सेना दिवस के मौके पर पत्रकारों से बातचीत में सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने कहा था, 'हम भारत के संविधान के प्रति निष्ठावान हैं. चाहे अफसर हों या जवान, हमने संविधान की रक्षा करने की शपथ खाई है और हमारे सभी कार्यों को यही शपथ दिशा देगी. इस बारे में हमारे संविधान की प्रस्तावना में भी लिखा है. यानी न्याय, आजादी, बराबरी और भाईचारा. और हम भी इसी का रक्षा के लिए लड़ रहे हैं.'
सेना प्रमुख 'भारत के संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा और भरोसे' की उस कसम के बारे में जिक्र कर रहे थे, जो हर अधिकारी और जवान सेना में भर्ती होते समय खाता है. यह बात सभी जानते हैं, लेकिन सेना प्रमुख के बयान को इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा रहा है कि कुछ समय से यह आरोप लग रहे थे कि इन दिनों सेना का राजनीतिकरण हो रहा है. हाल ही में सीएए के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों पर जनरल बिपिन रावत के बयान की विपक्षी दलों और कई पूर्व सैन्य अधिकारियों ने यह कह कर निंदा की थी कि यह बयान राजनीतिक है.
सैन्य सिद्धांतों के मूल में 'देश के प्रभुत्व' की बात सबसे जरूरी है. सेना, देश की भलाई और सुरक्षा के लिए है न कि इसके उलट. किसी भी लोकतंत्र में देश की इच्छा उसके राजनीतिक नेतृत्व के जरिए जाहिर होती है. जंग पर लिखते हुए क्लॉजविट्ज ने कहा है, 'सैन्य रुख के आगे राजनीतिक नजरिये का झुकना तर्कसंगत नहीं होगा, क्योंकि नीतियों से जंग होती है, नीति इसके पीछे का दिमाग है, जंग तो केवल माध्यम है. इसलिए केवल यही मुमकिन है कि सैन्य नजरिया राजनीतिक नजरिये के हिसाब से चले.'
हालांकि, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सेना के स्तर पर राजनीतिक दलों के स्टैंड को अपनाया जाए. सैन्य समाजशास्त्र के मशहूर जानकार, क्रिस जानोविट्ज ने अपनी किताब, द प्रोफेशनल सोल्जर में लिखा है, 'सेना के पेशेवर बर्ताव के दूरगामी राजनीतिक नतीजे होते हैं. लेकिन पारम्परिक तौर पर अधिकारी, राजनीतिक विचारधारा के कारण इससे दूर रहते हैं. वहीं इसके उलट किसी खास अधिकारी की राजनीतिक रुचि हद से हद अनियमित होती है.'
सेना के अराजनैतिक रहने के पीछे खास कारण हैं. इसमें सबसे अहम है सेना का पेशेवर होना. सैन्य-नागरिक रिश्तों के कई जानकार सेना के पेशेवर होने को इसके अराजनैतिक होने से जोड़ते हैं. सेना को राजनीति से बाहर रखने से इसके पेशेवर होने को बढ़ावा मिलेगा और एक पेशेवर सेना सहजता से नागरिक नेतृत्व को स्वीकार करेगी. यह किसी भी गणतंत्र के लिए दोनों तरफ जीत जैसे हालात हैं.
यहां एक और बात कहनी जरूरी है. सेना का पेशेवर रहना केवल सेना के राजनीति से बाहर रहने से नहीं होता बल्कि यह तब और बेहतर होता है, जब रोजमर्रा के सैन्य फैसलों से राजनीति को बाहर रखा जाए. इसलिए देशहित के लिए सबसे अच्छा होगा अगर तमाम राजनेता सेना को अपनी राजनीतिक बहस से अलग रखें. हाल ही में कांग्रेसी नेता, अधीर रंजन चौधरी द्वारा, सेना प्रमुख को 'कम बात और ज्यादा काम करने' की सलाह देना सम्मानजनक नहीं था. सैम्यूएल हंटिंगटन ने द सोल्जर एंड द स्टेट में कहा है, 'अगर आम नागरिक सेना को सैन्य परम्पराओं का पालन करने देंगे तो आखिरकार इन मानकों को अपनाकर देशों को और ज्यादा सुरक्षा की भावना प्राप्त होगी.'
देश सेवा की अपनी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में सेना के सामने देश के मूल सिद्धांतों को प्राथमिकता देने की जरूरत है और वो सिद्धांत है हमारा संविधान. कुछ लोगों का तर्क है कि सेना पर नागरिक नियंत्रण का मतलब है कि सेना की निष्ठा सत्ता में काबिज सरकार के प्रति होगी. सामान्य नजर से इस तर्क में दम लग सकता है. लेकिन, सामरिक लिहाज से संवेदनशील मामलों में राजनीतिक नियंत्रण को मानना निष्ठा का नहीं पेशेवर होने का संकेत है. निष्ठा हमेशा किसी मतलब या भावना के लिए होती है, न कि नेता या राजनीतिक विचारधारा के प्रति.
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सैनिक रोजमर्रा के काम की तरह अपनी जान पर खेलते रहेंगे, अगर एलओसी पर गोलियों के बीच नहीं तो कारगिल और सियाचिन की बर्फीली पहाड़ियों से लोहा लेते हुए. इन सैनिकों को सभी चुनौतियों से लड़ने की ताकत इस बात से मिलती है कि वो अपनी जान से भी बड़े मक़सद के लिए लड़ रहे हैं और देशभक्ति का यह जज्बा, सत्ता में कौन सी पार्टी की सरकार है, इस बात पर निर्भर नहीं करता है.
40 साल वर्दी पहनने वाले एक पूर्व सैनिक के तौर पर मेरे लिए सेना प्रमुख का बयान काफी खुश करने वाला था. इसमें कोई शक नहीं कि हाल के दिनों में कुछ वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के बयानों ने असहजता पैदा की है, लेकिन उम्मीद है कि नए सेना प्रमुख इन पर अंकुश लगा सकेंगे. भारतीय सेना देश के सबसे गरिमामय संगठनों में एक है और कई बार इसके सम्मान को हमसे भी बचाने की जरूरत होती है.
(लेखक- ले. जन. डीएस हुड्डा)