आज के मौजूदा हालात में अगर राजनिति को किसी भी नजर से देखें तो, इसमें हर तरफ से भ्रष्टाचार दिखाई देता है. विडंबना ये है कि, न तो संविधान की शपथ लेकर अपने कार्यों का निर्वाहन करने की, नेताओं की कसमों में सच्चाई दिखती है और न ही उनके मातहत काम करने वाली भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों द्वारा कोर्ट में दायर किये जाने वाले शपथ पत्रों में कोई सच्चाई होती है.
क्नयासुल्कम के मशहूर किरदार, गिरीशम ने कहा था कि 'वो अपने विचार न बदलने वाले राजनेता नही हैं.' महाराष्ट्र सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने इस डायलॉग को गंभीरता से ले लिया है, शायद इसलिए अपने राजनीतिक आकाओं के साथ मिलिभगत कर वो बार बार अपने बयान बदलती रहती है.
जल और सिंचाई से जुड़े कार्यों के आवंटन में 70,000 करोड़ के घोटालों के आरोपों के बीच, बॉम्बे हाई कोर्ट ने एसीबी से इस मामले में अजीत पवार के शामिल होने की जांच के आदेश दिये थे.पिछले साल नवंबर में, हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के सामने एसीबी के महानिदेशक ने एक शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा कि 'महाराष्ट्र शासन के जेनरल एडमिनिस्ट्रेशन नियम के क्लॉज 10 के अनुसार, तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी सरकार में, सबसे लंबे समय तक रहे जल संसाधन मंत्री अजीत पवार ही अपने विभाग में हुई सारी गड़बड़ियों के लिये जिम्मेदार हैं.'
जहां अजीत पवार ने तर्क दिया था कि विभाग में नियमों और कायदों के पालन को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सचिवों और निदेशकों की है, एसीबी ने कोर्ट में कहा कि 'पवार ने ही काम के आवंटन और भुगतान की फाइलों पर हस्ताक्षर किये हैं.'
इसके साथ विभाग ने यह भी कहा, 'सरकार को करोड़ों रुपये का नुकसान पहुंचाने वाले सभी लोग नियमों को बहाना बनाकर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने की कोशिश कर रहे हैं.' एसीबी ने यह साफ कर दिया था कि, सरकार को नुकसान पहुंचाने के लिये, जल संसाधन मंत्रालय में ये एक बड़ी साजिश है. गौरतलब है कि, महज एक साल में एसीबी ने अपना नजरिया पूरी तरह बदल दिया.
इस मामले में एसीबी का पक्ष रखने वाले पुलिस अधीक्षक ने कोर्ट में 16 पन्नों का शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा, 'हालांकि, जल संसाधन मंत्री, विधर्ब सिंचाई विकास कॉर्पोरेशन के भी अध्यक्ष हैं, लेकिन उन्हें, समिति द्वारा की गई गलतियों के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. गड़बड़ियों पर नजर रखना उनकी जिम्मेदारी नहीं है.'
कुछ समय पहले ही जिस एसीबी ने, इस मामले में अजीत पवार को साफ तौर पर दोषी माना था, उसने यू-टर्न करते हुए पवार को क्लीन चिट दे दी और मामले की सारी जिम्मेदारी सिंचाई सचिव और कॉर्पोरेशन के एग्जीक्यूटिव निदेशक पर डाल दी. अपने बदले नजरिये के समर्थन में एसीबी ने कहा कि 'ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि विभाग के तत्कालीन सचिव ने पवार को इन फाइलों को हरी झंडी देने से रोका था.'
विधर्ब सिंचाई विकास कॉर्पोरेशन द्वारा 45 निर्माण कार्यों के लिये दिये गये 2,654 टेंडरों की जांच एसीबी कर रही है. जांच का केंद्र इनमें से 32 कार्यों में ज्यादा खर्च होने से राज्य सरकार को हुए 17,700 करोड़ का नुकसान है. ये यकीन करना मुश्किल है कि इस जांच में नवंबर, 2019 तक कोई नई बात सामने आई होगी. एसीबी द्वारा अपनी बात से पलट जाने के पीछे का कारण समझ से परे लगता है.
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, सत्ता हर पांच साल में बदलती है. इस कारण से सभी विभागों ने अपने बदलते हुक्मरानों की सुविधा के अनुसार अपने को बदलने की कला सीख ली है. पिछले दिनों महाराष्ट्र में सत्ता के खेल के दौरान ये बात सामने आई कि अजीत पवार को मिली क्लीन चिट उनके द्वारा फडणवीस सरकार को समर्थन के बदले में किया गया सौदा है. उस समय, एसीबी ने हड़बड़ी में यह साफ किया कि, उसने जिन नौ मामलों की फाइल बंद की है जिससे पवार का कोई लेना-देना नहीं है.
वहीं, पिछले महीने की 27 तारीख को एसीबी द्वारा कोर्ट में दायर शपथ-पत्र को देखें तो उसमें साफ कहा गया है कि, पवार की, महाराष्ट्र सरकार के नियमों की अनदेखी करने के मामले में कोई जिम्मेदारी नहीं है. यहां ये जरूरी नहीं है कि, कितने मामलों की फाइलें बंद हुई है. परेशान करने वाली बात ये है कि, किस तरह एसीबी ने पवार को सभी मामलों से बचाने के लिये कोशिश की है. ये सब, अजीत पवार के फडणवीस सरकार में उप मुख्यमंत्री बनने के एक दिन बाद और कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना सरकार बनने से एक दिन पहले हुआ.
2012 में मीडिया में आई खबरों के मुताबिक, अजीत पवार के सिंचाई मंत्री रहते, 32 प्रोजेक्ट संबद्ध विभाग के विरोध के बावजूद ऊंचे दामों पर दे दिये गये थे. सिंचाई के 1,200 छोटे बड़े कार्यों पर कुल 70,000 करोड़ रुपये खर्च हुए. पवार ने बिना सिंचाई विभाग कॉर्पोरेशन की सिफारिशों के ही 20,000 करोड़ के काम आठ महीने के अंदर, अपने स्तर पर दे दिये. इस मामले में उठे राजनीतिक घमासान के चलते 2012 में अजीत पवार का तख्ता पलट भी हुआ.
मामले की जांच के लिये सरकार द्वारा गठित स्पेशल जंच टीम के सामने, उस समय के नेता विपक्ष फडणवीस ने 14,000 पन्नों के साक्ष्य पेश किये थे. आरोप ये लगा था कि, पवार ने कॉरपोरेशन की समिति के साथ मिलकर, कमीशन खाने के लिये यह सारे काम दिये हैं. माधव चिताले के नेतृत्व वाली जांच टीम ने सबूत सामने रखे, लेकिन सरकार ने पवार को क्लीन चिट दे दी. हालांकि, 2014 में फडणवीस सरकार के आने के बाद यह जांच एसीबी को सौंपी गई थी, और चार साल तक जांच के बाद एसीबी ने पवार को दोषी ठहराया था, लेकिन उसी एसीबी ने अब इस मामले में अपना पक्ष पूरी तरह बदल दिया है.
2014 में एक सरकारी ठेकेदार ने राज्य सरकार को पत्र लिखकर ये आरोप लगाया कि सिंचाई विभाग के ठेके हासिल करने के लिये कमीशन देना अनिवार्य था. ये विभाग के छोटे बड़े सभी अफसरों और कर्मचारियों तक जाता था और काम की कुल कीमत का 20% कमीशन होता था. चाहे इस मामले में जितनी भी बाते हों, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियां, जैसे कि सीबीआई, ईडी, एसीबी आदि अपने राजनीतिक हुक्मरानों को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. इसके चलते तमाम एजेंसियां आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही हैं.
(लेखक- पी मूर्ति)