खनिज पदार्थों के लिये खनन करना उतना ही पुराना है जितना कि हमारी सभ्यता. दुनिया में सबसे पहले खनन का काम अफ़्रीका में क़रीब 43,000 साल पहले शुरू हुआ था. इसकी शुरुआत हाथों और पत्थर से बने औज़ारों से हुई थी और साथ ही प्रकृति के साथ तालमेल बैठाने को भी प्राथमिकता दी जाती थी. मानव सभ्यता के लिये खनिज पदार्थों का खनन ज़रूरी था, लेकिन साथ ही पर्यावरण के साथ तालमेल भी बैठाया गया था और इस कारण से ही हम इन जगहों को आज भी विषाक्त बंजर भूमि की तरह चिन्हित कर पाते हैं.
हमारे पूर्वजों की तुलना में आज, हमारे पास ऐसे भारी मशीनें हैं जो कुछ ही दिनों में पहाड़ों को समतल कर सकती हैं और कई सौ मीटर तक धरती में खुदाई भी कर सकती है. हमने तकनीक के तौर पर काफ़ी तरक़्क़ी की है, लेकिन, आध्यात्मिक और पारिस्थितिकी के लिहाज़ से कई कदम पीछे चले गये हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत करना चाहिये क्योंकि इसके कारण भारत को पर्यावरण संरक्षण और धरती को ठीक कने का मौक़ा मिलता है.
लेकिन ज़रूरी बातें पहले, भारत में हर तर की खदानें मौजूद हैं. इनमें, कोयले से लेकर बॉक्साइट और गहरी खदानों से लेकर ओपन पिट खदानें शामिल हैं. इस लिये यह ज़रूरी है कि हम अलग अलग तरह की खदानों के लिये अलग अलग नियमावली बनायें.खनन की विभिन्न प्रकार की प्रक्रियायें ऐसे हानिकारक पदार्थ छोड़ती हैं जिसके कारण जल और मिट्टी में प्रदूषण होता है. सतही मिट्टी (जो पौधों के लिये ज़रूरी होती है) इस प्रक्रिया से सबसे पहले प्रभावित होती है क्योंकि खनन के कारण सबसे पहले इसका कटान होता है. धरती के लिये ज़्यादा सजग देश यह शर्त रखते हैं कि खनन के समय सतही मिट्टी को खोदकर किसी और जगह पर रखा जाये और खनिजों का खनन पूरा होने के बाद इस मिट्टी को वापस वहीं डाल दिया जाये. पर इस पर आगे चर्चा हो सकती है.
आमतौर पर किसी भी खदान को दोबारा हरित करना आसान नहीं होता क्योंकि खनन के चलते खदानों की रूपरेखा बिगड़ जाती है. दूसरी चुनौती होती है मिट्टी में पौधों के विकास के लिये ज़रूरी पदार्थों का न के बराबर बचना. बाक़ी बची मिट्टी में भी पानी और अन्य तत्वों को रोकने की क्षमता न के बराबर रह जाती है. इसके साथ ही मिट्टी में खनिजों और बड़े पीएच वाले पदार्थों की तादाद भी बड़ जाती है जो पेड़-पौधों के विकास के लिये हानिकारक होता है. कोयले की खदानों के लिये खारापन और सोडिसिटी दोबारा हरित करने में और ज़्यादा परेशानी पैदा करती है.
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, दोबारा हरित करने के आदेश के असर अलग हो सकते हैं. इससे या तो पेड़ पौधों को दोबारा जीवन देने में मदद मिल सकती है, या फिर, नई खरपतवार के पैदा होने से मौजूदा पेड़ पौधों के जीवन पर संकट आ सकता है. इसलिये सुप्रीम कोर्ट को जैव विविधता को बढ़ाने के लिये सही सुझाव देने के लिये जानकारों की एक समिति बनाने की ज़रूरत है. उद्योग के जानकारों और वैज्ञानिकों को गहन अध्ययन कर, हर राज्य में मौजूद अलग अलग खदानों के हालातों के हिसाब से रिपोर्ट तैयार करनी चाहिये. इस समिति में स्थानीय लोगों का और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिये. इन लोगों के सुझाव इन जगह को दोबारा हरित करने के लिये काफ़ी मददगार होंगे.
सुप्रीम कोर्ट को इस समिति की मदद से यह सुनिश्चित करना चाहिये कि दोबारा हरित करने के दौरान गैर देसी और इनवेसिव नस्ल के पौधों का इस्तेमाल न हो. पुनर्जीवित करने का यह काम कई तरह की प्रक्रियाओं से हो सकता है, इसलिये, खनन कंपनियों के लिये जैव विविधता के लिहाज़ से साफ़ लक्ष्य स्थापित करने की ज़रूरत है. इसमें 50% स्थानीय जैव विविधता को जीवित करने के लिये पौधों के रोपण का सहारा लेने की ज़रूरत है. इसके साथ ही इस मॉडल में यह शर्त भी रखी जा सकती है कि अतिरिक्त 10% ज़मीन का इस्तेमाल विलुप्त होने की कगार पर पहुँची स्थानीय प्रजाति के पेड़ों के लगाने के लिये होगा.
स्थानीय घास और पौधे इस प्रक्रिया के शुरुआती दौर में अहम भूमिका निभा सकते हैं. चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ लगाने चाहिये क्योंकि इससे ज़मीन की उर्वरक क्षमता बढ़ाने में मदद मिलती है. पेड़ों पर आधारित काम करने से ज़मीन और इलाके में मिट्टी की क्षमता को बेहतर करने में मदद मिलेगी. खनन कंपनियों को पौराणिक ‘हम्मुराबी कोड’ का पालन करना चाहिये. इसके तहत, जंगल के बदले जंगल वापस करने का नियम था और अगर ऐसा होता है तब ही, स्थानीय समुदायों के साथ न्याय हो सकेगा. समुदाय के लोग अपने इलाक़े और ज़रूरतों के हिसाब से प्रक्रिया का चयन कर सकते हैं, या, इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिये ज़्यादा प्रचलित मियावाकी तरीक़ों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
वृक्षारोपण कृषि-पारिस्थितिक तरीक़ों से करने की ज़रूरत है ताकि, मिट्टी में विषैले तत्व न जा सकें. वृक्षारोपण को स्थानीय पक्षियों और पशुओं को ध्यान में रखकर करने भी ज़रूरत है. इसलिये ज़्यादा से ज़्यादा औषधि वाले पेड़ लगाने चाहिये ताकि इन पक्षु पक्षियों के लिये बसेरे का भी इंतज़ाम हो सके. पहले चरण में तरह तरह की घासों और दालों के रोपण से जंगलों की नींव रखने में मदद मिल सकेगी. इसके लिये कुश और अन्य प्रजातियों की घासों का इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.
इस आदेश के तहत, हर खनन कंपनी के अपने प्रोजेक्ट के साथ एक जैव विविधता संचालक नियुक्त करना हो और दोबारा हरित करने के अपने प्लान को एक तीसरी पार्टी से सत्यापित कराना पड़ेगा. इन लक्ष्यों को हासिल न करने की सूरत में कड़ी सज़ा का प्रावधान भी होना चाहिये. वहीं, कंपनी के आर्थिक हितों को ध्यान में रख कर, कंपनी को इस प्रक्रिया के लिये अपने सीएसआर फंड के इस्तेमाल की इजाज़त भी होनी चाहिये.
मिट्टी का ख़राब होना और इसका कटान भारत ही नहीं, इसके आस पास के देशों के लिये भी एक बड़ा मुद्दा है. पर्यावरण और जीविका के नुकसान का सामना कर रहे समुदायों के लिये सुप्रीम कोर्ट का आदेश उम्मीद जगाता है कि इसके लागू होने से न केवल इन लोगों को अपने पर्यावरण को बचाने का मौक़ा मिलेगा बल्कि यह लोग अपने लिये यहीं से जीविका के माध्यमों का भी सृजन कर सकेंगे. एक बार इन इलाक़ों का पुनर्निर्माण हो जायेगा तो शायद यहाँ के लोग दोबारा जंगलों पर निर्भर हो सकेंगे.
हमें वसुधैव कुटुम्बकम के अपने सिद्धांत पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. हमारे ऊपर धरती पर रह रहे अन्य पशु पक्षियों के प्रति भी ज़िम्मेदारी है. हमें शोषण की अपनी मानसिकता को छोड़ कर धरती को दिये गये ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की ज़रूरत है. मनुष्य अंततः प्रकृति द्वारा दिये गये संसाधनों पर जीवित रहने वाला प्राणी हैं. अनेकों बार मनुष्य ने प्रकृति पर क़ाबू पाने की कोशिश की है और प्रकृति ने ममता दिखाते हुए ऐसा होने भी दिया है, लेकिन हमें उसके संयम का इम्तिहान लेने की ज़रूरत नहीं है.
इंद्र शेखर शिंह
(लेखक, नेशनल सीड ससोसियेशन ऑफ इंडिया में निदेशक- पॉलिसी और आउटरीच के कद पर कार्यरत हैं)