नई दिल्ली : मीडिया में आई कुछ खबरों की मानें तो तालिबान के मुख्य वार्ताकार शेर मुहम्मद अब्बास स्टानिकजई ने अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को 'नकारात्मक' बताया. वहीं तालिबान के प्रवक्ता द्वारा किए गए कुछ ट्वीट्स में दावा करते हुए कहा गया, 'तालिबान और नई दिल्ली के बीच दोस्ती तब तक संभव नहीं है जब तक कि कश्मीर मुद्दा हल नहीं हो जाता.'
दूसरी ओर एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी ने विश्वास व्यक्त किया है कि तालिबान कश्मीर विवाद में दिलचस्पी नहीं रखता है.
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने काबुल में पूर्व राजदूत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) के वर्तमान सदस्य अमर सिन्हा से विशेष बातचीत की. इस दौरान अमर सिन्हा ने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि तालिबान ने कभी कहा है कि वह कश्मीर विवाद में रुचि रखता है. लेकिन इन दोनों मुद्दों को जोड़ने के लिए पाकिस्तान में कुछ वर्गों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं.'
उन्होंने कहा, 'वह इसे एक साधारण कारण से जोड़ना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस तरह से वे अमेरिकियों को रिझा सकते हैं. क्योंकि इस समीकरण का अफगान हिस्सा अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. जबकि पाकिस्तान के लिए समीकरणों के दोनों हिस्से बहुत महत्वपूर्ण हैं और वह एक निश्चित समानता चाहते हैं.'
भारत युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में राष्ट्रीय शांति और सुलह प्रक्रिया का समर्थन करने वाले प्रमुख क्षेत्रीय हितधारकों में से एक है. दोहा स्थित तालिबान राजनीतिक कार्यालय के प्रवक्ता ने बाद में अपने विवादास्पद ट्वीट को खारिज किया. उन्होंने (तालिबान प्रवक्ता) कहा कि इस्लामिक अमीरात अन्य पड़ोसी देशों के घरेलू मुद्दे में हस्तक्षेप नहीं करता है.
अमर सिन्हा ने कहा कि तालिबान ने यह सिर्फ दो दिन पहले ही नहीं कहा, बल्कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाते वक्त भी कहा था. पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा था कि यह दोहा में वार्ता को प्रभावित करने वाला था. तब तालिबान के प्रवक्ता ने कहा था कि यह दोनों मुद्दे बिल्कुल अलग हैं.
प्रवक्ता का कहना था कि अनुच्छेद 370 भारत का आंतरिक मामला है और हम इसका सम्मान करते हैं. उन्होंने यह साफ किया था कि वह कश्मीर मुद्दे और तालिबान के बीच कोई संबंध नहीं देखते हैं.
सिन्हा ने कहा कि पिछले हफ्ते हमने सोशल मीडिया पर छाए तालिबान के कुछ बयानों को देखा, जिनमें कश्मीर को हमसे छीन लेने के दावे किए जा रहे थे. लेकिन मुझे लगता है कि यह शरारती तत्वों की हरकत थी. इसके बाद तालिबान के दोनों प्रवक्ता स्टानिकजई और सुहैल शाहीन सामने आए और पूरे मामले पर सफाई पेश की.
आपको बता दें, अमर सिन्हा उन दो सेवानिवृत्त राजनयिकों में से एक हैं, जिन्होंने 2018 में मॉस्को वार्ता के दौरान पहली बार भारत का प्रतिनिधित्व किया था. इस दौरान उन्होंने तालिबान प्रतिनिधियों के साथ वार्ता मंच साझा किया था.
गौरतलब है कि पिछले 18 वर्षों में भारत तालिबान के साथ अफगान-नीत, अफगान स्वामित्व और अफगान नियंत्रित शांति प्रक्रिया की वकालत करने के लिए सीधे तौर पर शामिल होने ने इनकार करता आया है.
वहीं अमेरिका के विशेष दूत जलमे खलीलजाद ने हाल में अपने नई दिल्ली के दौरे पर कहा था कि भारत तालिबान से बात करे और अफगान राजनीतिक प्रक्रिया में बड़ी भूमिका निभाए. इस पर सिन्हा ने कहा कि भारत तालिबान सहित सभी गुटों से जुड़ने को तैयार है, लेकिन उन्हें पहले अपने इरादे साबित करने होंगे.
पूर्व दूत ने कहा, 'भारत अफगानिस्तान में सभी गुटों के साथ संलग्न हो सकता है. यह बहुत स्पष्ट है. लेकिन तालिबान को कम से कम यह साबित करना चाहिए कि वह एक राजनीतिक ताकत बन चुका है. इसने हिंसा को खत्म कर दिया है और अफगानों को मारना बंद कर दिया है.'
अमर सिन्हा ने कहा, 'मुझे लगता है कि इसकी अपनी नीतियां होनी चाहिए और हमें हमारे क्षेत्र में परिणामों को आकार देने के लिए पर्याप्त आश्वस्त रहना चाहिए. नहीं तो इस तरह के दृष्टिकोण से हमारी क्षेत्रीय और उभरती हुई शक्ति की बात का कोई मोल नहीं होगा और हमें अपने स्वयं के क्षेत्र में दूसरों द्वारा बनाई गई कथाओं में शामिल होना पड़ेगा.'
हालांकि, उन्होंने संकेत दिया कि भारत बैक चैनल वार्ता में शामिल है और यह कहना गलत होगा कि नई दिल्ली काबुल में हो रहे विकास को दूर से ही देख रही है. यह पूरी तरह से गलत होगा कि अगर हम कहें कि हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं. बातचीत और सामंजस्य के साथ बहुत सारी बातें सार्वजनिक करना जरूरी नहीं होती हैं. लेकिन पर्दे के पीछे हमारे दूतावास, राजदूत और अन्य अधिकारी सक्रिय हैं.
सिन्हा ने कहा कि मैं बैक चैनल वार्ता का हिस्सा नहीं हूं लेकिन मुझे यकीन है कि भारत सरकार कभी खामोश नहीं बैठती है. बहुत सारी बातें हो रही हैं.
उन्होंने कहा कि हमारी समस्या यह है कि हमारे (भारत के) बहुत सारे मित्र देश हैं. इसलिए हम किसी एक का भी पक्ष नहीं ले सकते हैं और न किसी एक को दूसरे के मुकाबले चुन सकते हैं. इसलिए आपको खामोशी के साथ अपनी चिंताओं को जाहिर करना होगा, उनसे अनुरोध कर आगे के लिए बेहतर तरीकों को ढ़ूंढना होगा.
जलालाबाद और हेरात में कोविड-19 संकट के बीच भारतीय वाणिज्य दूतावासों को बंद करने की खबरों के बारे में पूछे जाने पर अमर सिन्हा ने कहा कि महामारी के कारण यह अस्थाई रूप से बंद हो सकता है.
उन्होंने कहा, 'यहां वायरस का काफी डर फैला हुआ है. लेकिन यह अस्थाई उपाय ही होंगे. जबकि जलालाबाद और हेरात में लॉकडाउन लगाया हुआ है, तो वहां के लोगों तक सहायता पहुंचाना थोड़ा मुश्किल है. इसलिए हमें बस चिकित्सक एहतियात ही बरतने चाहिए.'
इस साक्षात्कार में अमर सिन्हा से अमेरिका-तालिबान शांति समझौता, इंट्रा-अफगान वार्ता, तालिबान के सत्ता में आने का अर्थ 1996 की स्थिति की वापसी तो नहीं, आईसी-814 अपहरण जैसे मुद्दों पर बातचीत की है.
सवाल - फरवरी में धूमधाम के साथ हुआ दोहा में हस्ताक्षरित यूएस-तालिबान शांति समझौता कितना नाजुक है ? क्या यह पहले से ही पतन की कगार पर है ?
जवाब - यह वास्तव में शांति का सौदा समझौता नहीं था. यह अमेरिकी सरकार और तालिबान के बीच एक समझौता है, जिसका उद्देश्य अफगान में शांति लाना है. इस समझौते को मुश्किलों का सामना करना पड़ा रहा है. यह गलत समय शुरू किया गया है. यह समझौता तब किया जा रहा है, जब अफगानिस्तान में चुनाव परिणामों की घोषणा और सरकार के गठन का समय है. अफगान वार्ता शुरू करने की तारीख 10 मार्च थी, जबकि राष्ट्रपति गनी और अब्दुल्ला ने नौ मार्च को शपथ ली थी.
सवाल - अफगानिस्तान ने पिछले एक दशक में जो लोकतांत्रिक लाभ हासिल किए हैं, उन पर क्या कोई संकट नजर आता है. खासतौर पर अमेरिका-तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है ?
जवाब - इस समझौते को सही तरीके से लागू किया गया है, तो मुझे नहीं लगता कि हमें कोई समस्या होनी चाहिए. यह समझौता वास्तव में अफगान सरकार और समाज के साथ जुड़ने के लिए तालिबान को एक राजनीतिक मुख्यधारा की पार्टी के रूप में वापस आने के लिए प्रेरित करता है. इस समझौता में तालिबान को आतंकी संगठनों से संपर्क काटने के लिए प्रतिबद्धताएं भी शामिल है.
सवाल - अमेरिकी अधिकारियों ने शक्ति-साझाकरण समझौते की प्रस्तावना में हिंसा को 80 प्रतिशत तक कम कर देने का वर्णन किया, जिसकी तालिबान द्वारा अनदेखी की गई. पिछले 24 से 48 घंटों में देश के 34 प्रांतों में से 20 में लड़ाई की सूचना मिली. राष्ट्रपति गनी को स्थिति सक्रिय रक्षा से आक्रामकता में बदलने के लिए मजबूर किया गया है. यह चक्र अब कहां जाता है?
जवाब - दुर्भाग्य से हमारे दृष्टिकोण से इस समझौते में अफगानों और अफगान सुरक्षा कर्मियों के खिलाफ हिंसा में कटौती करने के लिए कोई शर्त नहीं रखी गई. इस समझौते के तहत प्रतिबद्धता यह है कि तालिबान अमेरिकियों और उसके सहयोगियों पर हमला नहीं करेगा. इसमें अफगान सरकार या देश के प्रांतों में हिंसा रोकने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं है.
कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि तालिबान इंट्रा में प्रवेश करने से पहले कम से कम कुछ प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा करना चाहेगा. वह अधिक से अधिक ताकत के साथ बातचीत करना चाहते हैं.
सवाल - अमेरिकी राजदूत ने सिख अल्पसंख्यकों, प्रसूति अस्पताल और कुंदुज में सैनिकों पर हमलों का जिम्मेदार आईएस को बताया जबकि राष्ट्रपति गनी ने इसे तालिबानी हमला बताया. भारत इस विषय में क्या सोचता है?
जवाब - यह सभी आतंकी समूह आपस में जुड़े हुए हैं. ये अपने संसाधन, लोग, रणनीति, विचारधारा, सब कुछ आपस में साझा करते हैं. अच्छे और बुरे आतंकवादियों के बीच अंतर करना सही नहीं है. इन हमलों का एक विशेष अर्थ है. वे मूल रूप से तात्कालिकता को रेखांकित कर रहे हैं. युद्धग्रस्त अफगानों के मनोविज्ञान से खेल रहे हैं. अफगान सरकार को दबाव में डाल रहे हैं कि पहले सरकार उनकी मांगों को पूरी करे, उसके बाद वे इंट्रा-अफगान (intra-Afghan) वार्ता शुरू होने देंगे.
पिछले कुछ वर्षों में अन्य आतंकी समूह भी सामने आए हैं. उन्होंने इन हमलों का श्रेय लेना शुरू कर दिया है, जिससे तालिबान को मुश्किलों को सामना करना पड़ रहा है. हमें यह देखना चाहिए कौन सा समूह ये हमले कर रहा है, तथ्य यह है कि अफगानिस्तान में अभी भी हिंसा जारी है.
सवाल - भारत ने लंबे समय तक एक लाल रेखा खींच कर रखी. आप उन दो राजदूतों में से एक थे, जिन्होंने दृष्टिकोण में बदलाव के बाद मॉस्को में तालिबान के साथ एक ही अवसर पर गैर-आधिकारिक रूप से भारत का प्रतिनिधित्व किया. सेना प्रमुख बिपिन रावत ने पिछले साल रायसीना डायलॉग के दौरान कहा था कि भारत को तालिबान के साथ बातचीत बंद करनी चाहिए. भारत के लिए सीधे तौर पर तालिबान से उलझने की क्या गुंजाइश है?
जवाब - हमें हर राजनीतिक ताकत से उलझाने के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन तालिबान को कम से कम यह साबित करने दें कि यह एक राजनीतिक ताकत बन गया है. इसने हिंसा को खत्म कर दिया है और अफगानों को मारना बंद कर दिया है.
एक गैर-आधिकारिक तौर पर तालिबान ने पहली बार मॉस्को जाकर अपने क्षेत्रीय देशों के साथ बातचीत की. इंट्रा-अफगान वार्ता ऐतिहासिक पल था जब पूरी यह पूरी बातचीत लोकतांत्रिक तरीके से की गई. इस दौरान अमेरिका और तालिबान के अलावा के अलावा वहां सिर्फ कतर मौजूद था. इसलिए भारत का इस प्रक्रिया में शामिल होने का कोई सवाल ही नहीं था.
मैं सिर्फ तालिबान का एक परीक्षण चाहता हूं. अगर वे वास्तव में आतंकवाद से खुद को दूर करना चाहते हैं, क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से उन्होंने कहा है कि आईएसआईएस उनका दुश्मन है, आईएसआईएस अफगान को मार रहा है, यह अमेरिकियों और अफगान राज्य का दुश्मन है, तो उन्हें आईएसआईएस के खिलाफ लड़ना होगा. इससे पता चलेगा कि वे वास्तव में एक राष्ट्रवादी ताकत की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो अपने नागरिकों को मारने के बजाय अपने नागरिकों की रक्षा के लिए कुछ करने की कोशिश कर रहा है.
सवाल - क्या भारत के पास वास्तव में बैठकर विकास देखने का समय है? जलमे खलीलज़ाद ने अपनी हालिया दिल्ली यात्रा के दौरान कहा था कि भारत को तालिबान से सीधे बातचीत करनी चाहिए. इस पर आपका क्या कहना है ?
जवाब - भारत तालिबान सहित सभी गुटों से जुड़ने को तैयार है, लेकिन उन्हें पहले अपने इरादे साबित करने होंगे. भारत अफगानिस्तान में सभी गुटों के साथ संलग्न हो सकता है. यह बहुत स्पष्ट है. लेकिन तालिबान को कम से कम यह साबित करना चाहिए कि वह एक राजनीतिक ताकत बन चुका है. इसने हिंसा को खत्म कर दिया है और अफगानों को मारना बंद कर दिया है.
जरूरी नहीं कि हर समझौता सार्वजनिक तरीके से किया जाए. मुझे पूरा यकीन है कि पर्दे के पीछे से दूतावास और राजदूत सक्रिय है. खलीलजाद मूल रूप से दिल्ली आए थे ताकि भारत और काबुल में इस राजनीतिक गतिरोध को हल करने में अपने प्रभाव का उपयोग करे. इस बैक चैनल के कुछ परिणाम देखने को मिले भी हैं. इसका कारण अमेरिकी आग्रह और ईरान द्वारा परामर्श हो सकता है.
सवाल - तो क्या बैक चैनल चालू है?
जवाब - मैं इसका हिस्सा नहीं हूं, लेकिन मुझे यकीन है कि भारत सरकार हमेशा पीछे नहीं हटेगी. बहुत सारी चीजें हो रही हैं. कुछ चीजें चुपचाप हो रही हैं, विशेष रूप से अपने पुराने दोस्तों के साथ बातचीत. हमारी समस्या यह है कि भारत के बहुत सारे दोस्त हैं. इसलिए हम किसी का पक्ष नहीं ले सकते, एक को दूसरे से ऊपर नहीं रखा सकते. इसलिए आपको शांति से अपनी चिंताओं को सामने रखना होगा और बेहतर तरीकों के साथ आगे बढ़ना होगा.
सवाल - आईसी-814 अपहरण जैसी कुछ पुरानी यादें और जख्म आज भी जिंदा हैं. इनके बारे में क्या कहेंगे?
जवाब - जब मैं काबुल में था, तब मैं कुछ पूर्व तालिबानी सदस्यों से बात कर रहा था. यह अपहरण तालिबान के लिए बहुत ही प्रतिष्ठित की बात बन गई थी लेकिन इसे लेकर तालिबान का एक अलग ही दृष्टिकोण है. वह कहते हैं कि यह अपहरण उन्होंने नहीं बल्कि पाकिस्तानियों ने किया था. जिसे काबुल के बजाए नेपाल में अंजाम दिया गया था.
वह कहते हैं कि वास्तव में उन्होंने भारत के लिए एक मानवीय पहल की थी. क्योंकि उस विमान को दुनिया में कहीं भी उतरने की अनुमति नहीं थी और इसका ईंधन भी खत्म हो चुका था. फिर इस्लामाबाद में भारतीय राजदूत के अनुरोध पर उनके दूत ने मुल्ला उमर को एक संदेश भेजा, जिसके बाद कंधार वायु को रात में खोला गया और फिर विमान उतरा.
उन लोगों ने कहा कि इसलिए हमने भारत की मदद की, नागरिकों के जीवन बचाए और जो लोग आपने रिहा किए, वह हमें दोषी ठहराते हैं. आईसी-814 पर उनका बिल्कुल अलग नजरिया है.
सवाल - तालिबान के साथ भारत के एक मंच साझा करने को लेकर अलग-अलग मत हैं. चारों ओर यह भी बहस है कि क्या कश्मीर पर तालिबान के लिए कोई बदलाव आया है?
जवाब - मुझे नहीं लगता कि तालिबान ने कभी कहा है कि वह कश्मीर या उसके विवाद में कोई रुचि रखते हैं. हालांकि, दोनों मुद्दों को जोड़ने के लिए पाकिस्तान में कुछ वर्गों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं. वह इसे एक साधारण कारण से जोड़ना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस तरह से वह अमेरिकियों को रिझा सकते हैं क्योंकि समीकरण का अफगान हिस्सा अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. जबकि पाकिस्तान के लिए समीकरणों के दोनों हिस्से बहुत महत्वपूर्ण हैं और वह एक निश्चित समानता चाहते हैं.'
तालिबान ने यह सिर्फ दो दिन पहले ही नहीं कहा, बल्कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाते वक्त भी कहा था. पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा था कि यह दोहा में गति वार्ता को प्रभावित करने वाला था. तब तालिबान के प्रवक्ता ने कहा था कि यह दोनों मुद्दे बिल्कुल अलग हैं.
प्रवक्ता का कहना था कि अनुच्छेद 370 भारत का आंतरिक मामला है और हम इसका सम्मान करते हैं. उन्होंने यह साफ किया था कि वह कश्मीर मुद्दे और तालिबान के बीच कोई संबंध नहीं देखते हैं.
पिछले हफ्ते हमने सोशल मीडिया पर छाए तालिबान के कुछ बयानों को देखा, जिनमें कश्मीर को हमसे छीन लेने के दावे किए जा रहे थे. लेकिन मुझे लगता है कि यह शरारती तत्वों की हरकत थी. इसके बाद तालिबान के दोनों प्रवक्ता स्टानिकजई और सुहैल शाहीन सामने आए और पूरे मामले पर सफाई पेश की.
सवाल - आपने अतीत में कहा है कि तालिबान की नीतियां पाकिस्तान द्वारा बहुत अधिक शासित हैं और जब तक उन संबंधों को शिथिल नहीं किया जाता है, तब तक भारत के लिए कोई भी कदम उठाना बेवजह है. क्या भारत अफगानिस्तान को रावलपिंडी के चश्मे से देख रहा है?
जवाब - बिल्कुल नहीं.. अफगानिस्तान को पाकिस्तानी चश्मे से देखना गलत होगा. आपको अफगानिस्तान को अपने पड़ोसी और सार्क सदस्य के नजरिए से देखना होगा और हमें पाकिस्तान को नहीं देखना चाहिए, जिसकी दुर्भाग्य से अब तक एक नकारात्मक भूमिका रही है.
हम अफगानिस्तान में मुख्य रूप से मानवीय सहायता और बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण पर केंद्रित हैं ताकि वास्तव में हमारे पड़ोस में शांति और समृद्धि की बढ़ें. लेकिन पाकिस्तान इसे अलग ही ढंग से देखता है और इसका लाभ उठाना चाहता है.
सवाल - लेकिन उनका नई दिल्ली का अफगान राजनीतिक सुलह में अधिक सक्रिय भूमिका नहीं निभाने के बारे में संकोच, रावलपिंडी-काबुल समीकरण को सही ठहराता है?
जवाब - पाकिस्तान ने 18 वर्षों तक एक नीति का जबरदस्त पालन किया है, जिसका मोल उसे खुद मानवीय क्षति और वित्तीय गड़बड़ी से चुकाना पड़ा है. अच्छे और बुरे दोनों के लिए उन्होंने एक ही निश्चित मार्ग का अनुसरण किया है.
आज उन्हें लगता है कि वह अंत के बेहद करीब हैं. मुद्दा यह है कि क्या वह तालिबान को आजाद होने देंगे और उन्हें अफगानिस्तान में सामंजस्य स्थापित करने देंगे. साथ ही वास्तव में एक देश को एक संप्रभु देश के रूप में स्वतंत्र रूप से चलने देंगे.
सवाल - और भारतीयों का अपहरण?
जवाब - किडनैपिंग हुई है लेकिन उनके पास बहुत सारे स्थानीय और आर्थिक कारक हैं, जो इन घटनाओं को भड़काने की मांग करते हैं.
सवाल - भारत ने महामारी के दौरान अफगानिस्तान में अपने दो वाणिज्य दूतावासों को बंद करने को लेकर कोई पूर्वानुमान किया था?
जवाब - मैंने हाल ही में अखबारों और पत्रिकाओं में इसे पढ़ा है. यहां वायरस का काफी डर फैला हुआ है. लेकिन यह अस्थाई उपाय ही होंगे. जबकि जलालाबाद और हेरात में लॉकडाउन लगाया हुआ है, तो वहां के लोगों तक सहायता पहुंचाना थोड़ा मुश्किल है. इसलिए हमें बस चिकित्सक एहतियात ही बरतने चाहिए.
सवाल - काबुल से दोहा तक की वार्ता में आपको क्या आश्वासन है, अगर तालिबान सत्ता में वापस आ जाता है, तो 90 के दशक की स्थिति दोबारा नहीं होगी. इस समय सुरक्षा स्थिति को लेकर भारत के सबसे बड़े डर क्या हैं?
जवाब - वास्तव में, हमारा सबसे बड़ा डर यह होना चाहिए कि अगर तालिबान बिल्कुल नहीं बदला और अगर हमारे सामने 1996 की स्थिति वापस आ गई. ऐसे में अफगान पूरी तरह से विभाजित हो जाएगा और फिर से लड़ाई और गृह युद्ध के पुराने समय में चला जाएगा और यही सबसे खराब स्थिति होगी.
हमारी समझ यह कहती है कि अगर आप तालिबान से सार्वजनिक रूप या फिर अपने वार्ताकारों के माध्यम से भी बात करने जाते हैं, तो भी इससे यह साबित नहीं होता कि हमने उन्हें परख लिया है. बल्कि उन्हें खुद सामने आना होगा और वार्ता करनी होगी.
उन्होंने अपनी शर्तों की सूची भी साझा करनी होगी. अभी भी उनकी कई ऐसी मांगें हैं, जिन पर उन्होंने अपना रुख साफ नहीं किया है. जैसे महिलाओं के अधिकारों, लोकतंत्र, अफगान सुरक्षा बलों की भूमिका. इसके अलावा उन्होंने आतंकवाद को खत्म करने, हिंसा छोड़ने जैसे सही फैसले लिए हैं. इसलिए मैं उम्मीद करता हूं कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ खेल नहीं रहे हैं और न ही किसी तरह से उसे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे हों.