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कोरोना वायरस महामारी के चलते श्रम अधिकार कानून में दी गई ढील

पिछले सप्ताह कई राज्यों ने कोरोना वायरस महामारी के चलते अर्थतंत्र पर हुए प्रभाव से उबरने के प्रयास के तौर पर श्रम अधिकार कानूनों में कई तब्दीलियां की हैं. मध्य प्रदेश ने पहल कर श्रम कानूनों में कई छूट देने की घोषणा की ताकि मरणासन्न उद्योगों में जान फूंकी जा सके. उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और केरल ने भी उद्योगों को डूबने से बचाने के लिए कई कदम उठाए हैं. ओडिशा, गोवा और कर्नाटक सरकारें भी श्रम कानून में छूट देने पर सोच रही हैं. पढ़ें पूरी आलेख...

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Published : May 19, 2020, 6:30 PM IST

हैदराबाद : पिछले सप्ताह कई राज्यों ने कोरोना वायरस महामारी के चलते अर्थतंत्र पर हुए प्रभाव से उबरने के प्रयास के तौर पर श्रम अधिकार कानूनों में कई तब्दीलियां की हैं. मध्य प्रदेश ने पहल कर श्रम कानूनों में कई छूट देने की घोषणा की ताकि मरणासन्न उद्योगों में जान फूंकी जा सके. उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और केरल ने भी उद्योगों को डूबने से बचाने के लिए कई कदम उठाए हैं. ओडिशा, गोवा और कर्नाटक सरकारें भी श्रम कानून में छूट देने पर सोच रही हैं.

इन उपायों में काम के घंटे बढ़ाना, ओवरटाइम सीमा को बढ़ाना, निरीक्षणों की नौकरशाही बाधाओं को दूर करना और तीन महीने से एक वर्ष तक की अवधि के लिए एक ट्रेड यूनियन को मान्यता देने के लिए एक कारखाने में बेंचमार्क सदस्यता बढ़ाना शामिल है.

हालांकि, उत्तर प्रदेश ने तीन को छोड़ सभी श्रम कानूनों को एक हजार दिनों के लिए निलंबित कर बहुत बड़ा कदम उठाया है. निलंबन से बच गए तीन कानून बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन एक्ट, बॉन्डेड लेबर एक्ट और पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट की धारा पांच हैं.

केरल ने निवेश को आकर्षित करने के लिए घोषित किया कि यदि निवेशक एक वर्ष में औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए सहमत होता है तो वह नए उद्योग के लिए एक सप्ताह का लाइसेंस प्रदान करेगा. उसने श्रम कानूनों में कोई बदलाव नहीं किया है.

सवाल यह उठता है कि हमारे राज्य यह तब्दीलियां लाने के लिए अभी ही क्यों जागे. इसके दो कारण बताए जा सकते हैं. पहला, बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के एक राज्य से दूसरे राज्य पलायन करने से औद्योगिक रूप से विकसित राज्यों जैसे कि महाराष्ट्र और गुजरात में शून्यावकाश पैदा हो गया है.

बीमार उद्योग को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा घोषित विभिन्न आर्थिक पैकेज बेकार साबित हो सकते हैं. यदि पहले सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यानी पर्याप्त कार्य बल की पूर्ति नहीं की जाती. जब बड़ी संख्या में मजदूर पलायन कर चुके हों और जिनकी वापसी की कम ही उम्मीद हो ऐसे में उद्योगों को बचे हुए श्रमिकों से काम चलाना होगा. दिन के अधिक से अधिक घंटों के लिए श्रम करने का मतलब उत्पादन स्थायी होगा, जो न केवल उद्योग और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में मदद करेगा, बल्कि पलायन कर गए श्रमिकों को वापस आने के लिए उत्साहित करेगा.

दूसरा, जो कंपनियां अपना उत्पादन चीन से हटाकर अन्य देशों में ले जाने का आयोजन कर रही हैं, वह उद्योगों के हित में लिए गए उपायों से प्रेरित हो कर भारत में उत्पादन करने का तय कर सकती हैं.

अमेरिका की महाकाय कंपनी एप्पल ने यह घोषणा भी कर दी है कि वह चीन से अपनी 25 प्रतिशत उत्पादन गतिविधि भारत में ले आएगी. खबर है कि चीन में काम कर रही करीब एक हजार अमेरिकी कंपनियां भारत में अपना काम ले आने के लिए भारतीय अधिकारियों से बातचीत कर रही हैं.

यह भी माना जाता है कि भारत सरकार ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, हार्डवेयर, फार्मास्युटिकल्स के क्षेत्र में अपना सेटअप स्थानांतरित करने के लिए कंपनियों को लक्षित कर रही है, जिसमें चिकित्सा उपकरण, चमड़ा, खाद्य प्रसंस्करण और भारी इंजीनियरिंग शामिल हैं. इस अवसर को भांपते हुए, सरकार ने पहले ही ऐसे विदेशी निवेशकों के लिए 4,61,589 हेक्टेयर (461 वर्ग किमी) की जगह ले ली है. इससे खाड़ी से लौटने वाले भारतीयों को भी रोजगार मिलेगा. गुजरात, कर्नाटक, यूपी, महाराष्ट्र और केरल इस अवसर के लिए पहले से ही कमर कस रहे हैं. जापान, जिसने गुजरात और दक्षिण कोरिया में भारी निवेश किया है, भारत में बेहतर विकल्पों की तलाश में है.

श्रम संविधान की समवर्ती सूची का विषय होने के नाते, इस विषय पर राज्य सरकार द्वारा लागू किया गया कोई भी कानून निरस्त हो सकता है. यदि यह केंद्र द्वारा बनाए गए कानून का उल्लंघन करता है. इसीलिए कई राज्यों ने अध्यादेशों के माध्यम से इन संशोधनों को अंजाम दिया है.

इसके अलावा, ऐसा लगता है कि उत्तर भारत के दो भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और शिवराज चौहान ने किसी भी टकराव से बचने के लिए अध्यादेश लाने से पहले ही प्रधानमंत्री को विश्वास में ले लिया है. संसद और राज्य विधानसभाएं सत्र में नहीं होने के कारण सरकारों को उचित समय भी मिल गया कि वह बिना किसी बाधा के श्रम कानून में अपने मन मुताबिक संशोधन ला सके. फिर भी बाधाएं बनी हुई हैं.

मजे कि बात है कि इन संशोधनों का सबसे पहले विरोध भाजपा से संलग्न मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ ने किया. अन्य मजदूर संगठनों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाई है. इन संगठनों ने इसे 'मजदूर विरोधी और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ बताया है.'

कुछ राज्यों ने श्रमिक संगठनों की मान्यता की सीमा निर्धारित कर दी है, जो निश्चित रूप से श्रमिकों के हितों को चोट पहुंचाएगा. पिछले वर्ष ही संसद द्वारा पारित मजदूरी संहिता कानून का उल्लंघन करने के आधार पर नए नियमों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है. हालांकि विपक्ष की राज्य सरकारों ने भी सीमित दायरे में ही सही श्रम कानूनों में संशोधन को आवश्यक समझा है. इसलिए इन संशोधनों का विरोध कमजोर पड़ जाएगा.

विरोध का एक मुद्दा इन संशोधनों की समय सीमा को लेकर है. हरियाणा ने जहां इसकी समय सीमा तीन महीने रखी है, उत्तर प्रदेश ने श्रम कानूनों को एक हजार दिन के लिए निरस्त कर दिया है. उद्योगों को पुनर्जीवित करने का अंदाज लगाने के लिए जहां तीन महीने बहुत कम है, वहीं तीन साल या उससे अधिक का समय इसकी अतिरेक है. यही समय है जब सरकारें श्रमिकों को अपने इरादे स्पष्ट करें और उन्हें समझाएं कि नए उपाय उनके हितों के लिए हानिकारक नहीं हैं.

हैदराबाद : पिछले सप्ताह कई राज्यों ने कोरोना वायरस महामारी के चलते अर्थतंत्र पर हुए प्रभाव से उबरने के प्रयास के तौर पर श्रम अधिकार कानूनों में कई तब्दीलियां की हैं. मध्य प्रदेश ने पहल कर श्रम कानूनों में कई छूट देने की घोषणा की ताकि मरणासन्न उद्योगों में जान फूंकी जा सके. उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और केरल ने भी उद्योगों को डूबने से बचाने के लिए कई कदम उठाए हैं. ओडिशा, गोवा और कर्नाटक सरकारें भी श्रम कानून में छूट देने पर सोच रही हैं.

इन उपायों में काम के घंटे बढ़ाना, ओवरटाइम सीमा को बढ़ाना, निरीक्षणों की नौकरशाही बाधाओं को दूर करना और तीन महीने से एक वर्ष तक की अवधि के लिए एक ट्रेड यूनियन को मान्यता देने के लिए एक कारखाने में बेंचमार्क सदस्यता बढ़ाना शामिल है.

हालांकि, उत्तर प्रदेश ने तीन को छोड़ सभी श्रम कानूनों को एक हजार दिनों के लिए निलंबित कर बहुत बड़ा कदम उठाया है. निलंबन से बच गए तीन कानून बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन एक्ट, बॉन्डेड लेबर एक्ट और पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट की धारा पांच हैं.

केरल ने निवेश को आकर्षित करने के लिए घोषित किया कि यदि निवेशक एक वर्ष में औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए सहमत होता है तो वह नए उद्योग के लिए एक सप्ताह का लाइसेंस प्रदान करेगा. उसने श्रम कानूनों में कोई बदलाव नहीं किया है.

सवाल यह उठता है कि हमारे राज्य यह तब्दीलियां लाने के लिए अभी ही क्यों जागे. इसके दो कारण बताए जा सकते हैं. पहला, बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के एक राज्य से दूसरे राज्य पलायन करने से औद्योगिक रूप से विकसित राज्यों जैसे कि महाराष्ट्र और गुजरात में शून्यावकाश पैदा हो गया है.

बीमार उद्योग को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा घोषित विभिन्न आर्थिक पैकेज बेकार साबित हो सकते हैं. यदि पहले सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यानी पर्याप्त कार्य बल की पूर्ति नहीं की जाती. जब बड़ी संख्या में मजदूर पलायन कर चुके हों और जिनकी वापसी की कम ही उम्मीद हो ऐसे में उद्योगों को बचे हुए श्रमिकों से काम चलाना होगा. दिन के अधिक से अधिक घंटों के लिए श्रम करने का मतलब उत्पादन स्थायी होगा, जो न केवल उद्योग और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में मदद करेगा, बल्कि पलायन कर गए श्रमिकों को वापस आने के लिए उत्साहित करेगा.

दूसरा, जो कंपनियां अपना उत्पादन चीन से हटाकर अन्य देशों में ले जाने का आयोजन कर रही हैं, वह उद्योगों के हित में लिए गए उपायों से प्रेरित हो कर भारत में उत्पादन करने का तय कर सकती हैं.

अमेरिका की महाकाय कंपनी एप्पल ने यह घोषणा भी कर दी है कि वह चीन से अपनी 25 प्रतिशत उत्पादन गतिविधि भारत में ले आएगी. खबर है कि चीन में काम कर रही करीब एक हजार अमेरिकी कंपनियां भारत में अपना काम ले आने के लिए भारतीय अधिकारियों से बातचीत कर रही हैं.

यह भी माना जाता है कि भारत सरकार ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, हार्डवेयर, फार्मास्युटिकल्स के क्षेत्र में अपना सेटअप स्थानांतरित करने के लिए कंपनियों को लक्षित कर रही है, जिसमें चिकित्सा उपकरण, चमड़ा, खाद्य प्रसंस्करण और भारी इंजीनियरिंग शामिल हैं. इस अवसर को भांपते हुए, सरकार ने पहले ही ऐसे विदेशी निवेशकों के लिए 4,61,589 हेक्टेयर (461 वर्ग किमी) की जगह ले ली है. इससे खाड़ी से लौटने वाले भारतीयों को भी रोजगार मिलेगा. गुजरात, कर्नाटक, यूपी, महाराष्ट्र और केरल इस अवसर के लिए पहले से ही कमर कस रहे हैं. जापान, जिसने गुजरात और दक्षिण कोरिया में भारी निवेश किया है, भारत में बेहतर विकल्पों की तलाश में है.

श्रम संविधान की समवर्ती सूची का विषय होने के नाते, इस विषय पर राज्य सरकार द्वारा लागू किया गया कोई भी कानून निरस्त हो सकता है. यदि यह केंद्र द्वारा बनाए गए कानून का उल्लंघन करता है. इसीलिए कई राज्यों ने अध्यादेशों के माध्यम से इन संशोधनों को अंजाम दिया है.

इसके अलावा, ऐसा लगता है कि उत्तर भारत के दो भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और शिवराज चौहान ने किसी भी टकराव से बचने के लिए अध्यादेश लाने से पहले ही प्रधानमंत्री को विश्वास में ले लिया है. संसद और राज्य विधानसभाएं सत्र में नहीं होने के कारण सरकारों को उचित समय भी मिल गया कि वह बिना किसी बाधा के श्रम कानून में अपने मन मुताबिक संशोधन ला सके. फिर भी बाधाएं बनी हुई हैं.

मजे कि बात है कि इन संशोधनों का सबसे पहले विरोध भाजपा से संलग्न मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ ने किया. अन्य मजदूर संगठनों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाई है. इन संगठनों ने इसे 'मजदूर विरोधी और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ बताया है.'

कुछ राज्यों ने श्रमिक संगठनों की मान्यता की सीमा निर्धारित कर दी है, जो निश्चित रूप से श्रमिकों के हितों को चोट पहुंचाएगा. पिछले वर्ष ही संसद द्वारा पारित मजदूरी संहिता कानून का उल्लंघन करने के आधार पर नए नियमों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है. हालांकि विपक्ष की राज्य सरकारों ने भी सीमित दायरे में ही सही श्रम कानूनों में संशोधन को आवश्यक समझा है. इसलिए इन संशोधनों का विरोध कमजोर पड़ जाएगा.

विरोध का एक मुद्दा इन संशोधनों की समय सीमा को लेकर है. हरियाणा ने जहां इसकी समय सीमा तीन महीने रखी है, उत्तर प्रदेश ने श्रम कानूनों को एक हजार दिन के लिए निरस्त कर दिया है. उद्योगों को पुनर्जीवित करने का अंदाज लगाने के लिए जहां तीन महीने बहुत कम है, वहीं तीन साल या उससे अधिक का समय इसकी अतिरेक है. यही समय है जब सरकारें श्रमिकों को अपने इरादे स्पष्ट करें और उन्हें समझाएं कि नए उपाय उनके हितों के लिए हानिकारक नहीं हैं.

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