भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) अंतरिक्ष में व्यावसायिक तौर पर अपने को स्थापित करने के लिए तेजी से काम कर रहा है. इसरो इस क्षेत्र में अपने को तेजी से विकसित करना चाहता है, जिसमें दुनियाभर के संस्थान अपना हाथ आजमा रहे हैं. इसरो का पोलर सैटेलाइट लॉच वाहन (पीएसएलवी) अपनी 50वीं उड़ान के लिए तैयार है. अगर सब सही होता है तो, पीएसएलवी इस बार, एक तरह की नौ सैटेलाइटों को साथ लेकर उड़ान भरेगा. इनमें रीसैट-2 बीआर-1 भी शामिल होगी, जो एक घरेलू निगरानी उपकरण है.
एसएलवी और एएसएलवी की ही तर्ज पर पीएसएलवी रॉकेट ने इसरो को व्यावसायिक क्षेत्र में बुलंदियों की तरफ का रास्ता दिखाया है. हाल ही में पीएसएलवी-सी 47 का लॉच काफी खास है. इसका कार्टोसैट उपग्रह ज्यादातर अमरीकी उपग्रहों से बेहतर तस्वीरें ले सकता है.
इस उपग्रह के लांच के साथ, इसरो द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ी गई विदेशी रॉकेटों की संख्या 300 के पार पहुंच जाएगी. इसरो के ग्राहकों में अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देश शामिल हैं. इसरो अंतरिक्ष में छोटे रॉकटों को भेजने में अपनी महारथ हासलि करते जा रहा है.
एन्ट्रिक्स कॉर्पोरेशन, इसरो का मार्केटिंग अंग है और वह उपग्रहों के व्यावसायिक लॉंच को देख रहा है. कुछ मामलों में इसरो को क्षमता से अधिक ऑर्डर आने के चलते कई ऑर्डरों को छोड़ना भी पड़ा है.
2009-2018 के बीच छोटे रॉकटों को अंतरिक्ष में छोड़े जाने का (व्यापार) बाजार भाव $12.6 बिलियन से बढ़कर $42.8 बिलियन हो गया है. इसके 2019-2028 के बीच में चौगुनी होने की उम्मीद है. अगले दस सालों में 8,600 उपग्रहों के अंतरिक्ष में छोडे जाने की उम्मीद है. यह साफ करता है कि आने वाले दिनों में छोटे रॉकटों की लॉंचिंग का बाजार उछाल पर रहेगा.
इस तरह के बाजार को संभालने के लिये, भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी अंतरिक्ष क्षेत्र में आना होगा. अमेरिका में, स्पेस एक्स और ब्लू ओरिजिन जैसी कंपनियां मानवयुक्त अंतरिक्ष यान की तैयारी कर रही हैं. इसके चलते केंद्र सरकार ने इस क्षेत्र में निजी खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने का फैसला किया है.
इसी क्रम में, इसी साल मार्च में बेंगलुरु में न्यू स्पेस नाम से एक और व्यावसायिक इकाई को खोला गया है. इसका मुख्य मकसद है, भारतीय निजी कंपनियों को अंतरिक्ष के क्षेत्र में आने में मदद करना और इसरो के अनुसंधान के फायदों को भारतीय कंपनियों तक पहुंचाना. इसी साल लीथियम आयन बैटरी की तकनीक को काफी कम दामों पर कंपनियों को मुहैया कराया गया है.
भारत स्मॉल सैटेलाइट लॉंच वाहन (एसएसएलवी) को विकसित करने में लगा है. इसकी क्षमता पीएसएलवी से कम होती है. इसकी क्षमता करीब 300-500 किलो तक होती है.
कार्टोस्टैट के लॉंच के दौरान, इसरो के चैयरमैन डॉ के सिवन ने कहा था कि एसएसएलवी को भी बहुत जल्द लॉंच किया जायेगा. अगर इसरो को छोटे रॉकेट लॉच करने में कामयाबी मिलती है, तो इससे उसके खर्चों में काफी कमी आ जायेगी और अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ना इसरो के लिये और आसान हो जायेगा. इसरो इस बात को सुनिश्चित करना चाहता है कि उसकी सेवाएं व्यावसायिक तौर पर किफायती रहे.
आमतौर पर पीएसएलवी को लॉच के लिये तैयार करने में दो महीने का समय लग जाता है और इसकी तैयारियां भी काफी बड़े पैमाने पर होती हैं. वही, एसएसएलवी की तैयारियों में इससे चार गुना कम समय और कम संसाधनों का इस्तेमाल होता है. कीमत में भी ये पीएसएलवी से कम लागत वाली तकनीक है.
पीएसएलवी पर काम करने के लिये 30 करोड़ की लागत से करीब 600 कर्मचारियों की जरूरत होती है, वहीं एसएसएलवी के लिये महज 10 लोगों से काम हो जाता है. एन्ट्रिक्स के अनुमान के मुताबिक अगले दस सालों में सालाना 60 उपग्रहों को अंतरिक्ष में छोड़ा जायेगा.
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व्यावसायिक उपग्रहों को अंतरिक्ष में छोडने से इसरो की कमाई और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उसकी साख में इजाफा होगा. आमतौर पर संचार और ऊर्जा क्षेत्र में जरूरतों को पूरा करने वाले देशों को कोई भी नाराज नहीं करना चाहता है.
भारत के पड़ोसी देशों को छोटे उपग्रहों की जरूरत है. इसरो के नये रॉकेट सिस्टम से, भारत की साख पड़ोसी देशों में और बढ़ेगी. भारत ने दूरसंचार सेवाओं के लिये पहले भी जीसैट उपग्रह की सेवाएं सार्क देशों जैसे कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका को मुहैया कराई हैं.
कई देशों की निजी कंपनियों ने पहले ही अंतरिक्ष के बाजार में कदम रखा है. फिलहाल एक उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजने के लिये करीब $20,000 का खर्च आता है. हम अगर इससे कम कीमत पर सेवाएं देंगे, तो सफलता मिलने की उम्मीद और बढ़ जाती है.
पीटरबैक द्वारा संचालित, रॉकेट लैब्स एक अमरीकी कंपनी है, जिसने इलेक्ट्रॉन नाम का सबसे छोटा रॉकेट विकसित किया है. कंपनी ने स्पेस एक्स से अपना पहला कांन्ट्रैक्ट भी हासिल कर लिया है, और न्यूजीलैंड में अपनी साइट से छह उपग्रह छोड़ भी दिये हैं. 150 किलो के इन उपग्रहों को छोड़ने में करीब $60 मिलियन का खर्च आया है.
वहीं स्पेस एक्स, रि-यूजेबल रॉकेटों के परीक्षण के दूसरे पड़ाव पर पहुंच गई है. भारत ने ऐसा परीक्षण 2016 में किया था. चीन की कंपनी लिंक स्पेस ने भी आरएलवी टी-5 रॉकेट के दोबारा इस्तेमाल पर काम किया है. चीन की आईस्पेस 2021 में अपनी शुरुआत करने का लक्ष्य बनाये हुई है. अगर ऐसा होता है तो, आईस्पेस का कहना है कि कीमतों में 70% की कमी आ जायेगी. अगर इसरो भी इस तरह की तकनीक पर कामयाबी हासिल कर ले, तो फिर आसमान की बुलंदियां उसके लिये कम हैं.