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देश में हवा की गुणवत्ता खराब, सांस लेने में घुट रहा दम!

शिकागो विश्वविद्यालय के इपीआईसी के अद्यतन अध्ययन का निष्कर्ष है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वायु प्रदूषण के कारण लोगों के जीवित रह पाने की उम्मीद (जीवन प्रत्याशा) लगभग दो साल घट गई है. भारत की बात करें तो यहां के नागरिकों के जीवित रहने की संभावित उम्र औसतन 5.2 साल कम हो रही है. उत्तर भारत में तो बताया जा रहा है कि यह लगभग 10 साल तक है. लखनऊ जैसे शहर में हवा में सूक्ष्म धूल-कणों का जमाव विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से 11 गुणा है. यह संकट की गंभीरता का सीधा संकेत है.

सांस लेने में घुट रहा दम
सांस लेने में घुट रहा दम
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Published : Aug 1, 2020, 10:39 PM IST

हैदराबाद : देश में हवा की गुणवत्ता खराब होती जा रही है. हर दिन एक लाख लोग सांस से संबंधित बीमारी के शिकार हो रहे हैं. सांख्यिकीय विश्लेषण का यह निष्कर्ष बहुतों के लिए चौंकाने वाला है. जीवनदायी हवा न सिर्फ जहरीली और बीमारी संभावना वाली होती जा रही है, बल्कि जीने की उम्र कम करने का कारण भी बन रही है.

शिकागो विश्वविद्यालय के इपीआईसी के अद्यतन अध्ययन का निष्कर्ष है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वायु प्रदूषण के कारण लोगों के जीवित रह पाने की उम्मीद (जीवन प्रत्याशा) लगभग दो साल घट गई है.

भारत की बात करें तो यहां के नागरिकों के जीवित रहने की संभावित उम्र औसतन 5.2 साल कम हो रही है. उत्तर भारत में तो बताया जा रहा है कि यह लगभग 10 साल तक है. लखनऊ जैसे शहर में हवा में सूक्ष्म धूल-कणों का जमाव विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से 11 गुणा है. यह संकट की गंभीरता का सीधा संकेत है.

उत्तरी कोलकाता जैसे शहर में रह रहे लोगों के सामान्य सांस में पाया गया है कि वे एक दिन में 22 सिगरेट पीने के बराबर कष्ट पा रहे हैं. जींद, बागपत, गाजियाबाद, मुरादाबाद, सिरसा और नोएडा में हवा की गुणवत्ता का स्तर दिल्ली से भी खराब है. दिल्ली प्रदूषण की राजधानी के रूप में मशहूर है, जो बहुत भयावह है.

विश्लेषण में कहा गया है कि रहने के मानक से 66 करोड़ भारतीयों के लिए वायु प्रदूषण नुकसानदेह है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की घोषणा में कहा गया है कि देश में होने वाली हर आठ में से एक मौत के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है. यह शिकागो अध्ययन के परिणाम का समर्थन करता है कि आज तक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.

निष्कर्ष यह है भारत में वायु प्रदूषण लगभग दो दशक से जारी है. शिशुओं में दमा और बड़ों में लकवा व फेफड़े के कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी के मुख्य स्रोत के रूप में इसकी पहचान की गई है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन से निर्धारित मानदंड के अनुसार, हर घन मीटर हवा में महीन धूल कणों की मात्रा 10 माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण जांच और निगरानी नहीं कर पाने की अपनी प्रशासनिक अक्षमता के लिए माफ नहीं किए जा सकने वाला दोषी है, जिसके फलस्वरूप देश के एक तिहाई से अधिक शहर और कस्बे गैस चैंबर में बदल गए हैं.

वायु गुणवत्ता इंडेक्स के अनुसार, दुनिया की दूसरी सर्वाधिक आबादी वाला देश भारत समेत दक्षिण एशिया के चार देशों को सर्वाधिक खतरा है. इस मामले में बंग्लादेश के बाद भारत दूसरे स्थान पर है. यह एक ऐसा रिकॉर्ड है जिससे देश को शर्म से मर जाना चाहिए. हमें वायु प्रदूषण रोकने के लिए चीन में किए जा रहे बहुस्तरीय प्रयासों का अनुकरण करना चाहिए. चीन ने कोयला आधारित नया औद्योगिक संयंत्र लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, जो हैं उनके प्रदूषण फैलाने पर रोक लगाया है. कुछ स्टील फैक्ट्रियों को बंद किया गया है और वाहनों की भीड़ नियंत्रित की गई है.

उत्तरी चीन में फिर से वन लगाए गए हैं जो प्रति वर्ष 25 टन कार्बन डाईआक्साइड गैस सांस लेते हैं और प्रतिदिन 60 किलोग्राम ऑक्सीजन देते हैं. इससे हवा की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार हुआ है वहां प्रदूषण पर रोक लगी है. यहां स्थिति उलट है.

पिछली सरकारों के संगठनात्मक ढिलाई को सुधारने के प्रयास में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु योजना’का जो प्रस्ताव बनाया बनाया वह परवान नहीं चढ़ सका. पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की जगह बिजली चालित वाहनों को लाने के काम को प्रोत्साहित नहीं दिया जा रहा.

पर्यावरण रक्षा के प्रयास और प्रदूषण के कारण होने वाली मौत एक दूसरे से जुड़ाव है इसकी जागरुकता फैलाने के साथ सरकार की प्राथमिकताओं को हर हाल में बदलना होगा. जनता का सक्रिय समर्थन भी जुटाना होगा.

यदि बड़े पैमाने पर सामाजिक वानिकीकरण हो, दफ्तरों के पास ही जनता की बस्ती हो जाए, औद्योगिक और वाहन प्रदूषण को सख्ती से रोक लगे, परिवहन व्यवस्था में चरणबद्ध ढंग से बिजली से संचालित वाहनों को शामिल करने पर काम हो और सौर ऊर्जा का बड़े पैमाने पर उत्पादन जैसे उपाय लागू हों तो हवा की गुणवत्ता में बेहतरी आएगी और राष्ट्र का स्वस्थ जीवन सुनिश्चित होगा.

हैदराबाद : देश में हवा की गुणवत्ता खराब होती जा रही है. हर दिन एक लाख लोग सांस से संबंधित बीमारी के शिकार हो रहे हैं. सांख्यिकीय विश्लेषण का यह निष्कर्ष बहुतों के लिए चौंकाने वाला है. जीवनदायी हवा न सिर्फ जहरीली और बीमारी संभावना वाली होती जा रही है, बल्कि जीने की उम्र कम करने का कारण भी बन रही है.

शिकागो विश्वविद्यालय के इपीआईसी के अद्यतन अध्ययन का निष्कर्ष है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वायु प्रदूषण के कारण लोगों के जीवित रह पाने की उम्मीद (जीवन प्रत्याशा) लगभग दो साल घट गई है.

भारत की बात करें तो यहां के नागरिकों के जीवित रहने की संभावित उम्र औसतन 5.2 साल कम हो रही है. उत्तर भारत में तो बताया जा रहा है कि यह लगभग 10 साल तक है. लखनऊ जैसे शहर में हवा में सूक्ष्म धूल-कणों का जमाव विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से 11 गुणा है. यह संकट की गंभीरता का सीधा संकेत है.

उत्तरी कोलकाता जैसे शहर में रह रहे लोगों के सामान्य सांस में पाया गया है कि वे एक दिन में 22 सिगरेट पीने के बराबर कष्ट पा रहे हैं. जींद, बागपत, गाजियाबाद, मुरादाबाद, सिरसा और नोएडा में हवा की गुणवत्ता का स्तर दिल्ली से भी खराब है. दिल्ली प्रदूषण की राजधानी के रूप में मशहूर है, जो बहुत भयावह है.

विश्लेषण में कहा गया है कि रहने के मानक से 66 करोड़ भारतीयों के लिए वायु प्रदूषण नुकसानदेह है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की घोषणा में कहा गया है कि देश में होने वाली हर आठ में से एक मौत के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है. यह शिकागो अध्ययन के परिणाम का समर्थन करता है कि आज तक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.

निष्कर्ष यह है भारत में वायु प्रदूषण लगभग दो दशक से जारी है. शिशुओं में दमा और बड़ों में लकवा व फेफड़े के कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी के मुख्य स्रोत के रूप में इसकी पहचान की गई है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन से निर्धारित मानदंड के अनुसार, हर घन मीटर हवा में महीन धूल कणों की मात्रा 10 माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण जांच और निगरानी नहीं कर पाने की अपनी प्रशासनिक अक्षमता के लिए माफ नहीं किए जा सकने वाला दोषी है, जिसके फलस्वरूप देश के एक तिहाई से अधिक शहर और कस्बे गैस चैंबर में बदल गए हैं.

वायु गुणवत्ता इंडेक्स के अनुसार, दुनिया की दूसरी सर्वाधिक आबादी वाला देश भारत समेत दक्षिण एशिया के चार देशों को सर्वाधिक खतरा है. इस मामले में बंग्लादेश के बाद भारत दूसरे स्थान पर है. यह एक ऐसा रिकॉर्ड है जिससे देश को शर्म से मर जाना चाहिए. हमें वायु प्रदूषण रोकने के लिए चीन में किए जा रहे बहुस्तरीय प्रयासों का अनुकरण करना चाहिए. चीन ने कोयला आधारित नया औद्योगिक संयंत्र लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, जो हैं उनके प्रदूषण फैलाने पर रोक लगाया है. कुछ स्टील फैक्ट्रियों को बंद किया गया है और वाहनों की भीड़ नियंत्रित की गई है.

उत्तरी चीन में फिर से वन लगाए गए हैं जो प्रति वर्ष 25 टन कार्बन डाईआक्साइड गैस सांस लेते हैं और प्रतिदिन 60 किलोग्राम ऑक्सीजन देते हैं. इससे हवा की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार हुआ है वहां प्रदूषण पर रोक लगी है. यहां स्थिति उलट है.

पिछली सरकारों के संगठनात्मक ढिलाई को सुधारने के प्रयास में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु योजना’का जो प्रस्ताव बनाया बनाया वह परवान नहीं चढ़ सका. पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की जगह बिजली चालित वाहनों को लाने के काम को प्रोत्साहित नहीं दिया जा रहा.

पर्यावरण रक्षा के प्रयास और प्रदूषण के कारण होने वाली मौत एक दूसरे से जुड़ाव है इसकी जागरुकता फैलाने के साथ सरकार की प्राथमिकताओं को हर हाल में बदलना होगा. जनता का सक्रिय समर्थन भी जुटाना होगा.

यदि बड़े पैमाने पर सामाजिक वानिकीकरण हो, दफ्तरों के पास ही जनता की बस्ती हो जाए, औद्योगिक और वाहन प्रदूषण को सख्ती से रोक लगे, परिवहन व्यवस्था में चरणबद्ध ढंग से बिजली से संचालित वाहनों को शामिल करने पर काम हो और सौर ऊर्जा का बड़े पैमाने पर उत्पादन जैसे उपाय लागू हों तो हवा की गुणवत्ता में बेहतरी आएगी और राष्ट्र का स्वस्थ जीवन सुनिश्चित होगा.

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