हैं और इन्हें सार्वजनिक रूप से बताने की ज़रूरत है ताकि पीड़ित क़ानून का दरावाजा खटखटा सकें.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश सराहनीय है. आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर रोक लगाने के मामले में भारत का, इराक़ और सुडान के बाद विश्व में तीसरा स्थान है और इसके कारण देश को 10,000 करोड़ का नुक़सान हो चुका है. कोर्ट ने इंटरनेट सेवाओं को भी नागरिकों के मौलिक अधिकार में शामिल किया है और इस पर रोक लगाने को लेकर भी फ़ैसला किया है.

कोर्ट ने कानून बनाने वालों से 2017 के नियमों में 'अस्थाई' की परिभाषा को ठीक करने को कहा है. तब तक कोर्ट ने सरकार को इंटरनेट सेवाएं बहाल करने को कहा है. गणतंत्र के 70 सालों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर गणराज्य के सही मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकी है. कोर्ट समय-समय पर दखल देकर नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते आ रहे हैं और यह देश के लोगों के लिये उम्मीद की किरण है.

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protection to civil rights 

विशेष लेख : नागरिक अधिकारों का बचाव 



लोकतंत्र में नागरिकों के पास कानूनी दायरे में रहकर विरोध करने का मौलिक अधिकार होता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ द्वारा दिया गया आदेश, सरकारों द्वारा ऐसे मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की तरफ़ उम्मीद जगाता है. कोर्ट ने क़ानून बनाने वालों और संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों को याद दिलाया. 

कश्मीर टाइम्स के संपादक और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, गुलाम नबी आजाद ने केंद्र सरकार द्वारा आर्टिकल 370 हटाये जाने के बाद से लगाये गये प्रतिबंधों और टेलिफोन और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के खिलाफ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. इसके साथ ही नागरिक संशोधन क़ानून और एनआरसी ने भी देश के अलग-अलग हिस्सों में चिंताओं को जन्म दिया है. 

सरकार देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों को भी कश्मीर की ही तर्ज़ पर रोकने की कोशिश कर रही है. इस सब के बीच जस्टिस वीपी रमन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी द्वारा दिये गये फैसले ने तीनों मुद्दों को छुआ है और सरकार को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई है.     

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, 16 अक्टूबर के उसके आदेश के बावजूद सरकार ने प्रतिबंध नहीं हटाये हैं. एक लोकतंत्र में जवाबदेही के लिये पारदर्शिता सबसे अहम होती है और ऐसे में सरकार को इन आदेशों का पालन करने की ज़रूरत थी. कोर्ट ने सरकार को याद दिलाया कि लोकतंत्र की रक्षा के लिये संविधान ने प्रेस की आजादी को अति महत्वपूर्ण माना है. 

कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेस के सिर पर तलवार लटकाना गैरकानूनी है. कोर्ट ने यह भी कहा कि सीआरपीसी के अंतर्गत जारी प्रतिबंध से इंटरनेट सेवाओं पर रोक कानूनी रूप से सही नहीं है. यह आदेश लोकतंत्र को ताकत देने वाला है.      

केवल अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने से काम नहीं चलेगा. दुर्भाग्य से लोकतंत्र की भावना उन राजनेताओं के दिलों से खत्म हो रही है, जो कानूनी रूप से वाजिब विरोधों को दबाने की कोशिश कर रहे हैं. निषेधात्मक आदेशों की शुरुआत 1861 में समाज मे अशांति फैलने से रोकने के लिये की गई थी और इसे, 1973 की भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता में भी जगह मिली थी. 

आम नागरिकों के विरोध करने के हक और सरकार की समाज में शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी के बीच समन्वय स्थापित करने की जरूरत है. ऐसा न होने के कारण निषेधात्मक आदेश लागू होते हैं और सड़कों पर खून बहता है. लोगों के संवैधानिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन होता है.

सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में ही ऐसे निषेधात्मक आदेशों (धारा 144) की वैधता पर फैसला देते हुए यह साफ़ किया था कि इसका इस्तेमाल कब किया जा सकता है और किन हालातों के चलते किया जा सकता है. कोर्ट ने धारा 144 को लागू करते समय 'उचित संयम' बरतने को लेकर भी अनुच्छेद 19 में किये गये विस्तार के बारे में बात कही. 

कोर्ट ने यह भी कहा कि, क्या धारा 144 लगाने से पहले स्थिति का पूरा अध्ययन किया गया और क्या इसे लागू करते समय 'उचित संयम' भी बरता गया. इस बारे में 2016-17 में कहा गया था, लेकिन इन दिशा-निर्देशों पर सरकारों द्वारा अमल किये जाने के कोई उदाहरण नहीं हैं. 

नागरिक संशोधन क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों को लेकर उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ जनसंख्या को, महज़ एक ट्वीट से जानकारी देकर, धारा 144 के अंतर्गत ले आना सत्ता के दुरुपयोग जैसा था. कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह सवाल किया था कि, क्या सरकार हर विरोध को शांति के लिये खतरनाक बताकर धारा 144 का इस्तेमाल कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आंध्र प्रदेश की राजधानी के उन प्रदर्शनकारियों के लिये ज्यादा रंगत वाला नहीं है, जहां आज भी निषेधात्मक आदेश लागू हैं और अधिकारी, लाठियों से लैस होकर सड़कों पर देखे जा सकते हैं.

तीन जजों की बेंच ने यह साफ़ कर दिया कि धारा 144 सरकार के हाथ में ऐसा हथियार नहीं बनना चाहिये जिससे, विरोध करने के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को दबाने का काम किया जाये. यह साफ है कि निषेधात्मक आदेशों को कानून व्यवस्था पर खतरा होने की सूरत में ही लागू करना चाहिये. बेतरतीब तरह से दिये गये आदेश वैधता नहीं रखते हैं. यह सभी आदेश समीक्षा के दायरे में आते हैं और इन्हें सार्वजनिक रूप से बताने की ज़रूरत है ताकि पीड़ित क़ानून का दरावाजा खटखटा सकें. 

सुप्रीम कोर्ट का आदेश सराहनीय है. आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर रोक लगाने के मामले में भारत का, इराक़ और सुडान के बाद विश्व में तीसरा स्थान है और इसके कारण देश को 10,000 करोड़ का नुक़सान हो चुका है. कोर्ट ने इंटरनेट सेवाओं को भी नागरिकों के मौलिक अधिकार में शामिल किया है और इस पर रोक लगाने को लेकर भी फ़ैसला किया है. 

कोर्ट ने कानून बनाने वालों से 2017  के नियमों में 'अस्थाई' की परिभाषा को ठीक करने को कहा है. तब तक कोर्ट ने सरकार को इंटरनेट सेवाएं बहाल करने को कहा है. गणतंत्र के 70 सालों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर गणराज्य के सही मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकी है. कोर्ट समय-समय पर दखल देकर नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते आ रहे हैं और यह देश के लोगों के लिये उम्मीद की किरण है.


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Last Updated : Feb 18, 2020, 12:39 AM IST
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